ईसा का गिरि प्रवचन

August 1986

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अपने प्रथम बारह शिष्यों को ईसा एक दिन पर्वत पर ले गये। वहाँ उन्होंने उन्हें जो उपदेश दिये, उनमें अपने ज्ञान और अनुभव का सारा सार निचोड़ दिया है। उतना भर यदि किसी की मान्यता में प्रवेश पा सके, तो समझना चाहिए कि धर्म और अध्यात्म का सार तत्व उसके हाथ लग गया।

ईसा ने कहा- “इस संसार में जो विनम्र, जिज्ञासु, दयालु, अपरिग्रही, पवित्र मन, शान्त, सन्तुलित और एकता बढ़ाने वाले हैं वे ही धन्य हैं। वे ही मोक्ष के अधिकारी हैं। वे ही प्रभु के पुत्र कहलाने लायक हैं। जिन्हें आदर्श पालन करते हुए कष्ट सहने पड़े उनका जीवन धन्य है, क्योंकि धर्मराज्य में प्रवेश उन्हीं को मिलेगा।

लोग जब तुम्हारी निन्दा करें, सच्चाई पर दृढ़ रहने के कारण झूठे अभियोग लगायें, तो तुम अपने को सौभाग्यशाली समझना। भूतकाल में जो सन्त हुए हैं, उन्होंने तिरस्कार और कष्ट सह कर ही साधुता प्राप्त की है।

तुम धन और यश के पीछे न भागना। उन्हें अपना बल न समझना, वे कुहासे की तरह हैं, जो सघन दीखता भर है पर उसमें तथ्य कुछ नहीं होता। उन्हें पाकर न तुम संतुष्ट रह सकोगे और न चैन से बैठ सकोगे। जीवन निर्वाह के लिए दरिद्रों की सेवा-सहायता करो और अपना पुरुषार्थ ईश्वर के कामों में लगाओ।

पवित्रता और सेवा यह दो कार्य ही ऐसे हैं, जिन्हें मजबूती से पकड़े रहने पर तुम महान बनोगे और धन्य कहलाओगे। तुम ऊँची पहाड़ी पर बसे नगर की तरह सब की आँखों में आगे रहो। छिपाने योग्य कुछ भी ऐसा न हो जो किसी कोने पर कालिख लगा सके।

पुरातन कथनों को पत्थर की लकीर जैसा न मानो, उनमें सत्य के साथ असत्य भी घुल मिल गया है। इसे छानो, फटको और विवेकपूर्वक देखो की अपनाने योग्य कितना है। जो उचित है उसी को अंगीकार करो। अन्धों की तरह किसी के पीछे न चलो, शास्त्रियों के पीछे भी नहीं।

क्रोध न करो। न ईर्ष्या न छल। दूसरे मूर्खता करते हैं तो तुम्हें उनका अनुकरण करने की क्या आवश्यकता? अपना मुँह उजला और हाथ स्वच्छ रखो। दूसरे किस तरह रहते हैं और क्या करते हैं, यह ढूंढ़ने के लिए दुर्जनों के समुदाय में मत जाओ।

लोग मित्र से प्रेम करते हैं और शत्रु से द्वेष। पर मैं तुमसे कहता हूँ कि वैर रखने और शत्रुता बरतने वाले के साथ भी तुम सज्जनता बरतना। अन्यायी अपनी मौत मरेगा पर सज्जनता सदा जीवित रहेगी। कृतघ्नो के प्रति भी करुणा बरतो क्योंकि ईश्वर भी वैसा ही करता है।

लोग व्यभिचार को बुरा कहते हैं। पर मैं तुमसे कहता हूँ कि न कुदृष्टि से देखना और न पाप का चिन्तन करना संयम ही तुम्हारा साथी और हितैषी है।

अपने को अधिक अच्छा बना लो ताकि सामान्यजनों पर छाप छोड़ सको। ऐसे वचन बोलो जो सब को शान्ति दें और ऊँचा उठायें। तुम्हारी वाणी ही है जो हृदय के स्तर का परिचय कराती और सज्जनता का प्रमाण देती है।

बढ़-बढ़ कर बातें मत करो। शेखी न बघारो। भीतर और बाहर से एक रहो। नम्रता और शिष्टता का समुचित निर्वाह करो। उस राह पर न चलो जिस पर उद्दंड चलते हैं। कपट का तानाबाना न बुनो। अपने को उसी रूप में प्रकट होने दो जैसे कि वस्तुतः तुम हो।

ईश्वर से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें आज की रोटी आज दे। पूरा परिश्रम करो और जमाखोरी की ओर मन न ललचाने दो। सम्पदा वे नहीं जमा कर सके, जिनके हृदय में करुणा है। तुम न धनी बनो, न धनियों को देखकर ललचाओ।

जो श्रद्धा का महत्व नहीं जानता वही वैभव की चिन्ता करता है। पुरुषार्थ पर विश्वास करो और ईश्वर पर श्रद्धा रखो। श्रद्धा ही मनुष्य को सींचती और आगे बढ़ाती है।


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