नई वस्तु ही प्रिय लगती है। पुरानी के प्रति अरुचि होने लगती है। इसका सीधा अर्थ है कि आज की नई वस्तु भी कल पुरानी और अरुचिकर लगने लगेगी।
विद्यादान, अक्षरज्ञान के साथ ही समाप्त नहीं होता वरन् सच माना जाय तो उसके उपरान्त आरंभ होता है। व्यक्तित्व को, परिवार को, समाज को ऊँचा उठाने वाली जानकारियां न तो इन शिक्षितों को है और न अशिक्षितों को। दोनों ही वर्ग गई गुजरी जिन्दगी जीते हैं। गरीबी में भी अमीरी से अधिक सम्मान, संतोष और उत्साह भरने वाला ज्ञान वह है जो युग मनीषियों ने समय की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उनके समाधान हेतु लिखा है। ऐसा साहित्य यों नहीं के बराबर है तो भी उसका सर्वथा अभाव नहीं है। उसका संग्रह करके प्रज्ञा पुस्तकालय चलाया जाना चाहिए और जिस प्रकार दुलार-पूर्वक, फुसलाकर साक्षरता संवर्धन के लिए अशिक्षितों के पढ़ने के लिए तैयार किया गया था, उसी प्रकार युग साहित्य पढ़ाने और वापस लेने का कार्य चल पुस्तकालयों द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। निरक्षरों के लिए विद्यालय का और साक्षरों के लिए चल पुस्तकालय का प्रबंध करना चाहिए। दोनों का सम्मिश्रण ही शिक्षा और विद्या की आवश्यकता पूरी करता है। प्रत्येक उदार चेता को इस प्रकार विद्या ऋण चुकाना ही चाहिए।
----***----