राजा अश्वघोष वैराग्य लेकर ईश्वर दर्शन की लालसा से देश देशान्तरों में भ्रमण करते रहे। न तीर्थ यात्रा से शान्ति मिली, न देव दर्शन से। कथा प्रवचन सुनते रहे उससे भी कोई बात बनी नहीं। साधना में मन ही नहीं लगा।
इस प्रयास परिभ्रमण में वे एक किसान के खलिहान में जा पहुँचे, वह बहुत प्रसन्न और सन्तुष्ट दीख रहा था। उसे तृप्ति और शान्ति का रसास्वादन करते हुए पाया, मस्ती के गीत गा रहा था और हल चला रहा था।
अश्वघोष वहीं बैठ गये। और किसान से वैसी ही तृप्ति उन्हें की प्रदान करने की याचना करने लगे।
किसान ने सभी बात जानी और कठिनाई समझी। वैरागी को पेड़ तले बैठा लिया। जो चावल पास में थे वह परोसे और आधा-आधा बाँट-कर खाया। पेट भर गया तो दोनों को गहरी नींद आ गई और उसी छाँव में देर तक सोते रहे।
दोनों साथ-साथ जागे। किसान ने कहा परिश्रम पूर्वक कमाया और मिल बाँट कर खाया जाय तो वैसी शान्ति मिल सकती है जैसी कि ज्ञानी वैरागी चाहते हैं।
राजा की आँख खुल गई और उनने अपनी रीति-नीति अपनाई जैसी कि किसान ने प्रत्यक्ष कर दिखाई थी।