मानवी सत्ता चिरपुरातन है।

October 1985

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डार्विन के विकासवाद में पृथ्वी का जन्म तथा उस पर छोटे जीवाणुओं के उपरान्त बड़े जीवधारियों की उत्पत्ति का वर्णन है। प्रायः इसी को सही माना जाता और उसी अनुमान को स्कूली पुस्तकों में प्रामाणिक बताया जाता है।

किन्तु नवीनतम खोजों से जो अकाट्य प्रमाण सामने आये हैं वे उन मान्यताओं को पूरी तरह उलट देते हैं। उनसे पता चलता है कि पृथ्वी अनुमान के विपरीत कहीं अधिक पुरानी है और जीवन की शुरुआत छोटे जीवाणुओं से नहीं वरन् सभ्य मानवों से होती है। उनके न केवल शरीर असाधारण रूप से बड़े-छोटे थे वरन् उन्हें विज्ञान की भी उच्चस्तरीय जानकारी थी। इसके ऐसे प्रमाण चिन्ह मिले हैं जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता।

इन्हीं शोध कथनों में भूतकालीन खण्ड प्रलयों और भावी अनिष्ट सम्भावनाओं का भी उल्लेख है।

मिस्र की नील घाटी की सभ्यता को 10 हजार वर्ष ई. पूर्व पुराना बताया जाता है वहाँ के सबसे पहले सम्राट ‘मीन्स ने अपने दक्षिणी मिस्र के राज्य में उत्तरी भाग को भी मिलाकर राज्य चलाया था। उसके काल की भोजपत्र पर अंकित नील-नदी की स्तुति आज भी लन्दन के अजायब घर में सुरक्षित है। चौबीस अक्षरों की वर्ण माला का आविष्कार वहाँ पहले-पहल हुआ था साथ ही लेखन सामग्री का उपयोग भी होने लगा था। मिस्र के पिरामिड जो आज भी रहस्य बने हुए हैं उसी काल के निर्मित बताये जाते हैं। इन पिरामिडों में गिजे का पिरामिड 230 मीटर की भुजा के वर्गाकार आधार पर विनिर्मित है, जिसकी ऊँचाई 147 मीटर है। कहा जाता है कि इस पिरामिड को 1 लाख कारीगरों ने 20 वर्षों में बनाया था। इस पिरामिड में नरसिंह (सिर तथा धड़) की मूर्ति पत्थर से बनी लगभग 49 मीटर लम्बी और 21 मीटर ऊँची है।

कोणार्क का विशाल मन्दिर 400 मीटर लम्बा था। उसके मुख्य कक्ष की लम्बाई 52 मीटर और चौड़ाई 103 मीटर थी। यह कक्ष 136 खम्भों पर पाटा गया था। इसके 12 बीच के खम्भे तो 24-24 मीटर ऊँचे थे जिनमें से प्रत्येक पर 100 व्यक्ति एक साथ खड़े हो सकते थे।

पश्चिम एशिया में दजला-फरात नदियों के किनारे के निप्पुर, बाबुल और उरनगर ई. पू. 5000 के आसपास बसाये गये थे। इनमें बाबुल का टावर विश्व विख्यात है।

वस्तुतः इन विलक्षण पिरामिडों की संरचना भारतीय कलाकारों ने ही की थी। जिसे कभी-कभी पिरामिड बैल्ट के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। यह बैल्ट मिश्र से मेसोपोटेमिया से लेकर यूरोप तक तथा अमेरिका से पूर्व (भारत) तक फैली हुई है। सुमेरिया (मिश्र) में बनी इस प्रकार की विलक्षण इमारतों में सूर्य पूजा का क्रम आज भी चलता है। लोगों में धार्मिक चेतना की जागृति को इसे केन्द्र कहा जा सकता है।

पश्चिम जर्मनी के एक भूगर्भ शास्त्री का कहना है कि पृथ्वी के बनने से पहले भी ब्राह्मण में प्राणियों का अस्तित्व था। पृथ्वी को बने 380 करोड़ से 460 करोड़ वर्ष हो गये हैं।

जर्मन शोध सेवा के अनुसार जीवेन विश्वविद्यालय के भूगर्भ शास्त्री प्रो हाँस डीटकफलग का कहना है कि उन्हें ऐसे अवयवों के अवशेष मिले हैं जो मूलतः टूटे हुये तारों के खनिज ढाँचे में बन्द थे। इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से देखने पर ये अवशेष वर्तमान जीवित अवयवों के समान ही पाये गये। हालाँकि इनका आकार वर्तमान अवयवों का दसवाँ हिस्सा है।

प्रो. फलग का कहना है कि हालाँकि ये सक्षम अवयव केवल एक कोशिका से बने हैं और उनमें कोई हड्डी नहीं है लेकिन ये चट्टानों में अरबों वर्ष तक जीवित रह सकते हैं। पश्चिम ग्रीनलैण्ड की इसुआ चट्टान में पाये गये सूक्ष्म अवशेषों से यह बात सिद्ध हुई है। यह चट्टान विश्व की सबसे पुरानी चट्टान मानी जाती है। प्रो. फलक का मत है कि उल्काओं का निर्माण भी उसी समय हुआ था तब सौरमण्डल का निर्माण शुरू हुआ था। लगभग सौ वर्ष पहले स्वीडन के नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक स्वांटे अरहेनियस ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। जिसका प्रो. फलग भी समर्थन करते हैं। इस सौ वर्ष पुराने सिद्धान्त के अनुसार जीवन सबसे पहले बाहर अन्तरिक्ष में शुरू हुआ। शक्तिशाली जीवाणु अन्तरिक्ष से पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों पर गये जहाँ उनके लिये जीवित रहने की परिस्थितियाँ थीं। इस सिद्धान्त का अभी तक पूरी तरह से खण्डन नहीं हुआ है और न ही यह पूरी तरह से सिद्ध हुआ है।

मानव उत्पत्ति के बारे में विभिन्न प्रकार की लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं। मानवी सभ्यता का विकास कब हुआ? इसके सम्बन्ध में भी विद्वानों के पृथक-पृथक अभिमत रहे हैं। कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी के उपकुलपति डा. जॉन लाइटफूट के अनुसार मानवी सभ्यता का विकास ईसा से 4004 वर्ष पूर्व 23 अक्टूबर के प्रातः से आरम्भ होता है। उन्होंने उत्पत्ति का मूल कारण त्रेयक परमेश्वर (ट्रिनिटी) को ही समझा है। डा. लाइटफूट का कहना है कि तथ्यान्वेषण का सर्वप्रथम अनुसंधान प्रयास फिलिप हैनरी गूज ने 1857 में किया। बाइबिल में वर्णित एडम और ईव की उत्पत्ति का भी यही समय है।

भारतीय धर्म ग्रंथों की मान्यताओं के अनुसार अब तक भगवान् विष्णु नौ बार सृष्टि का उद्धार कर चुके हैं अर्थात् महाप्रलय से मुक्ति दिलाई है। दसवीं बार महाप्रलय की प्रतीक्षा में वे इस समय बैठे हुए हैं। प्राचीन काल में मैक्सिको के एक महान मनीषी टौल्टेक, जिनके नाम से टौल्टेक कलैण्डर परम्परा चल पड़ी, ने अपनी गणनाओं के आधार पर बताया कि अब तक तीन बार इस पृथ्वी को महाप्रलयों का सामना करना पड़ा है। सर्वप्रथम घटित होने वाली को ‘वाटर सन’ यानी पृथ्वी बाढ़ों के प्रकोपों से घुल गयी। दूसरा युग ‘अर्थ सन’ का था। जिसमें सृष्टि के विनाश का मुख्य कारण भूकम्पों का रहा। तीसरी बार होने वाली महाप्रलय को ‘विंड सन’ के नाम से पुकारा जाने लगा। यह अन्तरिक्षीय वायु मण्डल में तीव्रता के कारण हुई। जिस युग में हम लोगे रह रहे हैं इसे ‘फाहर सन’ का चौथा युग कह सकते हैं। एटमिक (आणविक) जैसे युद्ध आयुधों की बढ़ती होड़ को देखकर यह अनुमान सहज की लगाया जा सकता है कि यह दुनिया शीघ्र ही जल भुनकर नष्ट हो जायगी। टौल्टेक ने इस महाप्रलय का मूल कारण सूर्य को ही माना है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अवलोकन किया जाय तो पता चलता है कि अपने इस युग का आरम्भ वर्ष 1453 अर्थात् कौनस्टैन्टीनोपल के पतन से होता है।

सुप्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ, इतिहासकार एवं मानचित्रकार प्रो. चार्ल्स हैपगुड ने ‘‘मैप्स आफ दि ऐन्सीएन्ट सी किग्स’’ में अतीत के रहस्यमयी प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए बताया है कि कोलम्बस ने अपने पूर्वजों द्वारा बनाये गये मानचित्रों के आधार पर ही अनेकानेक अज्ञात स्थानों की खोज करने में सफलता पायी है।

अंटार्टिका महाद्वीप के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। फ्राँस के एक शिक्षा शास्त्री फिलिप बुचे ने 1737 में अन्टार्टिका की स्थिति को अपने मानचित्र में भली-भाँति प्रदर्शित कर दिखाया। उन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुये वर्ष 1949 में स्वीडिश ब्रिटिश नार्वेजियन अभियान चल पड़ा और ठीक वैसी ही स्थिति वहाँ देखने को मिली।

अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिकी वर्ष 1958 बड़े धूमधाम के साथ मनाया और अंटार्टिका के बारे में बताया गया कि वहाँ पर बर्फ जैसी कोई चीज है नहीं। बुचे ने यही बात बहुत पहले प्रदर्शित कर रखी थी।

जर्मनी के इंजीनियर बिलहेम कौनिग ने वर्ष 1936 में बगदाद शहर के पुरातत्व संग्रहालय में रखे पाषाणों की जाँच पड़ताल करने के उपरान्त बताया कि आज से 1700 वर्ष सीवर प्रोजेक्स तथा इलैक्ट्रिक बैट्री का प्रयोग अवश्य रहा होगा। बैंजामिन फ्रैंकलिन ने इन्हीं प्रमाणों के आधार पर बिजली क प्रयोग की सार्थकता को सिद्ध कर दिखाया है।

भारतीय संस्कृति विश्वव्यापी है। ब्रिटेन के सुप्रसिद्ध लेखक एवं अन्वेषक कर्नल फासेट के मतानुसार अमेजन नदी में एक रहस्यमयी इमारतों के अवशेषों को देखकर इसका अनुमान सुगमतापूर्वक लगाया जा सकता है। इस विशालकाय भवन के पत्थर रात्रि के समय में प्रकाश किरणों की भाँति चमकते हैं। कर्नल फासेट ने सन् 1920 में अपने शोध कार्यों से यह सिद्ध कर दिखाया है कि इन अलौकिक दृश्यों में भारतीय धर्म और संस्कृति की झलक-झाँकी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

डा. मैरिया रीके ने वर्ष 500 ए. डी. की ‘7 वर्डस लार्जेस्ट ऐस्ट्रानामी बुक’ का बड़ी गहनता के साथ अध्ययन किया और तथ्यों को प्रकट करते हुये बताया है कि ग्रह-नक्षत्रों का विज्ञान महाभारत काल में भी था। जिन्हें रथ और विमानों के नाम से संबोधित किया जाता रहा है।

ऐतिहासिक घटनाओं में मात्र 10 प्रतिशत से भी कम के प्रमाण अवशेषों के रूप में देखने को मिलते हैं। बेबीलॉन की पुस्तकों में ऐसे शिलालेखों का प्रदर्शन है जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि लोगों ने बिना किसी टैलिस्कोप की सहायता के शुक्र ग्रह की स्थिति का अनुमान लगाया। ‘हार्न ऑफ वीनस’ (शुक्र के सींग) का उल्लेख भी वहाँ के ग्रंथों में देखने को मिलता है। इसी तरह की मान्यतायें उनकी तारागणों के बारे में रही है वे उन्हें देवी-देवता, जानवर तथा वीर योद्धाओं की उपमा देते चले आये हैं। महान वैज्ञानिक, समुद्री यात्री एवं अन्वेषक सर वाल्टर रैले ने वानस के सम्बन्ध में जिन तथ्यों का उल्लेख ‘विश्व का इतिहास’ (1616) नामक पुस्तक में किया है उसी के आधार पर गैलीलियो जैसे विश्व विख्यात वैज्ञानिक अपने अनुसंधान कार्य में सफल हुए।

ईसा से 585 वर्ष पूर्व 25 मई को एक ग्रीक वैज्ञानिक एवं खगोलज्ञ थेल्स को स्टीम पावर की खोज का श्रेय दिया जाता है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैरोडोटस के कथानुसार सूर्य और चन्द्र ग्रहणों की पूर्व घोषणा करने की क्षमता भी थेल्स में थी।

महाग्रन्थों के लेखक होमर और वर्जिल का कहना है कि मंगल ग्रह जब अपना स्वरूप लाल ग्रहण कर लेता है तो उसे युद्ध का देवता कहते हैं। यानी युद्धों के होने की संभावनायें अधिक बढ़ जाती हैं। यह ग्रह अपने दो विशेष दूत भेजता है- (1) फोबोस (2) डमोस। जिन्हें भय और दंगे उत्पन्न करने की पूरी छूट मिली होती है।

गिजाह के ग्रेट पिरामिडों का निर्माण लगभग आज से 5000 वर्ष पूर्व का है। जो मिस्र के 70 पिरामिडों में से सबसे बड़ा समझा जाता है। 45 मंजिल के इन पिरामिड में ढाई से बारह टन वजन के 25 लाख शिला खण्ड लगे हुए हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के शिला लेख देखने को मिले हैं जो हमारी संस्कृति की गरिमा को प्रदर्शित करते हैं।

पेरू में माकू पिक्कू नामक स्थान पर एक बिना छत का सूर्य मन्दिर है जो मौसम परिवर्तन के बारे में पूरी जानकारी प्रदान करता है। सूर्य किरणों की घट-बढ़ से यह सब कुछ ज्ञात होता है।

आर्कमिडीज तथा ग्रीक गणितज्ञों ने पाई की आधुनिक कीमत 3.1416 पिरामिडों पर अंकित शिला लेखों के आधार पर ही निकाली। कहने का तात्पर्य है कि मिश्र की गणितीय प्रणाली इतनी स्पष्ट थी जो आज के वैज्ञानिकों को बिना आश्चर्य में डाले नहीं रह सकती। एक वर्ष में 365.240 दिन होने की गणना पिरामिडों में अंकित है। इसे पिरामिडीकल इंच के नाम से भी जाना जाता है। पिरामिड की ऊँचाई का गुण यदि 1 करोड़ से कर दिया जाय तो सूर्य और पृथ्वी के मध्य की दूरी निकल आती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पिरामिड का वजन 6 लाख टन है यदि इतनी संख्या का गुणा 1 अरब से कर दिया जाय तो लगभग पृथ्वी का निकल आता है।

गिजाह के पिरामिडों के स्तम्भ-चिन्हों को देखने से पता चलता है कि मिश्रवासी सूर्य की पूजा-उपासना में अत्याधिक रुचि लेते रहे होंगे। वहाँ के फारूह सम्राट को मरणोपरान्त ‘सन वोट’ में देवताओं द्वारा स्वर्ग में ले जाने के संकेत स्पष्ट परिलक्षित होते हैं।

पेरू अथवा बोल्बीया के मंदिरों, किलों तथा राज-भवनों में पाये गये इंका के ध्वंसावशेषों से विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं की उपासना का विधि-विधान देखने को मिलता है। भूकम्पों की पूर्व सूचना भी इनके संकेतों के आधार पर होती है।

बोलीबिया के टिआहूना के नामक स्थान पर सूर्य मन्दिर आज भी वैज्ञानिकों के लिए अनुसन्धान का विषय बना है। मन्दिर के दरवाजे पर मानवाकार की चौबीस प्रतिमायें प्रज्वलित मसाल लेकर खड़ी हैं। इनमें से कुछ प्रतिमायें मनुष्य जैसी आकृति तथा कुछ पक्षियों के सदृश दृष्टिगोचर होती हैं। ‘स्वर्ग से देवागमन’ की पौराणिक गाथाओं के अनुसार ये प्रतिमायें दैवीय संदेशों को मानवी चेतना तक पहुँचाने का कार्य सम्पन्न करती हैं।

पिरामिडों में स्टोनहैंज के निर्माण की विलक्षणता को देखते हुये कहा जा सकता है कि उत्कृष्ट श्रेणी के लोगों का अस्तित्व ईसा से 2000 वर्ष पूर्व भी रहा होगा। पृथ्वी और सूर्य की स्थिति में परिवर्तन का अनुमान ‘हील स्टोन’ पर फैली हुयी सूर्य किरणों से लगाया जा सकता है। ‘हील स्टोन’ पर सूर्य किरणें 21 जून को बिलकुल सीधी पड़ती हैं। ऋतु परिवर्तन इसी के आधार पर स्पष्ट देखा जा सकता है। ग्लासस्टोनबरी में जौडी एकल कलैण्डर एक विशालकाय पत्थर के ऊपर अंकित है। जिससे ग्रह-नक्षत्रों एवं राशिचक्रों के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त होती है। ये सारी साक्षियाँ प्रामाणित करती हैं कि मानवी सत्ता सभ्यता का आदि स्त्रोत बहुत पुराना है। मानव श्रेष्ठ व सभ्य के रूप में ही धरती पर आया व विकसित हुआ है।


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