पंचमुखी सावित्री और ज्वालमाल महाकाली

August 1986

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इस संसार में पदार्थ भरा पड़ा है और उसके भीतर शक्ति का भण्डार भी। यदि पदार्थ सर्वथा निर्जीव रहा होता तो पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति, उर्वरता कहाँ से आती? उसमें भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट कैसे होते?

आकाश, ग्रह-नक्षत्र अधर में टँगे हुए हैं, धुरी तथा कक्षा में नियत गति से घूमते भी हैं, आपस में टकराते भी नहीं। जन्म, अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम सभी चर-अचरों पर लागू होता है। यदि उनमें यह विशेषता न रही होती, शक्ति तत्व का अभाव रहता तो उनमें कई प्रकार की हलचलें न होतीं। चट्टानें और पर्वत भी गिरते-उठते रहते हैं। मौसम बदलते हैं और दिन-रात के अनवरत चक्र चलते हैं। इससे स्पष्ट है कि यह विश्व-ब्रह्माण्ड शक्ति से अभिपूरित है। यहाँ कुछ भी निःसत्व या निर्जीव नहीं है।

दृश्य-अदृश्य जीव-जन्तुओं को तो पहले से ही प्राणधारी वर्ग में माना गया है। मनुष्य इन सब का मुकुटमणि है। इसमें सामान्य प्राणियों की तुलना में अधिक क्षमता है। अन्य प्राणी तो उतनी ही सामर्थ्य के अधिकारी हैं, जिसके सहारे उनकी जीवन यात्रा चलती रहे, वंश-वृद्धि होती रहे। आक्रमण और आत्मरक्षा जैसे प्रयोजनों में ही उनकी सहज बुद्धि काम करती है।

यह प्रकृति की क्रियाशक्ति है। भौतिक विज्ञान के अन्वेषण-आविष्कार इसी क्षेत्र में होते रहते हैं। प्रकृति के अनेकों चमत्कार जो दीख पड़ते हैं, वे सभी प्रकृति की इस क्रियाशक्ति की देन हैं। यह मनुष्य में भी है और उसके कायिक क्रिया-कलाप को इस आधार पर चलाती रहती है।

ब्रह्माण्डव्यापी एक चेतना शक्ति भी है जिसे परब्रह्म कहते हैं। चिन्तन और निर्धारण उसी का है। वही योजनाएँ बनाता है और व्यवस्थाएँ करता है। मनुष्य का मानस उसी की छत्रछाया में विकसित होता है। लोकाचार क्षेत्र को मन की उथली परत संभालती है, किन्तु अन्तःकरण की- अन्तरात्मा की- सुपरचेतना की गहन परतें इस दिव्य ब्रह्मचेतना की परिधि में ही आती हैं और वहीं से उसका सूत्र-संचालन होता रहता है। मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार कमल-ब्रह्मरंध्र, इसी चेतना के मनुष्य में अवतरित होने का केन्द्र बिन्दु है। ब्रह्मा-विष्णु इसी अमृत कलश में विराजते हैं और उन देवताओं के दर्शन-संपर्क इसी क्षेत्र में होते हैं, जिनकी उपस्थिति स्वर्गलोक में या उससे भी ऊँचे ब्रह्म लोक आदि में मानी गई है। ब्राह्मीशक्ति चिनगारी के रूप में हमारे मस्तिष्क मध्य में विद्यमान है। वहीं सूक्ष्म और कारण शरीरों के दो पात्र प्रतिष्ठित हैं। ब्राह्मी कामधेनु दुहने वाले की इच्छानुसार इन पात्रों में से एक को या दोनों को भरती रहती है। उसी अनुग्रह से जीव उच्चस्तरीय सशक्त भूमिकाएँ निभा सकने में समर्थ होता है। ईश्वर और जीव की मध्यवर्ती एकता-घनिष्ठता इसी चेतना गहर में होती है। विश्व-ब्रह्माण्ड के लोक-लोकान्तरों तक अथवा अदृश्य देवशक्तियों के साथ संपर्क साधने, उन्हें अनुकूल बनाने में इसी क्षेत्र को विकसित, परिष्कृत एवं प्रशिक्षित करना पड़ता है। इस समूची विद्या को एक शब्द में ‘आत्मिकी” कह सकते हैं। देवताओं के क्रीडा-कल्लोल का यही क्षेत्र है। विष्णु उसी क्षीर सागर में शयन करते हैं। शिव की समाधि वाला कैलाश यही है। जीवात्मा का उत्थान-पतन इसी क्षेत्र में निर्धारित होता रहता है।

व्यक्ति सत्ता दो भागों में विभाजित है- स्थूल दूसरी सूक्ष्म। स्थूल दृश्यमान काया को कहते हैं और सूक्ष्म अदृश्य प्राण सम्पदा को। शरीर रसायनों का बना है। उसकी संरचना में विशुद्ध रूप से भौतिक घटकों का समावेश हुआ है। उसमें काम करने वाली क्रिया शक्ति को प्रकारान्तर से जैव ऊर्जा कहते हैं। उसे ओजस्-तेजस्-वर्चस् के रूप में आँका और नापा भी जा सकता है। शरीर के इर्द-गिर्द कुहरे जैसा छाया रहने वाला तेजोवलय इसी का प्रतिबिम्ब है।

जिस प्रकार ब्राह्मी चेतना, अमृत कुण्ड, ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क मध्य में है, उसी प्रकार प्रकृतिगत क्रियाशक्ति प्राण ऊर्जा का भाण्डागार मूलाधार चक्र में है। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय मूल में कुछ ऊपर उठकर नाभिचक्र के पीछे भीतरी मध्य भाग में है, समझा जा सकता है कि मेरुदण्ड का अन्त जहाँ हुआ है, वह विचित्र गुच्छक मूलाधार चक्र है। शक्ति का निवास इसी उद्गम में है। वह समस्त शरीर में फैलती है, विभिन्न अवयवों का सूत्र संचालन करती है। मनःक्षेत्र में उल्लास और साहस उसी की देन है। इस प्रकार वह न्यूनाधिक मात्रा में छायी तो समस्त शरीर पर रहती है- और शरीर संबंधी विभिन्न क्रियाकलापों को भी संभालती है। उसका अति प्रत्यक्ष कार्य यौनाचार है। इसी क्षेत्र में कामोत्तेजना उत्पन्न होती है। मस्तिष्क उसकी तृप्ति के साधन ढूँढ़ता है। उपलब्ध न होने तक बेचैन रहता और स्खलन के उपरान्त कुछ काल के लिए शान्त हो जाता है; किन्तु बाद में फिर उत्तेजना उभर आती है और कामुक कल्पनाओं में भटकने लगती है। शाँति के लिए बार-बार पुनरावृत्ति करनी पड़ती है। वंश-वृद्धि इसी प्रकार होती है। नर-नारी प्रकृति के इसी प्रयोजन की पूर्ति में मरते-खपते रहते हैं। हँसने और रोने का जैसा मिश्रित संयोग इस प्रजनन कृत्य के साथ जुड़ा है। उसे देखते हुए विधाता की उलटबाँसी पर हँसे बिना नहीं रहा जाता।

प्रजनन प्रकरण को छोड़ कर इस प्राण ऊर्जा के उच्चस्तरीय प्रयोजनों की चर्चा यहाँ की जा रही है, यदि वह न्यून मात्रा में हो, तो मनुष्य डरपोक, आलसी, उदास और नपुँसक प्रकृति का होने लगता है युवावस्था में भी उसे आन्तरिक बुढ़ापा घेर लेता है, किन्तु यदि उसका अनुपात सामान्य हो, तो उसे एक समर्थ व्यक्ति की भूमिका निभाते हुए देखा जा सकता है।

मूलाधार स्थित प्राण ऊर्जा का मिलन-संपर्क मस्तिष्कीय ऊर्जा के साथ होता है। इसके आवागमन का मार्ग मेरुदण्ड है। मेरुदण्ड को मस्तिष्क का पुच्छ भाग ही कहना चाहिए। शरीर में फैले ज्ञानतंतु इसी के माध्यम से निस्सृत होते हैं। उन्हें संदेश और संकेत तो मनःक्षेत्र से मिलते हैं, किन्तु कार्य कर सकने की क्षमता कुण्डलिनी के विद्युत भंडार से उपलब्ध होती है। उसकी भूमिका जनरेटर या बैटरी स्टोर डायनेमो जैसी होती है। कभी-कभी वहाँ से चुम्बकीय क्रियाकलाप भी होते हैं। ए. सी. और डी. सी. करेंट की तरह खींचने और फेंकने की क्रियाएँ भी आवश्यकतानुसार उत्पन्न होती हैं। यह ज्वार-भाटे शरीर और मनःक्षेत्र में आगे बढ़ने और पीछे हटने के संकेत देते हैं। मैत्री और विग्रह-प्रेम और घृणा-सहयोग और आक्रमण इसी क्षेत्र के उतार-चढ़ावों के खेल हैं।

काय-कलेवर के इस लम्बे और भारी ढकोसले में संचालक सूत्र दो ही हैं। मस्तिष्क का अमृत कुण्ड जो भावना, कामना, आस्था, प्रज्ञा, श्रद्धा, निष्ठा आदि का उद्गम है। इस प्राण ऊर्जा का संवाहक कुण्डलिनी चक्र जो मूलाधार में अवस्थित रहकर मौलिक स्तर की ऊर्जा काया में तथा उसके संपर्क क्षेत्र में बखेरता रहता है।

आत्म विज्ञान में उपरोक्त दोनों ही विशिष्ट केन्द्रों के बारे में बहुत कुछ कहा और समझाया गया है; किन्तु पुरातन कथन शैली ऐसी है, जिसमें अलंकारिक कवित्व का अत्यधिक समावेश हुआ है। संभव है सोचने वालों ने सोचा हो कि आत्म विज्ञान के ज्ञाताओं को रहस्यवाद के आधार पर तथ्यों तक पहुँचने की मानसिक विशेषता भी होनी चाहिए। इसे कला-कौतूहल का सम्मिश्रण भी कह सकते हैं। जब शास्त्र और दर्शन जैसे विचार विज्ञान से संबंधित विषयों को छन्दबद्ध अलंकारिक रूप से लिखा गया है; तो आत्म विज्ञान को उस कला-सौंदर्य से वंचित क्यों रखा जाता। देव कुण्ड-अमृत सरोवर, मस्तिष्क और शक्ति कुण्ड - प्राणऊर्जा भण्डार कुण्डलिनी क्षेत्र की विवेचना में उसी क्रम का समावेश क्यों न किया जाता? किया भी गया है। हुआ भी है।

विज्ञान नर की अभिरुचि का विषय है और कला नारी का। चूँकि आत्म विज्ञानियों में से अधिकाँश नर रहे हैं। जिससे उनके लिए आप्त पुरुषों ने यही उचित समझा कि उस कथन को नारी अलंकार के साथ जोड़कर अधिक आकर्षक बनाया जाय। शक्ति शब्द ऐसे भी स्त्रीलिंग है। इसलिए उसकी विवेचना में अलंकार और लिंग नारी वर्ग के किये गये हैं, तो उसमें कुछ विसंगति नहीं समझी जानी चाहिए।

जहाँ नारी वर्ग की साधना का विषय है, वहाँ पुरुष वाचक प्रतिष्ठापना भी हुई है। पर उनका अनुपात अपेक्षाकृत कम ही है। नारियाँ अपने सामान्य जीवन क्रम में उस मार्ग पर अधिक दूर तक चल भी नहीं पातीं। गृह-व्यवस्था का संचालन ही उनके लिए एक पूरा तपोवन बन जाता है। फिर भी उनके लिए निषेध या प्रतिबंध नहीं है। अरुन्धती, अनुसुइया, सुकन्या, घोषा, अपाला, इला आदि की तरह उनके लिए भी ब्रह्मवादिनी स्तर का पुरुषार्थ करने की छूट है। मैडम क्यूरी की तरह नारी आत्म विज्ञान में भी अपने चरण बढ़ा सकती है।

प्रसंग यहाँ बहुलता वाले नरपक्ष का चल रहा है। उसके लिए उपरोक्त दोनों शक्तियों के साथ संबंध स्थापित करने के लिए शक्तियों के नारी रूपों की प्रतिष्ठापना की गई है।

मस्तिष्क क्षेत्र के देवता माने गये हैं- ब्रह्मा। ब्रह्मा की पौराणिक मतानुसार दो पत्नियाँ हैं। एक गायत्री, दूसरी सावित्री। गायत्री को ब्राह्मी, सरस्वती एवं प्रज्ञा भी कहते हैं। सात्विक प्रयोजनों के लिए आत्मोत्कर्ष, ऊर्ध्वगमन एवं मोक्ष, आत्म साक्षात्कार ब्रह्मनिर्वाण आदि के लिए गायत्री की उपासना की जाती है। सावित्री पाँच मुखी है। पाँच तत्व, पाँच प्राण का प्रतीक मानकर उसे सावित्री कहा गया है। वह पंचमुखी दशभुजी है। दशभुजी का अर्थ है दश इन्द्रियों की बलिष्ठता का केन्द्रीकरण। पाँच मुखों का तात्पर्य है- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्द मय कोश। कोष कहते हैं खजाने को। बहुमूल्य मणिमुक्तकों का- ऋद्धि-सिद्धियों का खजाना। इनके सहारे शाप-वरदान देने की क्षमता प्राप्त होती है। यह दोनों ही भौतिक प्रयोजन हैं। इसलिए गायत्री को आत्मिकी और सावित्री को भौतिकी कहा गया है।

ऊर्जा पक्ष के अधिष्ठाता शिव माने गये हैं। उनका त्रिशूल ताप, शब्द और प्रकाश तरंगों के लहलहाते ऊर्जा भण्डार का प्रतीक है। शिव की दो पत्नियाँ हैं- एक पार्वती दूसरी महाकाली। महाकाली को दुर्गा, चण्डी, भवानी रौद्री आदि नामों से भी पुकारते हैं। यही कुण्डलिनी भी है।

पार्वती सौम्य हैं। उनके गणेश और कार्तिकेय दो पुत्र भी हैं। स्वयं कठोर तप करके उनने शिव को वरण किया था। किन्तु चण्डी ऐसे ही शिव के गले बँध गई। उसे प्रजा पति ने देवताओं की शक्ति एकत्रित करके सृजा था और दैत्यों का दलन संभव कराया था। इसके उपरान्त जब से अपनी दसों दिशाओं में ज्वाला बनकर विचरण करने लगी तो नियमन के लिए उन्हें शिव के गले बाँध दिया गया। वहाँ भी वे पार्वती की भाँति शिव के चरणों में नहीं गईं। नन्दी पर नहीं बैठीं। उनने अपना वाहन सिंह रखा और शिव को नीचे पटक कर उनकी छाती पर चढ़कर कल्लोल करने लगी हैं। यही है महाकाली-महाचण्डी कुण्डलिनी, जिसका कार्य दमन है। वाममार्ग में इसी का प्रयोग होता है।


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