अपनों से अपनी बात

August 1986

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सतयुग की वापसी की दिशा में बढ़ते चरण

इस वर्ष का प्रज्ञा महा अभियान अपनी गति इस तेजी से पकड़ रहा है जिसे अनुपम एवं आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है। साधारणतया मनुष्य पेट प्रजनन की परिधि में ही अपनी समग्र क्षमता नियोजित किये रहता है। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति से बढ़कर और कुछ उसे दिखता ही नहीं। स्वार्थ पूर्ति में वह इतना निमग्न रहता है कि परमार्थ के लिए कुछ करना है, यह सोचना तक भारी पड़ता है। आम आदमी का विश्लेषण यही है। वह लोक परलोक की चर्चा में तो कौतूहल की तरह रस लेता है पर यह भूल ही जाता है कि जीवन के ये शाश्वत सत्य हैं। इन गुत्थियों को सुलझाए बिना व्यक्ति इतने प्रकार की उलझनों में उलझा रह जाता है कि पग-पग पर कसक सहनी पड़ती है। न आगे बढ़ते बन पड़ता है, न पीछे हटना।

इन विकट परिस्थितियों में इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए कि नव-निर्माण के लिए सृजन शिल्पियों की आशातीत संख्या कार्य क्षेत्र में उतर रही है। जितनी आशा थी उससे कहीं अधिक पराक्रम दृष्टिगोचर हो रहा है।

इतिहास की घटनाओं में बुद्ध के भिक्षु, ईसा के पादरी, गान्धी के सत्याग्रही, राम के रीछ बानर, गोवर्धन उठाने वाले ग्वाल बालों की ऐसी संख्या हो गई थी जिसमें प्राणों को हथेली पर रखकर समय की समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की गयी थी। ऊपरी मन से नहीं, सच्चे मन से। इतने सच्चे मन से कि अपने को उन्होंने उद्देश्य के साथ तन्मय करके खपा ही दिया था।

मध्यकाल में सामूहिक स्तर पर विशाल कार्य तो परिस्थिति वश नहीं हो सके थे। पर सन्तों ने अपनी-अपनी छोटी बड़ी मंडलियाँ बनाकर देश के कोने-कोने में जन जागृति का शंख फूँका था और युग धर्म की माँग पूरी करने के लिए इतना प्रयत्न किया था कि कायरों में भी शूरता फूटने-फटने लगी थी। संतों की मंडलियाँ अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करती थीं और जितनी परिधि में प्राण फूँकने का संकल्प लिया था उसे पूरा करके दिखाती थीं। उस पुरातन काल के इतिहास को हम इन दिनों भी यथावत चरितार्थ होता देखते हैं तो प्रतीत होता है कि सत्प्रयोजनों का युग अपनी पुनरावृत्ति का नया उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है।

औसत आदमी पशु होता है। उसे शरीर निर्वाह के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। पराक्रम की बात सूझती भी है तो पैशाचिकता ध्यान में आती है। वह शोषण, आक्रमण, हत्या, अपराध स्तर के जघन्य कृत्यों में अपने बड़प्पन की, गर्व की पूर्ति करता है। अधिकाँश मनुष्य, जीवधारी, पशु और पिशाच स्तर का ही जीवन-यापन करते हैं। उनकी उद्दंडता की दूसरे दुर्बल मनोवृत्ति के लोग भी नकल करते हैं, पर ऐसे लोग यदा-कदा ही दृष्टिगोचर होते हैं, जो लक्ष्य के प्रति जागरुक रहते हैं और उसकी पूर्ति के लिए बढ़ चढ़कर त्याग बलिदान भी करते हैं। इन आदर्शवादियों को ही देव मानव कहते हैं। वे अपने पूर्व जन्मों की सुसंस्कारिता इतनी मात्रा में धारण किये रहते हैं कि समय की कठिनाइयाँ उन्हें विचलित नहीं कर पातीं, न दूसरों की देखा देखी ऐसा कुछ करते हैं जिससे मानवी गरिमा को सकुचाना- हेय बनना पड़े।

देखा गया है कि धरती पर नर पशु ही विचरते हैं और मरघटों में प्रेत पिशाच जलते-जलाते हैं। किन्तु मानवी काया में जिनने अन्तरात्मा भी उसी स्तर की जीवन्त जागृत रखी है, उनकी गणना उंगलियों पर करनी पड़ती है, पर उसे अपनी धरती का, अपने युग का आश्चर्य ही कहना चाहिए कि देव मानवों की असाधारण सृष्टि हुई है। उसे देवलोक का पृथ्वी वालों के लिए भेजा गया अनुपम वरदान-अनुदान ही कहना चाहिए। जो चिन्तन की दृष्टि से, उत्कृष्ट चरित्र की दृष्टि से, आदर्श और व्यवहार की दृष्टि से अनुकरणीय-अभिनन्दनीय कहे जा सकें, उन्हें महामानव ही कहा जा सकता है। जिस युग में देव मानवों का बाहुल्य होता है उसे सराहा जाता और सतयुग कहा जाता है। प्रज्ञा अभियान की बढ़ती, उफनती, उछलती गतिविधियों को देखकर यदि उसका मूल्याँकन सतयुग की वापसी के रूप में किया जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। हम प्रमाणों सहित इस तथ्य और सत्य का दर्शन इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष कर रहें हैं। इसे देव दर्शन या दिव्य दर्शन का सुयोग ही माना जा सकता है।

एक-एक लाख चरणों के पाँच संकल्प किये गये थे। सोचा गया था कि इस घोर स्वार्थपरता के युग में इतना भी बन पड़ेगा या नहीं। अब देखते हैं कि संभावित आशा से वे कहीं अधिक आगे बढ़ रही हैं और प्रार्थना के बदले में फूलों की मुट्ठियां ही नहीं, मणि-माणिकों की टोकरियाँ दिव्य लोक से बरस रहीं हैं। मनोरथ जो छोटा था वह मत्स्यावतार की तरह बढ़ता और सुविस्तृत होता चला जा रहा है। घटनाक्रम इसका साक्षी है कि कठिन दिखने वाला कार्य सरल हो सकता है? असंभव की परिणति संभव में कैसे हो रही है?

नालन्दा विश्व विद्यालय को खण्डहर बने शताब्दियाँ बीत गयीं। लोग उन खण्डहरों को देखने तो पहुँचते थे पर कोई यह आशा नहीं करता था कि इसका पुनर्जीवन भी संभव है। एक लाख छात्रों को जुटाना और शिक्षण का, निर्माण का, निर्वाह का त्रिविधि उपक्रम किसी एक तंत्र का बन सकेगा, इसकी कल्पना तक वर्तमान परिस्थितियों में नहीं की जा सकती थी। कालेजों, विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने वाले छात्रों को बोर्डिंग फीस, शिक्षण फीस आदि के नाम पर कितना देना पड़ता है इसे वे भुक्तभोगी जानते हैं, जिन्होंने एक दो छात्रों को उच्च शिक्षा दिलाकर अपना घर खाली कर लिया है। किन्तु इस असंभव को संभव हुआ ही समझा जाना चाहिए कि प्रज्ञा प्रशिक्षण की लहर तूफानी गति से बढ़ी। शांतिकुंज में जितना स्थान है वह तो ठसाठस भरा ही रहता है। इसके अतिरिक्त इन शिक्षार्थियों ने अपने-अपने यहाँ स्थानीय छोटे विद्यालय भी आरंभ कर दिये हैं। केन्द्र की और शाखाओं की सम्मिलित शिक्षण प्रक्रिया संख्या की दृष्टि से इतनी उत्साहवर्धक है जिसकी संकल्प करते समय आशा भी नहीं की गई थी। शिक्षार्थियों या छात्र युग शिल्पियों की संख्या इन दिनों एक हजार मासिक से कम नहीं, अधिक ही चल पड़ी है। आशा की गई है कि यह क्रम घटने वाला नहीं है, बढ़ता ही रहेगा।

एक लाख अग्रगामी युगशिल्पी कार्यक्षेत्र में उतरने की बात सोची गई थी। केन्द्र और शाखाओं की सम्मिलित संख्या उस लक्ष्य को पूरा करके रहेगी, यह निश्चित है। युग संधि के अभी 14 वर्ष शेष हैं। उतने दिन तक इसकी पूर्ति के लिए प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी। अवधि से पूर्व ही प्रगति के चरण कहीं अधिक आगे बढ़ चलेंगे।

संगठन का एक नया स्वरूप विनिर्मित हुआ है। एक मंडल के जिम्मे दस गाँव अथवा दस मुहल्ले सौंपे गये हैं। यह तीन मील के चतुर्दिक् घेरे में तो हो ही सकते हैं। कहीं-कहीं तीन मील से ज्यादा-कम भी यह क्षेत्र आबंटित हो सकते हैं। इस संदर्भ में नया नारा है- “दस गाँव का एक जिम्मेदार, दस विषयों का एक राजकुमार, दस कार्यक्रमों का एक सूत्रधार”। इसका तात्पर्य यह है कि दस-दस गाँव पीछे एक प्रशिक्षित व्यक्ति कायम हो। यदि यह प्रक्रिया आगे बढ़ सके तो दसों गाँवों में एक-एक स्वतंत्र मंडल हो। फिर हर बड़े आयोजन में हर व्यापक विधि व्यवस्था में दसों गाँव में मिलजुल कर कार्य करें। वैसे प्रशिक्षित मंडली हर गाँव में रहे, जो अपने विविध कार्यक्रमों का संचालन भली प्रकार करती रहे। एक व्यक्ति से तात्पर्य यहाँ एक मंडल से है। एक गाँव के पीछे एक मंडल हो, यही तात्पर्य समझना चाहिए। मंडल को ही वैयक्तिक इकाई मानकर चला जायगा।

वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों की संख्या एक लाख मानी गई है। इन सबको अभिनव सूत्र संचालन की शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक-एक महीने के लिए शांतिकुंज अभिनव प्रज्ञा प्रशिक्षण में बुलाया गया है। इनकी परीक्षाएँ भी होंगी और उत्तीर्ण होने के प्रमाण-पत्र भी मिलेंगे। यहाँ से जाते ही उन्हें यह काम करना होगा कि अपने यहां के सहयोगियों को लेकर एक छोटा स्थानीय विद्यालय चलायें और यथा संभव वह सब कुछ पढ़ायें, जो उनमें एक महीने शान्तिकुँज रहकर सीखा है। पूरा समय लगाकर जो एक महीने में सीखा गया है वह कम समय नित्य लगाने पर संभवतः उसका जल्दी न सीखा जा सके। ऐसी दशा में स्थानीय विद्यालयों के लिए यह भी हो सकता है कि वे नित्य दो-दो, तीन-तीन घण्टे पढ़ें और पूरी पढ़ाई एक महीने के स्थान पर दो या तीन महीने में पूरी कर लें। परीक्षाएँ इनकी भी होंगी और स्थानीय विद्यालय में पढ़ने वालों को भी शान्तिकुँज से प्रमाण-पत्र भेजे जायेंगे।

इस क्रम में आशा की गई है कि वर्तमान वरिष्ठ प्रज्ञापुत्र देश के एक-एक गाँव एक-एक नगले को अपना कार्यक्षेत्र बना लेंगे और नव निर्माण के लिए जो कार्यपद्धति विधि व्यवस्था निर्धारित की गई है, उसे पूरा करेंगे।

नैतिक क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति और सामाजिक क्रान्ति की परिधि में शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, शैक्षणिक, धार्मिक, राजनैतिक तभी दिशा-धाराएँ आ जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जन साधारण को जो सिखाया जाना चाहिए, स्वभाव में सम्मिलित किया जाना चाहिए, वह सभी कुछ इस प्रज्ञा प्रशिक्षण के अंतर्गत होगा, जिसे एक लाख अध्यापकों द्वारा हर गाँव, नगले, झोपड़ों तक पहुँचाया जाना है। यह विचार क्रान्ति अभियान है। इसमें लोक शिक्षण का कोई भी पक्ष अछूता नहीं छोड़ा गया है जो समग्र प्रगति के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें वरिष्ठ कनिष्ठ सभी स्तर के कार्यकर्ता अपने-अपने निवास स्थानों में रहते हुए करते रह सकते हैं। जैसे- 1. झोला पुस्तकालय 2. जन्म दिवसोत्सव 3. दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन 4. स्थानीय प्रज्ञा प्रशिक्षण विद्यालय का धीमी या तीव्र गति से संचालन। यह चारों कार्य अपने घरेलू काम काज करते हुए भी थोड़ा-थोड़ा समय निकालते हुए आसानी से किये जा सकते हैं। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि कोई प्रतिभाशाली कार्यकर्ता उस क्षेत्र में हो, साथ ही मिशन से सम्बद्ध भी रहा हो तो उसे एक महीने के लिए प्रज्ञा प्रशिक्षण के लिए हरिद्वार भेजा जाय। स्मरण रहे जिनकी ट्रेनिंग एक महीने के लिए हरिद्वार हो जाती है, वे अष्ट धातु के बन कर लौटते हैं और अपने क्षेत्र में प्रज्ञा आलोक की प्रगति ज्वाला जलाते हैं।

साइकिलों पर, समीपवर्ती क्षेत्रों की प्रचार यात्रा- अशोक वाटिकाओं की स्थापनाओं से लेकर घरेलू शाक वाटिका, मसाला-औषधि वाटिका तक का वृक्षारोपण यह कार्य ऐसे हैं, जिन्हें भी थोड़ा ध्यान देने से सहज ही किया जा सकता है। यह सब प्रवृत्तियाँ एक साथ चल पड़े तो समग्र परिवर्तन के लिए आवश्यक अन्य कार्य भी अनायास ही चल सकते हैं।

अपने देश में सामाजिक क्रान्ति की अत्यधिक आवश्यकता है। जाति पाँति के आधार पर, ऊँच-नीच, सम्प्रदायवाद, भाषावाद, खर्चीली शादियों, पर्दा प्रथा, भिक्षा व्यवसाय, बहु संतति, बाल-विवाह जैसे प्रचलनों के विरुद्ध तीव्रगति से आन्दोलन खड़ा किया जाना है। इसके लिए अनेकों कार्य ऐसे भी करने पड़ सकते हैं जिनमें बड़े स्तर पर आयोजन करने पड़ें और पैसे की जरूरत आ पड़े।

प्रज्ञा मिशन का आरंभ से ही यह नियम रहा है कि उसके मान्य सदस्य वे ही गिने जायेंगे जो नियमित रूप से समयदान और अंशदान देते हैं। चलती गाड़ी के इन्हें दो पहिए समझा जा सकता है, जिसके सहारे प्रगति रथ आगे बढ़ता है।

यह नितान्त आवश्यक है कि एक मण्डल के लोग अनिवार्य रूप से एक स्थान पर हर वर्ष मिल लिया करें। उसमें हरिद्वार की जीप टोली पहुँचा करेगी। इसमें पाँच गायक-वक्ता, लाउडस्पीकर, सुसज्जित यज्ञशाला, संगीत उपकरण, टेपरिकार्डर आदि सभी साधन रहते हैं ताकि आयोजन के लिए साधन सामग्री के निमित्त भागदौड़ न करनी पड़े। बिजली न होने की स्थित में साथ भेजी जा रही बैटरी यह प्रयोजन पूरा कर देती है। सभी मण्डलों में कुछ प्रचार उपकरण अनिवार्यतः होना चाहिए। ये हैं - 1. झोला पुस्तकालय के लिए साहित्य, 2. जन्मदिन मनाने के लिए सुसज्जित यज्ञशाला, 3. संगीत के वाद्य उपकरण, 4. स्लाइड प्रोजेक्टर, 5. टेप रिकार्डर-कम-एंप्लिफायर, 6. 12 वोल्ट की बैटरी एवं चार्जर। ये सभी साधन लगभग पाँच हजार रुपये में बन जाते हैं। इतनी सामग्री तो हर प्रज्ञा मण्डल को अनिवार्य रूप से जुटानी चाहिए। इस प्रयोजन हेतु पुरुषों द्वारा बीस पैसे रोज का ज्ञानघट और स्त्रियों द्वारा धर्मघट में एक मुट्ठी अनाज का अंशदान नियमित रूप से निकाला जाय और एकत्रित राशि का आय-व्यय सभी सदस्यों को हर महीने सुना दिया जाय।

समयदान निकलता रहा तो उपरोक्त सभी गतिविधियाँ निश्चित रूप से चलती रहेंगी। इसी प्रकार यदि अंशदान को न्यूनतम की सीमा तक अनुबन्धित न रखकर उदारतापूर्वक कुछ और बढ़ाया जाय तो उनके द्वारा जो काम बन पड़ेंगे, उन्हें इस स्तर का समझा जा सकता है मानो एक चलती-फिरती प्रज्ञापीठ का सार्थक संचालन हो रहा है।

जहाँ प्रज्ञा संस्थान बन चुके, वहाँ उपरोक्त कार्यों के लिए एक दो वैतनिक कार्यकर्ता रखकर इन गतिविधियों का उत्साह भरा सूत्र संचालन किया जा सकता है। जहाँ निजी इमारतें नहीं हैं वहाँ किसी का माँगा हुआ कमरा या पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार करके उसमें यह सभी प्रक्रियाएँ आसानी से चलाई जा सकती हैं। बालकों के लिए बालसंस्कारशालाएँ और महिलाओं के लिए परिवार निर्माण गोष्ठियों के अपने विशेष कार्यक्रम अलग से चल सकते हैं।

ये कार्यक्रम देखने में बहुत एवं बड़े मालूम पड़ते हैं पर जो लोग इन्हें करने के लिए जुट पड़ेंगे, उनके लिए ये नितान्त सरल है। मनुष्य जीवन का सारा समय रोजी-रोटी के लिए ही नहीं निकलना चाहिए, उसमें पुण्य परमार्थ के लिए - देशधर्म के लिए, आदर्शों एवं लोक सेवा के लिए भी कहीं कुछ जगह होनी चाहिए। प्रज्ञापरिजनों में से प्रत्येक से यह आशा की गयी है कि वे युगनेतृत्व की - समय परिवर्तन की इस बेला में महाकाल की चुनौती स्वीकार करेंगे। इस दिशा में जिनने भी कदम उठाए हैं वे गाँधी, बुद्ध, नेहरू, पटेल, बोस जैसे महामानव बन कर रहे हैं। संसार में अगणित व्यक्ति ऐसे हुए हैं जो पारिवारिक, आर्थिक एवं शिक्षा की दृष्टि से अति साधारण थे किन्तु उनने अपने को उदारमना, सेवाभावी बनाया और कहीं से कहीं जा पहुँचे। यदि वे लोभ-मोह के बंधनों में ही जकड़े रहते तो नरपशु से अधिक कुछ न बन पाते। मनुष्य वे हैं जो अपने जीवन की नाव स्वयं पार करें और साथ ही अन्य असंख्यों को पार लगायें। प्रज्ञा अभियान न ऐसा ही सुयोग प्रत्येक परिजनों को प्रदान किया है। इसे चूकना सामने आए सौभाग्य को ठुकराकर दूर फेंकने के समान है। यह समय वह है जिसमें हनुमान, अर्जुन की तरह कोई भी परिजन अपने को कृतकृत्य बन सकता है।

प्रसन्नता की बात है कि वरिष्ठ-कनिष्ठ सभी प्रज्ञापुत्र सामने प्रस्तुत युग चुनौती को स्वीकार कर रहे हैं। उनका यह सत्साहस कभी उनके लिए अतीव श्रेयस्कर सिद्ध होगा, इस तथ्य पर निश्चित रूप से विश्वास किया जा सकता है।

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