कर्मफल का सुनियोजित व्यवस्था क्रम

October 1985

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गधे के पेट से गधा पैदा होता है और बन्दर के पेट से बन्दर। गेहूं बोया जायेगा तो गेहूं उगेगा और चना बोयें तो चने की फसल सामने आयेगी। आम की गुठली आम का ही पौधा पैदा करती है और बबूल का बीज काँटे वाला बबूल। हम जो बोते हैं वही काटते हैं।

कर्म बीज है और सुख-दुख उसके फल। बुरे कर्म दुख और दुष्परिणाम उत्पन्न करते हैं और सत्कर्मों के प्रतिफल सुख एवं अन्य सत्परिणामों के रूप में सामने आते हैं। समय में अन्तर हो सकता है पर परिणाम अन्यथा होने की कोई गुंजाइश नहीं है। सरसों का बीज दो दिन में अंकुरित होता है और ताड़ वृक्ष के बीज का अंकुर एक वर्ष में फूटता है। किस कर्म का फल मिलने में कितना समय लगेगा, यह निश्चित नहीं- पर इसे सन्देह रहित ही मानना चाहिए कि कर्मों का फल मिलकर रहता है।

कल का दूध आज का दही है। कल यह पतला और मीठा था, आज उसका स्वरूप गाढ़ा और खट्टा है। नाम भी बदल गया। कल उसे दूध के नाम से पुकारा जाता था, आज उसका परिवर्तित नाम दही है। कल के कर्म आज सुख या दुख के रूप में प्रस्तुत हैं। अथवा अगले दिन वे फलित होकर उपस्थित होंगे।

यह विश्व व्यवस्था कर्म और उसके फल के परस्पर अन्योन्याश्रित होने के कारण ही टिकी हुई है। यदि ऐसा न होता तो कोई दुष्कर्मों के तात्कालिक लाभ को छोड़ता नहीं और न सत्कर्मों में जो उचित लाभ मिलता है उतने से कोई सन्तुष्ट होता। दूरगामी परिणामों की सुनिश्चितता ही वह आधार है जिसने मनुष्य को मर्यादा में रहने और कर्तव्य को अपनाये रहने के लिए सहमत किया है।

यह हो सकता है कि कभी सत्कर्मों के परिणाम देर से मिलें और यह भी सम्भव है कि कुकर्मी सफलताएँ एवं समृद्धियाँ प्राप्त करते चले जायें। ऐसे प्रसंगों में कालचक्र का हेर फेर ही समझा जा सकता है। नशा पीते ही तुरन्त खुमारी नहीं आती। थोड़ी देर लगती है। पिया हुआ नशा अपना असर दिमाग तक पहुँचाये तब तक यही प्रतीत हुआ, नशे का कोई असर नहीं हुआ। पर जानकार जानते हैं कि थोड़ा समय लग जाने के कारण यह नहीं कहा जाता कि नशे का असर होता ही नहीं।

कर्मफल तुरन्त न मिलकर थोड़ी देर से मिलने की व्यवस्था इसलिए कि मनुष्य के निजी विवेक और चरित्र की परीक्षा हो सके और आत्म-संयम तथा दूरदर्शिता की कसौटी पर उसे परखा जा सके। स्वतन्त्र कर्तृत्व की सुविधा देकर भगवान ने मनुष्य को अपने उत्थान और पतन की छूट दी है। यह मनुष्य को गौरव दिया गया है, उत्तरदायित्व सौंपा गया है, और प्रामाणिक समझा गया है कि वह इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न करेगा। अन्यथा कर्मफल की तुरन्त व्यवस्था होती तो मनुष्य यन्त्रवत् रह जाता। उसकी स्वतन्त्र चेतना को न सम्मान मिलता न उत्कृष्टता सिद्ध करने का अवसर। उस यान्त्रिक व्यवस्था में श्रेष्ठता और निकृष्टता की परख और प्रतिस्पर्धा ही न रहती।

कर्मफलों से छूटने के लिए मनौती मनाना या पूजा पत्री के कर्मकांडों का सहारा लेना निरर्थक है। ऐसी सस्ती व्यवस्था यहाँ यदि होती तो लोग दोनों हाथों से पाप कमाते और चट-पट उसे माफ कराने की टण्ट-घण्ट करके निपट जाते। तब इस संसार में न न्याय रहता न व्यवस्था, हर कोई पाप तो करता पर उसके फल से बच निकलने की सस्ती तरकीबें अपना लेता।

हमें दुष्कर्मों से बचना चाहिए। सत्कर्मों में प्रवृत्त रहना चाहिए। जो कर चुके हैं उसे साहस और धैर्यपूर्वक स्वीकारना चाहिए। सम्भव हो तो स्वेच्छापूर्वक आत्म दण्ड भुगतने को उद्यत रहे- प्रायश्चित क्रम अपना कर अपने प्रखर आत्म-बल का परिचय देना चाहिए। परमात्म सत्ता का व्यवस्था तन्त्र यही अपेक्षा मनुष्य से रखता भी है।


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