बहिरंग और अन्तरंग की विसंगति

August 1986

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विकास के बहिरंग क्रिया-कलापों से बहुत लोग परिचित हैं पर भूलते प्रायः उसी पक्ष को रहते हैं जिसे आत्म विकास कहते हैं। व्यक्ति मोटे तौर से बहिर्मुखी है। ज्ञान उसे इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है। इन्द्रियों में एकपक्षीय शक्ति है। वह उसी को देख सकती है, जो बाहर है। उसी का रसास्वादन कर सकने की भी क्षमता है। इस आधार पर हमें जो ज्ञान प्राप्त है वह एकाँगी एवं अधूरा है।

दूरबीन आँखों पर लगा कर दूर तक के दृश्य देख सकते हैं पर उस आँख को नहीं देख सकते जो दृष्टा है।

नेत्र गोलक में कहाँ क्या खराबी है या उसकी सुन्दरता में क्या न्यूनाधिकता है इस बता सकना दूरबीन के बलबूते की बात नहीं है। कान बाहर के शब्दों को सुनते हैं। ध्वनियों को पहचानते और उनके मध्यवर्ती अन्तर की विवेचना करते हैं पर यह नहीं समझ पाते कि उनकी आन्तरिक संरचना कैसी है? नाक सूँघ कर सुगंध और दुर्गन्ध का अन्तर करती है पर यह नहीं जानती कि उसकी भीतरी परतों में उभर रहे जुकाम का क्या स्वरूप और कारण है?

स्कूल में हमें बहिरंग ज्ञान के बारे में बहुत कुछ बताया जाता है। पेड़ पौधों के उत्पत्ति, ऋतु परिवर्तन, प्राणियों की आकृति प्रकृति, धरती की भौगोलिक स्थिति, पदार्थ का मूल स्वरूप और उसका परिवर्तन किस प्रकार होता है इसकी जानकारी को एक के बाद दूसरी कक्षा में पढ़ाया जाता है। इन विषयों में अधिक जानकारी को विद्वान कहते हैं। वे इतिहास भी पढ़ा सकते हैं और यह बता सकते हैं कि किन प्रदेशों के लोगों की परिस्थितियाँ और मान्यताएँ क्या हैं? इतनी अधिक जानकारियों का संग्रह रखने पर भी वे यह नहीं जानते कि मनुष्य की व्यक्तिगत सत्ता क्या है? और वह किस प्रकार विकसित एवं अधःपतित होती है? एक व्यक्ति जिन परिस्थितियों में दुखी, चिन्तित और हैरान रहता है उन्हीं में दूसरा क्यों मस्ती में दिन गुजारता है और अपने सौभाग्य को सराहता है? इस अन्तराल की भिन्नता और उसकी आन्तरिक मनःस्थिति में विसंगति बने रहने का कारण क्या है? वह यह नहीं जानता। बाहर की बातों में प्रवीणता और दृष्टा के स्वरूप के बारे में अनजान रहने वाली इस स्थिति को भौतिक जानकारी कहा जाता है। आमतौर से लोग इसी के बारे में जानकार होते हैं और इसी संदर्भ को विद्यालयों में पढ़ते हैं।

जानकारी जितनी अधिक हो उसे मस्तिष्कीय विकास कहा जा सकता है। मन-मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने का काम पुस्तकें करती हैं। अध्यापक कराते हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ अन्य सूत्रों से जानकारियाँ प्राप्त करते हैं वही हमारी ज्ञान सम्पदा है। जो जितना बहुज्ञ है, वह उतना ही बड़ा जानकार या विद्वान माना जाता है।

इतने पर भी उसकी यह समस्त मिली-जुली जानकारी अपूर्ण है क्योंकि वस्तुओं का स्वरूप जान लेने पर भी वे हमारे ऊपर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ क्यों छोड़ती हैं, इस सम्बन्ध में हम नहीं के बराबर जानते हैं। एक वृक्ष को चित्रकार उसकी शोभा सुषमा वाले पक्ष से देखता है। बटोही उसकी नीचे कैसी और कब तक छाया मिल सकती है इस आधार पर एवं लकड़हारा उसकी लकड़ी के बाजारू मूल्य का अनुमान लगाता है। बात तीनों की ही सही है पर उन मूल्याँकनों के बीच इतना अन्तर क्यों है? इस दृष्टिकोण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो आधारभूत कारण हैं उनसे वह प्रायः अनभिज्ञ ही रहता है।

एक भवन को पुरातत्त्ववेत्ता, इतिहासज्ञ, शिल्पी, सैलानी अलग-अलग दृष्टि से सोचते और उसके सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के अनुमान लगाते हैं। विक्रेता और खरीददार तक एक ही वस्तु की व्याख्या अपने स्वार्थ को प्रधानता देते हुए करते हैं। आँखों से दृश्य प्रायः एक ही जैसे लगते हैं पर उनकी व्याख्या विवेचना करने का समय आने पर कथनोपकथन में इतना अन्तर क्यों पड़ जाता है? इसे समझ पाना तो दूर उसे समझने की आवश्यकता तक नहीं समझी जाती।

इसका कारण है हमारी परं के प्रति अभिरुचि जो उनसे मिल सकने वाले लाभों की कल्पना पर निर्भर रहती है। इस कल्पना में लाभ ही नहीं हानि के आधार भी जुड़े रहते हैं। हिरन को उछलते, खरगोश को फुदकते और मोर को नाचते समय जो प्रसन्नता होती है, वह बाघ की दहाड़ सुनकर या दूर से ही उसकी शक्ल देखकर सर्वथा विपरीत हो जाती है। प्रिय जन्तुओं को अधिक निकट से और अधिक देर तक अवलोकन करने की इच्छा होती है पर बाघ, भेड़िये के निकट होने का परिचय मिलते ही होश उड़ जाते हैं और आत्मरक्षा के प्रयत्न करने की बात सोचते हैं। पशुओं की अंग रचना में सामान्य भेद होता है। देखने मात्र से वे हमारा कुछ बनाते बिगाड़ते भी नहीं किन्तु उनकी उपस्थिति से जो प्रतिक्रिया होती है उसके बीच भारी अन्तर रहता है। इस अन्तर करने वाले का निज का स्वरूप एवं गठन क्या है उसके बारे में उस भिन्नता का कारण नहीं जानते। जिसने सिंह की आकृति और प्रकृति के सम्बन्ध में पहले कुछ जाना सुना नहीं है उसे सम्भवतः डर भी न लगे और आत्मरक्षा का उपाय भी न सोचना पड़े।

इन उदाहरणों से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वस्तु का स्वरूप ही सब कुछ नहीं है। उसके सम्बन्ध में अधिक जानकारी का उपयोगिता अनुपयोगिता का परिचय होना भी आवश्यक है। आँखें न हों तो दृश्य कैसे दिखें? कान बहरे हों तो परामर्श या निन्दा स्तुति का बोध कैसे हो? जिव्हा सत्ता शून्य हो तो स्वादों का रसास्वादन कैसे बन पड़े? यही है हमारी जानकारी की अपूर्णता जो बाहर की जानकारी देती है, पर अपने चिन्तन तन्त्र के परोक्ष होने के कारण उसका आधारभूत कारण समझाने से वंचित ही रखती है।

शरीर को हम देख सकते हैं। उसे छूकर बनावट से भी अवगत हो सकते हैं। किन्तु जब किन्हीं अवयवों के भीतर दर्द होने लगता है तो यह नहीं समझ पाते कि कहाँ क्या गड़बड़ी हुई है? इसके लिए डाक्टर के पास जाना और परामर्श करना पड़ता है। अपने मित्र सम्बन्धियों से परिचित होते हुए भी यह नहीं समझ पाते कि इनके प्रति किन दायित्वों और वर्जनाओं का पालन करना चाहिए। लोकाचार वश प्रचलन की जानकारी भी हो तो भी यह आस्था नहीं उभरती कि जो करना चाहिए वही सोचते या करते हैं या नहीं। कई बार कथनी और करनी के बीच आकाश, पाताल जैसा अन्तर होता है। ठग और अनाचारी अपना बाहरी परिचय जैसा देते हैं, वैसा व्यवहार नहीं करते। जो योजना होती है, उसे प्रकट नहीं करते हैं और मित्रता की बात कहते हुए भी शत्रुता जैसा आचरण करते हैं।

यह विसंगतियाँ क्यों होती हैं? इसका कारण एक ही है कि हम दुनिया का स्वरूप भर देख और समझ पाते हैं पर मूल्याँकन करने का जो सही तन्त्र है उसकी भिन्नता एवं रीति-नीति का विश्लेषण विवेचन नहीं जानते। हम दृश्य को देखते हैं और अपनी जानकारी के आधार पर उसकी प्रतिक्रिया का अनुमान लगाते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि दृष्टा का दृश्य के बीच अन्तर करने वाली और अनुभूतियों की भिन्नता का अनुभव कराने वाली प्रणाली में क्या अन्तर है? यहाँ कारण यह है कि दृश्यों को देखकर जो प्रतिक्रियाएँ होती हैं वह अपनी निज की नहीं कही-सुनी और समझी होती हैं। उनकी वास्तविकता के बीच भारी अन्तर होता है। यह कारण है कि दुहरे व्यक्तित्व के कारण अक्सर हम भटकते और वह निर्णय करते हैं जो नहीं करने चाहिए।


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