सुख दुःख का कारण दृष्टिकोण (Kahani)

October 1985

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एक अनपढ़ व्यक्ति दार्शनिक अरस्तु के पास पहुँचा और ब्रह्मज्ञान की दीक्षा माँगने लगा।

सिर से पैर तक दृष्टि डालने के बाद उन्होंने सिखावन दी। नित्य कपड़े धोना और बाल संवारना आरम्भ करो। गलतियाँ सुधारते चलने का सिलसिला ही साधना कहलाता है और परमात्मा तक पहुँचाता है।

मेज पर सजे गुलदस्तों में से एक तो लगे थे असली गुलाब, और दूसरे में थे नकली कागज के फूल। असली फलों ने आते ही दुःख प्रकट किया, तो नकली फूलों ने पूछा- भाई तुम इतने सुन्दर भवन में आ गये हो फिर भी इतने दुःखी हो इसका क्या कारण है।

असली गुलाब ने कहा मैं इसलिये दुःखी हूँ कि मुझे इस सुन्दर भवन में थोड़े ही दिन रहने का सौभाग्य मिला है। कल नहीं तो परसों मुझे यहाँ से कचरा समझकर हटा दिया जायेगा। प्रसन्न होने का अधिकार तो आपको है। क्योंकि आपको शायद ही यहाँ से हटना पड़े।

नहीं भाई नहीं-कागज के फूल ने कहा- ‘‘मेरा सारा जीवन तो कृत्रिमता को खपाने में लगा है। धन्य हैं आप जो दो घण्टे में इतना दे जाते हैं जितना हम पूरे जीवन में नहीं देते।”

असली फूल का चेहरा खिल उठा। उसे अपनी भूल का ज्ञान हुआ कि मैं जिसे सुखी समझ रहा था। उसका स्वयं का अन्तःकरण इतना विदग्ध है। निश्चय ही सत्य है कि सुख दुःख का कारण दृष्टिकोण है, बाह्य परिस्थितियाँ नहीं।

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