नव ग्रहों में पिछले दशकों में प्लूटो, नेपच्यून, यूरेनस नामक तीन ग्रहों को और सम्मिलित कर लिया गया है। 55 वर्ष पूर्व वे अविज्ञात थे। बढ़िया दूरबीनों से वे छोटे-छोटे गोलों की तरह दीखते हैं पर उनका इतिहास सौरमंडल संरचना के बाद का है। इन तीनों की रचना बाद में हुई जबकि सूर्य ने अपने ग्रह उपग्रहों को सुव्यवस्थित कर लिया था।
सौरमण्डल की पूर्व संरचना में एक सुविकसित ग्रह था- “फैथॉन”। उसकी सभ्यता अन्य सभी साथियों की तुलना में कहीं अधिक विकसित थी। उस पर आज के बुद्धिमान और विद्वान धरती निवासियों के स्तर के प्राणी रहते थे। उनने विज्ञान में विशेष रूप से प्रगति की थी। उसका मूल स्थान बृहस्पति और मंगल के बीच में था। आकार विस्तार भी कम न था। सूर्य के अनुदान उसे पृथ्वी जितने ही मिलते थे इसलिए न तो जल की कमी थी, न वायु की, न खाद्य पदार्थों की।
उस ग्रह के निवासी पृथ्वी निवासियों से किसी प्रकार पिछड़े हुए न थे। किन्तु आपाधापी, स्वार्थपरता, आक्रमण की ललक उन्हें भी कम नहीं सताती थी। बढ़े हुए यह दुर्गुण ही उनके विनाश का निमित्त कारण बने।
कहा जाता है कि उनने अणु आयुध विकसित कर लिये थे। पहले तो प्रतिपक्षियों को डराने धमकाने के लिए उस भण्डार का उपयोग करते रहे, पर एक दिन किसी उन्मादी ने उस उन्माद को कार्यान्वित करके दिखा दिया, अणु बम चलने लगे। विनाश दोनों पक्षों का ही नहीं हुआ, चेरनोबिल जैसे किसी बारूद के भण्डार में आग लग जाने से उस समूचे ग्रह की धज्जियाँ उड़ गईं। वह फिर छितरा गया। टुकड़े धज्जी-धज्जी हो गये।
विस्फोट का वेग बहुत भयंकर था। वह इतना शक्तिशाली द्रुतगामी था कि उसकी टकराहट ही नहीं, छोड़ी हुई विकिरण व्यवस्था से सौर मण्डल में भारी उत्पाद मचा और असाधारण अन्तर हुआ। पृथ्वी पर आदिम काल के जीवित विशाल काय जीव जन्तु फैले हुए विकिरण की लपेट में आ गये और महागज, महासरी सृप महागरुड़ जैसे प्राणियों की सुविस्तृत संख्या समूची धरती पर से देखते-देखते समाप्त हो गई। उनके कंकाल मात्र जहां-तहां उस विष वेल की साक्षी देने के लिए शेष रह गये हैं। इन कंकालों में विकिरण पाया गया है। इसलिये अनुमान लगाया जाता है कि वे अपनी मौत नहीं मरे। परिस्थितियों ने उनके प्राण हरण किये। उन दिनों छोटे मझोले प्राणी और भी रहे होंगे, पर बात पुरानी हो जाने से उनके अवशेष अभी तक खोजे नहीं जा चुके हैं।
कहा जाता है कि विस्फोट हर दिशा में छोड़ा गया और उसने शनि ग्रह के इर्द-गिर्द भ्रमण करने वाले उपग्रहों का चूरा कर दिया। यह चूरा ही शनि के इर्द-गिर्द इन दिनों धूलि कणों से बने छल्ले के रूप में परिभ्रमण कर रहा है। मंगल ग्रह पर पानी था और उसकी भूमि पर पृथ्वी से मिलते जुलते प्राणी रहते थे। पर फैथॉन से प्रचंड ऊर्जा जब उधर से निकली तो मंगल की सारी जल सम्पदा भाप बनकर उड़ गई। मौसम का तापमान अतिशय बढ़ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि यह ग्रह भी प्राणी रहित वीरान सुनसान मरघट जैसा हो गया। उस पर पुरानी सभ्यता के भग्नावशेष पाषाणकृत स्थिति में अभी भी पाये जाने की संभावना है। फोटो तो उनका अस्तित्व बताते हैं पर असली जानकारी तब मिलेगी जब चंद्रमा की तरह मंगल पर भी मनुष्य उतरेगा।
भौतिकविदों का मत है कि फैथॉन में इतनी गति और प्रचंडता थी कि वह सहज रुका नहीं। उसने अपनी चुम्बक शक्ति से अन्यान्य ग्रहों की सामान्य स्थिति में असाधारण परिवर्तन किया। पृथ्वी के मौसम, वर्षा और दिनमान पर असाधारण प्रभाव पड़ा और उसकी गतिशीलता में कमी आई। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों का जन्म उसी माहौल में हुआ।
फैथॉन को लम्बी यात्रा करनी पड़ी और जब वह थक कर निढाल हो गया तो तीन टुकड़ों में बनकर शून्य के बहुत दूरवर्ती क्षेत्र में अपने लिए स्थान बना सकने में समर्थ हुआ। अब वे पिण्ड जैसी स्थिति में हैं, उन्हें सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का अन्तिम छोर ही कहा जा सकता है।
यूरेनस की आकृति विचित्र है। उस पर एक मीनार जैसी सीधी खड़ी हुई है। यह कोई एंटीना, प्रसारण यंत्र अथवा सूचना ग्राहक केन्द्र हो सकता है। पर वह वस्तुतः है क्या, इसका सही पता अभी तक नहीं लगाया जा सका है क्योंकि उसकी दूरी इतनी अधिक है कि दृश्यों के दीखते हुए भी उनके संबंध में सही अनुमान लगाया जा सकना संभव नहीं।
नेपच्यून के बारे में कहा जाता है कि उसकी शीतलता शून्य से 300 डिग्री कम है फलतः वहाँ जो भी पदार्थ हैं वह अत्यधिक ठोस और कठोर स्थिति में हैं। हो सकता है कि वह समूचा ग्रह हीरे जैसे किसी पदार्थ का पर्वत बन गया हो।
अन्तिम भाग जो स्थिर हो सका, वह प्लूटो है। वह सूर्य और पृथ्वी के अन्तर की अपेक्षा 40 गुनी अधिक दूरी पर है। वहाँ तक सूर्य का प्रकाश पृथ्वी की तुलना में 1600 गुना कम है।
प्लूटो का एक वर्ष हमारी पृथ्वी के 220 वर्षों में होता है, उसका दिन रात भी पृथ्वी की अपेक्षा छह गुना दूर होता है। वहाँ से देखने पर सूरज एक जलती मोमबत्ती जैसा प्रतीत होगा। पृथ्वी, मंगल जैसे ग्रह जुगनूँ जैसे चमकते उड़ते दिखाई देते होंगे। प्लूटो का तापमान शून्य से 300 डिग्री कम है। उस पर कोई जीवित प्राणी अपना निर्वाह नहीं कर सकता। ऐसी है उसकी दयनीय स्थिति।
यह कुछ मोटे तथ्य हैं जो यह बताते हैं कि शृंखला की एक इकाई मार्ग भ्रष्ट हो जाने पर कितने विग्रह खड़े कर सकती है। फैथॉन के विग्रहों के बारे में शोध जारी है। उसके मूल स्थान मंगल और बृहस्पति के बीच में उल्काओं की एक माला अभी भी परिभ्रमण कर रही है, उसी से उछल कर कभी-कभी कोई खण्ड पृथ्वी से आ टकराता है जो साइबेरिया की दुर्घटना का स्मरण दिला जाता है और बता जाता है कि फैथॉन का कचरा भी इतना भयानक है कि उसका एक अंश भी पृथ्वी की वर्तमान छवि और स्थिति को बिगाड़ सकता है।
सबसे बड़ी बात समझने योग्य यह है कि शक्ति को उपलब्ध या एकत्रित कर लेना एक बात है और उसे संभाल कर रखना, मात्र उच्च प्रयोजनों के लिए ही प्रयुक्त करना दूसरी। यदि शक्ति और मूर्खता दोनों ही एक साथ मिल जाते हैं तो वे अपने लिए ही नहीं अन्यान्यों के लिए भी संकट उत्पन्न करती हैं। इन दिनों अणु बमों का, रिएक्टरों का उन्माद छोटे बड़े अनेक देशों पर चढ़ रहा है। यह निर्माण की अवधि है, जब उसके प्रयोग का समय आये तो उसकी भयंकरता की कल्पना करते ही दिल दहलता है। लगता है कि लाखों वर्ष पूर्व फैथॉन के शक्तिमानों ने जिस मूर्खता को अपनाया था, उसकी पुनरावृत्ति करने ही तो हम नहीं जा रहे हैं?