वर्षा ऋतु निकट थी। पानी बरसने पर आश्रम में ईंधन की कमी न पड़े, इस दृष्टि से मातंग ऋषि ने गुरुकुल के छात्रों की पढ़ाई बन्द कर दी और जंगल से लकड़ी काटने और संचय करने में लगा दिया।
छात्र अभ्यस्त तो न थे पर गुरु आदेश का पालन करते हुए उत्साहपूर्वक उस कार्य में लग गये। अधिक श्रम करते और अधिक कुशलता का परिचय देने की मानों उनमें होड़ ही लग गई हो।
कई दिन के श्रम में अभीष्ट मात्रा में ईंधन एकत्रित हो गया। आश्रम की समीपवर्ती सभी झाड़ियाँ समाप्त हो गईं, दूर-दूर तक न कोई फूल था न पत्ता। फिर भी सुगन्ध ऐसी महक रही थी मानो आश्रम पुष्पोद्यान के बीच खड़ा हो।
छात्रों ने पूछा- देव, इतनी तीखी सुगन्ध कहाँ से आ रही है। मातंग ने छात्रों से कहा- यह गन्ध भूमि से उठ रही है। जाकर देखो किस स्थान से यह महक आती है।
छात्र भूमि सूँघते फिरे। जहाँ-जहाँ से वह उठ रही थी, उन सभी स्थानों पर उनने चिन्ह लगा दिये। बढ़ी हुई जिज्ञासा ने पूछा, पुष्पों से गन्ध उठते तो हमने देखी है पर भूमि से गन्ध उभरने का क्या कारण है?
मातंग ऋषि ने कहा- वत्स, तुम्हारे श्रम सीकर जहाँ गिरे हैं वही भूमि महकने लगी। मनोयोगपूर्वक किये गये श्रम का यह चमत्कार तुम कभी भी कहीं भी देख सकते हो।