रेलवे आदि सरकारी महकमों के कर्मचारियों की अलग-अलग पोशाकें होती हैं। मिलिट्री बालों की ड्रेस अलग होती है। पोस्टमैन, सफाई, नर्सें आदि को अपनी-अपनी निर्धारित पोशाकें पहननी पड़ती हैं। धर्म सम्प्रदाय वाले भी ऐसे ही पहचान चिन्ह रखते हैं सिक्खों की पगड़ी और दाढ़ी उनकी अलग-अलग पहचान कराती है। अरबों और चीनियों की पोशाक में अन्तर होता है। स्कूलों के बच्चे तक अपनी-अपनी निर्धारित पोशाक पहनकर पढ़ने जाते हैं ताकि उनके स्कूल संबंधी जानकारी सहज ही उपलब्ध हो सके।
हिंदू धर्मानुयायियों की दो विशिष्ट पहचान हैं एक शिखा दूसरा सूत्र। सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत। पुलिस के सिपाहियों की पेटी और टोपी उनकी हैमिया प्रकट करती हैं उसी प्रकार शिखा, सूत्र, के दो प्रतीकों को देखकर पहचाना जा सकता है कि वे हिन्दू धर्मानुयायी हैं क्या?
मध्यकाल में एक ऐसा अन्धकार युग भी आया था जिसमें सती प्रथा, बाल-विवाह आदि मजबूरियाँ पनपीं। उन्हीं दिनों जाति-पाति के आधार पर ऊँच-नीच की प्रथा पनपी और इसके लिए प्रतीकों के धारण पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये। शूद्र वर्ण वाले जनेऊ न पहने ब्राह्मण ही पहने। अधिक से अधिक कोई क्षत्रिय वैश्य भी उसे मनमर्जी हो तो पहन लें। स्त्रियों पर भी शूद्रों की तरह यज्ञादि कार्यों में भाग न लेने गायत्री जप करने आदि का प्रतिबंध लग गया। स्त्रियों के चेहरे पर तो पर्दे का नकाब तक लगा दिया गया। देवताओं के आगे पशुबलि, बहु विवाह जैसी कुप्रथाएँ उसी काल के ध्वंसावशेष हैं जो कहीं-कहीं पिछड़े क्षेत्रों में अभी भी देखा जा सकता है। अच्छा ही हुआ कि प्रगतिशीलता और मानवी अधिकारों के उठते माहौल से अवाँछनीयताओं में से बहुतों को तोड़−मरोड़ कर फेंक दिया। अब दास दासी भी नहीं बिकते।
शिखा, सूत्र न केवल हिन्दू धर्म का प्रतीक चिन्ह है वरन् वह उद्देश्यों और आदर्शों का भी प्रतिनिधित्व करता है। हिन्दू मान्यता है कि जन्म से सभी पशु स्तर के होते हैं और उनमें भी स्वार्थ की, ईर्ष्या की, युद्ध की अनेकों पिछड़ी आदतें पाई जाती हैं। बड़े होने पर उन्हें मानवी सभ्यता से परिचित और अभ्यस्त कराया जाता है। नवजात शिशु नंग धड़ंग पैदा होता है पर वह स्थिति आगे नहीं रहने दी जाती। उसे कपड़ा पहनना सिखाया जाता है। सर्दी-गर्मी से बचने के लिए ही नहीं मानवी सभ्यता के प्रतीक रूप में भी। जो नहीं पहनते उन्हें आदिम कालीन या आदिवासी कहा जाता है। अफ्रीका में अभी भी बहुत से ऐसे इलाके हैं जहां नर ही नहीं नारियाँ भी किसी तरह की पोशाक नहीं पहनतीं।
शिखा और सूत्र को द्विजत्व अपनाने, मानवी सभ्यता को स्वीकार करने के रूप में धारण कराया जाता है। मुण्डन संस्कार सभी जातियों में प्रचलित है। इसे वस्तुतः शिखा की स्थापना का हर्षोत्सव कहा जाता है। यह मस्तिष्क के ऊपर शालीनता का ध्वज लहराने के समान है। राष्ट्रीय ध्वज, देश भक्ति का प्रतीक है। प्रायः सभी राजधानियों में उसके मुख्य भवन पर राष्ट्रीय झण्डा फहराता है। ठीक उसी प्रकार मस्तिष्क रूपी किले के ऊपर मानवी गरिमा को स्वीकारने और कार्यान्वित करने का उद्देश्य सदा ध्यान रखने के निमित्त शिक्षा सिखाने का नियम है। वैज्ञानिक दृष्टि से ब्रह्मरंध्र उच्च लोगों में सत्प्रवृत्तियों को आकर्षित करने और ग्रहण करने का ध्रुव केन्द्र माना गया है और कहा गया है कि शिर के बाल कटवाना, विशेषतया ब्रह्मरंध्र के ऊपर शिखा रूप आच्छादन बनाये रहना तो सद्बुद्धि सम्पादन के एक परोक्ष उपचार हैं। नारियाँ लम्बे बाल रखती हैं। पुरुष छोटे। पर ब्रह्मरंध्र की विशेषता को ध्यान में रखते हुए चोटी की तो अनिवार्यता समझी गई है।
मन्दिरों के शिखर पर ध्वजा फहराई जाती है। पर्वतों और टीलों के ऊपर देवियों के मन्दिर बनते हैं। मस्तिष्क रूपी शिखर देवालय पर शिखा को धर्म ध्वजा के रूप में फहराने का प्रचलन है।
देवालय आमतौर से छोटे-बड़े मन्दिरों के रूप में बनते हैं पर असमर्थ लोगों के लिए सस्ता तरीका यह निकाल दिया गया है कि एक छोटी चबूतरी बनाकर उस पर नदी का कोई गोल पत्थर जमा दिया जाता है। वह खुले में रहता है और एक लौटा जल चढ़ा देने भर से उसकी पूजा हो जाती है। शिर को एक चबूतरा और शिखा को देव प्रतिमा मानकर मस्तिष्क को एक देवालय माना गया है। ऐसा देवालय जिसमें कुविचारों के प्रवेश को निषिद्ध ठहराया जाय।
यज्ञोपवीत गायत्री मन्त्र का सूत्र सिद्धान्त है। यों देखने में वह एक धागा है पर उसके नौ धागे नौ सद्गुणों के प्रतीक हैं। इन गुणों को धारण किये रहने में ही मनुष्यता की गरिमा अक्षुण रखी जा सकती है। इस तथ्य का स्मरण दिलाने के लिए यज्ञोपवीत पहना जाता है।
सभी धर्म सम्प्रदायों का एक विशिष्ट मन्त्र होता है। हिन्दु धर्म के तत्वावधान एवं आदर्शों के प्रचलन का रहस्य गायत्री मन्त्र में समाहित है। उसे गुरु मन्त्र कहा जाता है। प्राचीन काल में पाठशाला प्रवेश करने वाले हर विद्यार्थी को अध्यापक लोग छात्रों को इसी मन्त्र की दीक्षा देते थे और समझाते थे कि अध्ययन के आधार पर जिस ज्ञान की उपलब्धि हो उसे उत्कृष्टता, आदर्शवादिता और लोकसेवा के त्रिविधि प्रयोजनों में लगाया जाना चाहिए। यही गायत्री मन्त्र के तीन चरणों की शिक्षा है। और यही यज्ञोपवीत की गायत्री के प्रतीक रूप में धारण करने का उद्देश्य। नौ धागे-नौ शब्द-तीन जीवन की दिशा धाराएँ उदात्त जीवन का अवलम्बन। इसी को तीन व्याहृतियाँ या जनेऊ की तीन गाँठें कहा जाता है। इसे उपनयन, यज्ञोपवीत ब्रह्म सूत्र आदि नामों से सम्मान पूर्वक पुकारा जाता है। यह सम्मान प्रकारान्तर में गायत्री मन्त्र का है।
उसे इस प्रकार पहना जाता है कि कन्धे पर, हृदय पर, कलेजे पर, पीठ पर, वह भली प्रकार लिपटा रहे। यही चार अवयव शरीर में सर्वोपरि महत्व के माने जाते हैं इसलिए इन सबको जनेऊ से कह दिया जाता है कि इन अवयवों में जो समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की सत्प्रवृत्तियाँ हैं वे सभी विलग न होने पायें।
शास्त्रकारों ने इनका महत्व और रहस्य बताते हुए बहुत कुछ कहा है। इसमें से कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं-
यज्ञोपवीत में तीन तार हैं गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण और ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। तीनों का तात्पर्य है, इनमें क्या सन्देश निहित है, यह बात समझनी हो तो गायत्री के इन तीन चरणों को भली प्रकार जान लेना चाहिए।
ऋग्वेद में कहा गया है-
त्रिरस्यता परमा संति सत्या स्पार्हा, देवस्य जनिमान्यग्नेः। अनन्ते अन्तः परिवीत आगाच्छुरियः। शुक्तो अरयौरोरुचातः॥ (4।7।11)
इस उपवीत के तीनों सार महान हैं। उससे सत्य, तेजस्वी और पवित्र व्यवहार को ग्रहण करो। इसके मध्य में (ब्रह्मग्रंथि में) अनन्त परमात्मा की तेजस्विता शुचिता श्रेष्ठता सन्निहित है। यह यज्ञोपवीत धारण कर्ता को प्राप्त होती है।
देवतास्तत्र वक्ष्यामि आनुपूवण याः स्मृताः। ओंकारः प्रथमे तन्तौ द्वितीयेऽग्निस्तथैव च।
तृतीय नागादैवत्यं चतुर्थे सोमदेवता। पन्मे पितृदैवत्यं षष्ठे चैव प्रजापतिः।
सप्तमे मारुतश्चैव अष्टमे सूर्य एव च। सर्वे देवास्तु नवम इत्येतास्तन्तु देवता। -सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र (परिशिष्ट)
अर्थात्- यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में 9 देवता वास करते हैं (1) ओंकार- ब्रह्म (2) अग्नि- तेज (3) अनन्त- धैर्य (4) चन्द्र- शीतल-प्रकाश (5) पितृगण- स्नेह (6) प्रजापति- प्रजापालन (7) वायु- स्वच्छता (8) सूर्य-प्रताप (9) सब देवता- समदर्शन।