गीता का मनोवैज्ञानिक विवेचन

August 1986

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विश्व के सभी महान धर्मग्रन्थ देश काल की सीमा से परे हैं। वे शाश्वत और सार्वभौमिक हैं। भगवद् गीता इसी श्रेणी के धर्मग्रन्थों में आती है और इस प्रकार यह मात्र हिन्दुओं के लिए ही नहीं है। इसका सन्देश एक सार्वजनीन उपयोगिता की जानकारी कराता है। यह आज भी उसी प्रकार नवीन है जिस प्रकार कई शताब्दियों पूर्व गीताकार द्वारा अर्जुन को दिया गया था। वस्तुतः आधुनिक मानव को गीता के सन्देश की आवश्यकता है। यदि वह वैज्ञानिक और तकनीकी जन्य तनावों एवं दुश्चिन्ताओं से मुक्ति पाना चाहता है, तो उसे गीता से प्रेरणा पानी चाहिए।

देखें! आधुनिक मानव की मूल समस्याएं क्या हैं? साइंस और टेक्नोलॉजी की नई तरक्की से आज की संस्कृति में रह रहे नर-नारियों के जीवन में, उनके नैतिक मूल्यों में, काफी सीमा तक ह्रास हुआ है। मात्रात्मक मूल्यों का अपेक्षाकृत महत्व अधिक माना जाने लगा है। गुणात्मक उपयोगिता की उपेक्षा हो रही है। उसका आन्तरिक जीवन दरिद्र है, और वह इस गरीबी की दासता से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके लिए वह साइंस और टेक्नोलॉजी द्वारा उपलब्ध भौतिक पदार्थों को बटोरने में लगा है। मनुष्य इस समस्या का जो कि मूलतः मनोवैज्ञानिक है, भौतिक हल ढूंढ़ रहा है। वह सोचता है कि विज्ञान जो कि शक्तिशाली हो रहा है, सभी समस्याओं को सुलझा सकता है। किन्तु वह भूल जाता है कि, विज्ञान गति की समस्या को सुलझा सकता है, वह दिशा का पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकता कि किस दिशा में चलना चाहिये। वह इस वास्तविकता के दृष्टिकोण को भूल गया है कि विज्ञान सुविधा प्रदान कर सकता है, किन्तु सुख-शान्ति नहीं। सुख शान्ति पदार्थों के आधिपत्य से नहीं मिलती बल्कि मन को उसकी सभी अन्तर्बाधाओं से मुक्त करने से ही मिलती है। इसलिए इसे पवित्र और निष्पाप कहा गया है। आधुनिक युग पदार्थों के ऊपर मानवीय ज्ञान के विजय का युग है, फिर भी मन को जीतने का रहस्य सीखना है। बिना मन को जीतने का रहस्य जाने पदार्थों पर विजय प्राप्ति की होड़ व्यर्थ ही नहीं बल्कि निरपेक्ष रूप से खतरनाक भी है। मनुष्य ने ज्ञान की प्राप्ति तो की है, किन्तु उसमें विवेक की कमी है। जब तक वह ज्ञान को प्रज्ञा में परिवर्तित करने में असमर्थ है, तब तक उसका एवं सम्पूर्ण मानव-प्रजाति का भविष्य मनहूस एवं अन्धकारमय है। दूसरे शब्दों में, मानव आज सभी वस्तुओं के ऊपर “जीवन के यथार्थ-दर्शन” की खोज में है, जो मात्र हिंदू दर्शन में, पूर्वार्त्त अध्यात्म में उपलब्ध है।

भगवद्गीता, जीवन के यथार्थ दर्शन का अकूत मूल्यों का संदेश है। गीता जीवन के मार्ग का मर्म बताती है ताकि आधुनिक मानव की प्रस्तुत चिर नवीन समस्याओं का निदान ढूंढ़ निकालने में सहायता मिले। भगवद्गीता न केवल यथार्थ-कर्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है, बल्कि वह बिना भूल के यह मर्म बतलाती है कि यथार्थ कर्म, यथार्थ-बोध होने पर ही संभव है। गीता के अनुसार यथार्थ बोध मानवीय मन की एक ऐसी स्थिति है, जिसमें वह समग्र और निर्विकार-ध्यान के योग्य होता है। यह अवस्था विचारणा की भ्रान्ति से मुक्त अवस्था है एवं प्रतिकूलताओं से दूर है। गीता की शिक्षा अर्जुन को सीढ़ी दर सीढ़ी उद्विग्नता से प्रकाश की ओर ले जाती है। मन जो कि इच्छा वासना के आकर्षण से पकड़ लिया गया है, वही बुद्धि के प्रकाश से ज्योतिर्मान होता है। दूसरे शब्दों में, वह मानस से अतिमानस की ओर ले जाती है।

प्रश्न उठता है कि क्या गीता मनुष्य को आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दुनियादारी छोड़ने के लिए कहती है? क्या यह सुझाव देती है कि मनुष्य को कर्म का परित्याग कर देना चाहिये? भगवद्गीता की शिक्षा का अनोखापन इस तथ्य में सन्निहित है जिसमें वह यह कहती है कि आध्यात्मिक लक्ष्य की खोज जीवन के प्रतिदिन के दैनन्दिन क्रिया व्यापार में करना चाहिए। गीता यह कहती है कि मानव सर्वोच्च प्रबोध को, सभी कर्मों को उचित ढंग से करते हुए न कि कर्म से दूर भागते हुए प्राप्त कर सकता है। अब प्रश्न यह कि मनुष्य किस तरह यथार्थ-कर्म को जान सकता है? गीता यह कहती है कि जैसे ही मानव अपने को प्रतिक्रिया से मुक्त करता है, वह गहन गूढ़ निष्क्रियता (अकर्म) की अनुभूति करता है। निष्क्रियता या अकर्म ही निश्चय ही कर्म या क्रिया के सम्पादन के लिए यथार्थ पृष्ठभूमि है। कर्म जो यथार्थ हो, क्रिया जो स्वयं के विचार से मुक्त हो।

गीता के तीन प्रमुख योग की परिभाषाओं में से हमें उस मार्ग को समझना चाहिये जिसे भगवान श्री कृष्ण ने यथार्थ बोध को प्राप्त करने के लिए निर्देशित किया है, जहां से अकेले उचित कर्म का आविर्भाव होता है। योग के बारे में गीता कहती है कि यह एक वियोजन है, जिससे दुख का संयोजन होता है, वह क्या है जो कि मानव को दुख से संसर्ग कराता है। निश्चय ही वह मन है। इसकी सामर्थ्य तुलना एवं विषमता के द्वारा जानी जा सकती है। मानव के दुख की समस्या मूलतः मन की समस्या है जो कि तुलना एवं विषमता की प्रक्रिया को ग्रहण करने से पैदा हुई है। इस प्रक्रिया से ही उसकी सभी प्रतिक्रियाएं प्रादुर्भूत होती हैं।

आधुनिक मानव निश्चय ही आन्तरिक द्वन्द्वों से उद्विग्न एवं अशान्त है तथा यह अन्तर्द्वन्द्व ही उसके समग्र मनोवैज्ञानिक जीवन की अपूर्णता का कारण है। यह वियोजन की समस्त दुखों का कारण है। वास्तव में वह अन्तः के सुनियोजन की खोज में है तथा संभवतः इसके लिए, उच्चतर मार्गदर्शन गीता की उपेक्षा कोई नहीं हो सकता। समग्र व्यक्तित्व के निर्माण के लिए कर्म की सक्रियता एवं सुनियोजन गीता का एक शाश्वत संदेश है। जहां मन की प्रतिकूलता की स्थिति ज्ञानातीत है, अकर्म का संतुलन मनोवैज्ञानिक समग्रता की स्थिति है। गीता इस समस्या से संबन्ध, व्यापक दृष्टि से रखती है। व्याख्यान के बाद व्याख्यान, अन्ततः अंतिम प्रवचन में अर्जुन महत चेतना की इच्छ तथा अपनी वैयक्तिक महत्वाकांक्षा में परस्पर संबद्ध देखता है, एवं प्रत्यक्ष बोध द्वारा मानसिक अन्तर्द्वन्द्व की समाप्ति की स्थिति तक पहुंच जाता है। इस तरह वह पूर्ण समग्रता को प्राप्त करता है।

गीता का उद्बोधन आधुनिक युग की समस्याओं के लिए त्वरित एवं प्रयोगात्मक मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है। वह मन की जटिलताओं को बाहर निकालने की राह दिखाती है तथा अति मानस की पूर्णता और मुक्तावस्था का दिग्दर्शन करती है। गीता कहती है कि यह रास्ता कुछ थोड़े लोगों के लिए ही नहीं है। इस रास्ते पर वे सब चल सकते हैं जिन्होंने जीवन की उलझनों से मुक्ति का मार्ग खोजा है। एक उम्र में जहां व्यक्ति अधिक से अधिक राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक शक्तियों के प्रभाव के कारण स्वयं को बौना, नगण्य देखता है, वहां पर गीता आशा और खुशहाली का सन्देश प्रदान करती है। इसके लिए वह उसे जीवन के मार्ग का दिग्दर्शन कराती है, जो समाप्त हुए महत्व को उसे पुनः दिलाने की ओर ले जाती है। गीता व्यक्ति को सक्रिय जीवन का रास्ता चुनने का मार्गदर्शन करती है।

व्यक्ति का आध्यात्मिक पुनरुत्थान निश्चय ही सुखी समाज की संरचना का मार्ग है। वस्तुतः यह मानव में प्राण फूंकने वाला एवं शक्ति प्रदान करने वाला एक ऐसा शाश्वत संदेश है जो युगों-युगों तक चिरनवीन बना रहेगा।


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