अपनों से अपनी बात- गुरुदेव का श्रावणी संदेश

October 1985

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गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण एकान्त साधना को प्रायः डेढ़ वर्ष हो चला। इस बीच उनकी ढलती आयु और प्रचण्ड तपश्चर्या को देखते हुए प्रत्यक्ष स्वास्थ्य बहुत अधिक नहीं लड़खड़ाया है। चेतना शरीर तो और भी अधिक बलिष्ठ समर्थ एवं तेजस्वी हो गया है। उनकी संरक्षक शक्ति का प्रताप देखते हुए हम सब को किसी चिन्ता की आवश्यकता नहीं। वे अनवरत क्रम से अपने मार्ग पर चल रहे हैं। निर्धारित लक्ष्य को पूरा करके रहेंगे, इतनी निश्चिन्तता हमें रहनी ही चाहिए।

श्रावणी पर्व पर उनने एक अँगड़ाई ली है। प्रज्ञामिशन की ओर ध्यान दिया है और भावनाशील परिजनों को भी उनने स्मरण किया है। सभी के कुशल समाचार पूछे और मनःस्थिति एवं परिस्थिति का लेखा-जोखा लिया है। साथ ही उनके उज्ज्वल भविष्य की संरचना का आश्वासन भी दिया है। इसके अतिरिक्त परिजनों के प्रति निजी अभिव्यक्ति का पौन घण्टे का वीडियो टैप भी कराया है। इसके उपरान्त वे अपनी प्रचण्ड साधना में फिर पहले की ही भाँति लग गये हैं। विश्व की विषम परिस्थिति का सन्तुलन बिठाने के लिए इससे कम ऊर्जा में काम चलने वाला भी नहीं है।

यह गुरुदेव की हीरक जयन्ती का वर्ष है। इसमें प्रायः छः महीने बीत चुके और लगभग इतने ही दिन शेष हैं। यह शानदार वर्ष सभी परिजनों के लिए हर दृष्टि से सौभाग्य सूचक और उत्साहवर्धक है। सभी के मन में इस अवसर पर कुछ करने की उमंग है। साधारणतया हर्षोत्सवों पर धूमधाम भरे सज्जा सम्मेलन और यज्ञादि कर्मकाण्ड होते रहते हैं। इस संदर्भ में गुरुदेव ने आरम्भ में ही अनिच्छा व्यक्त कर दी है और कहा कि इस महत्वपूर्ण बेला को इतने सस्ते में न निपटाया जाय। जिन्हें करना हो वे कुछ ऐसा ठोस काम करें जिसका प्रभाव जन-मानव के परिष्कृत करने के लक्ष्य की पूर्ति में महती भूमिका निभायें और उसका प्रत्यक्ष दर्शन प्रेरणाप्रद स्वरूप में चिरकाल तक होता रहे।

अधिक पूछने पर उनने कहा- हमारे जीवन के अनेकानेक कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण कार्य एक था- 24 प्रज्ञा पीठों का निर्माण। देवालयों की दृष्टि से वे भली प्रकार विनिर्मित हो गये। अनेकों का हमने स्वयं जाकर उद्घाटन भी किया। इमारतों की दृष्टि से मध्यवर्गी परिजनों का इतना साहस भी कम सराहनीय नहीं है।

जिस प्रयोजन के लिए आशाओं के साथ वह निर्माण हुआ, उसके पीछे एक दूरगामी चेतना उभारने वाला लक्ष्य भी था। आशा करली गई थी कि प्रत्येक प्रज्ञापीठ स्थानीय क्षेत्र में नव जीवन का संचार ही नहीं करेगा, वरन् समीपवर्ती गांवों को भी अपनी सेवा परिधि में लेकर एक मण्डल का केन्द्र बनायेगा। उनकी रचनात्मक प्रयत्नों से ट्यूबवैल जैसी हरितमा उगी दूर-दूर तक दिखाई देगी। वे विद्युत उत्पादक, जनरेटर बनकर अपने दायरे में आलोक वितरण करेंगे। प्राचीन काल में देव मन्दिर जनमानस में धर्मधारणा को गहराई तक प्रवेश कराते थे और लोकोपयोगी सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में वे प्राणपण से संलग्न रहते थे। उनके द्वारा उत्पन्न की गई लोक सेवकों की संगठना अनर्थ अनौचित्यों के पैर नहीं जमने देती थी। प्रज्ञापीठें ऐसी ही हलचलों की केन्द्र बनकर रहेंगी, ऐसी आशा अपेक्षा की गई थी।

पर लगता है वस्तुस्थिति को और भावी जिम्मेदारी को समझे बिना ही आतुरता में चन्दे के बल पर देवालय बन गये और कार्य समाप्त हुआ मान लिया गया। यही कारण है कि विनिर्मित प्रज्ञा पीठों में भाव भरा जीवन संचार नहीं हो रहा है। उत्पादित इन बालकों को पक्षाघात जैसा कुछ होता जा रहा है। वे चलते-फिरते हँसते-खेलते, बोलते-चलते नहीं दिखते परिस्थिति को देखते हुए गुरुदेव को व्यथा होती है और चोट लगती है। निर्जीवता के माहौल के बदले जाने और सजीवता उत्पन्न होने की आशा करते हैं।

हीरक जयन्ती वर्ष में समारोह के लिए गुरुदेव ने मना इसीलिए कर दिया है कि यदि प्रदर्शन और हुल्लड़ कोई ठोस काम होने की भूमिका नहीं बना सकते तो उनके निमित्त किया गया श्रम और खर्चा गया धन निरर्थक है।

इन निराशाजनक परिस्थितियों में भी एक आशा की नई किरण उनके मन में कौंध रही है। उसी का आभास उनने इस श्रावणी पर्व पर दिया है। वे चाहते हैं बन चुके प्रज्ञा पीठों को हिलाते-जुलाते रहा जाय ताकि उनकी मूर्च्छना हटे और प्राण चेतना के लक्षण प्रकटे।

साथ ही उनकी एक और इच्छा भी है कि 24 लाख के विशालकाय परिवार में से कम से कम दस हजार व्यक्ति ऐसे निकलें, जिन्हें ईंट चूने से नहीं हाड़मांस से बने, भावनाशील और क्रियाशील पीठ कहा जा सके जो सक्रिय भी हों और गतिशील भी।

गाँधी जी के सत्याग्रही, बुद्ध के परिव्राजक, विनोबा के सर्वोदयी, सुग्रीव के रीछ वानर और गोपाल के ग्वाल बाल कोई बहुत बड़ी प्रतिभा और परिस्थिति के नहीं थे, पर जब उन्होंने एक केन्द्र के तत्वावधान में रहकर परमार्थ प्रयोजन में अपने को समर्पित किया तो इन्हें इतना बड़ा श्रेय मिला जितना देवताओं को मिलता है।

प्रज्ञा परिवार के पंजीकृत सदस्य प्रायः 24 लाख हैं। इनमें से मात्र दस हजार निकल कर अगली पंक्ति में आयें जिन्हें सच्चे अर्थों में युग शिल्पी, प्रज्ञापुत्र एवं व्रतधारी कहा जा सके। उन्हें घर छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाने के लिए नहीं कहा जा रहा है। बल्कि वह आह्वान किया जा रहा है कि न्यूनतम दो चार घण्टे का समय एवं बीस पैसे नित्य युगान्तरीय चेतना को गतिशील बनाने में संकल्पपूर्वक लगाते रहें। इतने में ही वे उस पंक्ति में गिने जा सकने योग्य बन जायेंगे जैसों की कि गुरुदेव ने इस बार अपेक्षा की है।

समय किसी के पास भी चौबीस घण्टे से कम नहीं। इसका सही विभाजन करके सही काम में लाते हुए सामान्य व्यक्ति महान कार्य कर गुजरते हैं जबकि व्यस्तता की गुहार लगाते हुए कितने ही अनगढ़ और आलसी अपना समय गँवाते हैं और उन समस्याओं को भी नहीं सुलझा पाते जिनकी आड़ में वे मानवी गरिमा को सार्थक करने वाले कार्यों से कतराते और आँख चुराते रहते हैं।

रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने वाले को भी आठ घंटा कमाने के लिए- सात घंटा सोने के लिए- पाँच घण्टा नित्य कर्म तथा अन्याय इधर-उधर के कामों के लिए छोड़ कर विशुद्ध रूप से चार घंटे बचते हैं। इसी में से संकल्पपूर्वक दो से लेकर चार घंटे तक युग धर्म के निर्वाह में लगाते रहा जाय तो स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही साथ-साथ सधते रह सकते हैं। जो इतना समयदान अनुदान प्रस्तुत कर सकें उन्हें जीवन्त प्रज्ञापीठ या वरिष्ठ प्रज्ञापुत्र कहा जा सकेगा। ऐसे लोग मात्र अपने प्रयास से ही इतना काम कर गुजर सकते हैं जितने कि भव्य इमारतों वाली प्रज्ञा पीठों से की गई थी।

अर्थोपार्जन और परिवार निर्वाह के अतिरिक्त दो चार घंटे का समय भगवान के लिए, देश धर्म, समाज संस्कृति के लिए, गुरुदेव के लिए युग परिवर्तन के लिए लगाकर कोई व्यक्ति घाटे में नहीं रहेगा वरन् अपने त्याग की तुलना में अनेक गुना भण्डार भरेगा। इसके साथ ही अप्रैल अखण्ड-ज्योति अंक में छपे गुरुदेव के ‘बोया ’काटा लेख को कई बार पढ़कर सत्परिणाम के सम्बन्ध में सुनिश्चित विश्वास किया जा सकता है।

इन घंटों में क्या किया जाना चाहिए। यह अनेकों बार बताया जा चुका है। झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, कार्यकर्ताओं के जन्म दिन, दीवारों पर आदर्श वाक्य, मुहल्लों में स्लाइड प्रोजेक्ट प्रदर्शन, टैप रिकार्डर से गुरुदेव के नवीनतम प्रवचनों को सुनाया जाना, प्रज्ञा पुराण के चार खण्ड छप चुके हैं उनकी कथाएँ युग गीतों के टैप प्रातः काल सुनाने के लिए किसी ऊँचे स्थान पर लाउडस्पीकर फिट करना और टैप से युग कीर्तन बिस्तर पर पड़े हुओं को भी सुनाना, यह वे कार्यक्रम हैं, जिन्हें वर्णमाला अभ्यास के समतुल्य समझा जा सकता है। भारी भरकम, बोझिल और विशालकाय कार्य इतना कर चुकने के पश्चात् ही किसी को सौंपे जा सकते हैं। समर्थता की प्रारम्भिक सीढ़ी पार कर लेने पर ही विशालकाय क्रिया-कलापों का बोझ उठ सकता है।

उपरोक्त समूची योजना के लिए आवश्यक उपकरण खरीदने के लिए प्रायः पाँच हजार की राशि चाहिए। कुछ उपकरण पहले सके ही हों तो उतनी राशि से कम से भी काम चल सकता है। -झोला पुस्तकालय, चल पुस्तकालय, ज्ञानरथ, लाउडस्पीकर, स्लाइड प्रोजेक्ट, समग्र यज्ञशाला, वीडियो टैप सुगमसंगीत के वाद्ययन्त्र आदि ऐसी वस्तुएँ हैं जिनकी प्रचार कार्य में आये दिन आवश्यकता रहती है। वे न हों तो साधन हीन व्यक्ति का प्रचार कार्य आधा अधूरा बनकर रह जाता है।

इनके निमित्त राशि जुटाई ही जानी चाहिए। अपने पास से, मित्रों पर दबाव देकर, बर्तन बेचकर या कर्ज लेकर किसी न किसी प्रकार इतने साधनों की व्यवस्था करनी चाहिए और मन समझाने को सोचा जाना चाहिए कि कोई आकस्मिक आपत्ति आ गई थी और उसमें इतना पैसा लग गया। इन सभी के लिए मेण्टेनेन्स का खर्च बीस पैसा रोज के अंशदान की राशि से निकल सकता है। ईंट चूने की शक्ति पीठों में लाखों की राशि जुट जाय और हाड़मांस की बोलती चलती जीवन्त शक्ति पीठ के लिए आवश्यक उपकरणों के निमित्त उतनी छोटी राशि भी न जुट सके, ऐसा हो ही नहीं सकता।

स्थिर विनिर्मित प्रज्ञापीठों में निर्माण कर्ताओं ने स्वयं समय नहीं दिया। नौकरों से, बूढ़े बीमारों से, अनपढ़ अनगढ़ों से काम करवाया फलतः उसका कुछ निष्कर्ष न निकला। व्यक्ति की अपनी निज की प्रतिभा का अतिरिक्त मूल्य होता है। अनुपयुक्त व्यक्ति छोटे-मोटे काम भी नहीं कर पाता जबकि सुयोग्य व्यक्ति रास्ता चलते अनेकों काम बना कर रख देता है। अस्तु यह आवश्यक है कि नव सृजन का वातावरण बनाने के लिए कार्यक्रम चलाने के लिए वरिष्ठ कार्यकर्ता स्वयं आगे बढ़ें और देखें कि उन्हें कितने नये सहयोगी धड़ाधड़ मिलते चले जाते हैं और युग चेतना का प्रकाश उस समूचे क्षेत्र को किस प्रकार ज्योतिर्मय बनाता है।

प्रज्ञा परिवार के जो भी सदस्य इन पंक्तियों को पढ़ें, यह युग निमन्त्रण सीधा उन्हीं के नाम भेजा गया है। गुरुदेव की हीरक जयन्ती इन्हीं दिनों दस हजार प्रज्ञापुत्रों को जीवन्त प्रज्ञा संस्थान के रूप में खड़े होते देखना चाहती है। गुरुदेव दस हजार मनकों का हार अपने गले में पहनना चाहते हैं। अपना नाम अगली पंक्ति में लिखा कर औरों को भी परिजनो द्वारा अनुकरण की प्रेरणा दी जानी चाहिए।


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