भारतीय परम्परा और संगीत उपचार

October 1985

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जापान में संगीत की शिक्षा को एक अनिवार्य विषय बनाया गया है। वहाँ प्राथमिक शाला से लेकर हाईस्कूल शिक्षा तक के सभी विद्यार्थियों को अन्यान्य विषयों के साथ संगीत भी अनिवार्य रूप में लेना पड़ता है। वहाँ के शिक्षार्थी भारत की तरह नौकरी पाने के लिये नहीं पढ़ते वरन् व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी होने की दृष्टी से पढ़ते हैं। इन दोनों कार्यों में संगीत भी अन्य विषयों से कम कारगर नहीं होता। उससे मनोबल बढ़ता है। कलाकारिता से अभ्यस्त होने का उत्साह बढ़ता है। सामाजिक बनने तथा दूसरे के सामने अपनी अभिव्यक्तियाँ प्रकट करने का अवसर मिलता है। ऐसे-ऐसे अनेक लाभों की दृष्टि रखकर संगीत को इस प्रकार की प्रमुखता दी गई है। वह पारिवारिक जीवन का सर्वसुलभ और मोद मंगल भरा मनोरंजन है। थकान और उदासी उससे सहज ही दूर होती है। यदा-कदा पारस्परिक मनोमालिन्य चल पड़े तो भी वह इन तरंगों में सहल ही उड़ जाता है। इस प्रकार वह वैयक्तिक और पारिवारिक दोनों ही जीवन प्रसंगों में अपनी उपयोगिता प्रामाणित करता है। व्यक्ति और परिवार से मिलकर ही समाज बनता है। संगीत व्यक्ति और परिवार को भी प्रभावित करे पर सामाजिक सत्प्रवृत्तियों की सहकारिता की- हँसी-खुशी की प्रवृत्ति को उभारने में योगदान न दे ऐसा हो ही नहीं सकता।

वह दिन दूर नहीं जब संगीत को शिक्षा क्षेत्रों में ऐच्छिक विषय न रहने देकर संसार भर में उसको अनिवार्य स्तर की मान्यता मिलेगी।

शिक्षा के उपरान्त चिकित्सा का विषय आता है। रोगी को कुछ क्षण मरहम पट्टी, सुई, सफाई भोजन आदि दैनिक कार्यों से कुछ ही घंटे में निपट लेने के उपरान्त प्रायः सारे दिन बेकार पलंग पर पड़ा रहना पड़ता है। घर कुटुम्ब के लोग कुशल क्षेम पूछने के लिए जब तब ही आ सकते हैं। उन्हें भी तो अपने आजीविका उपार्जन, व्यवस्था, आदि के काम करने पड़ते हैं। मनोरंजन करने के लिए समय काटने के लिए हर घड़ी वे भी पास बैठे नहीं रह सकते। ऐसी दशा में अकेला पड़ा हुआ रोगी, शारीरिक दृष्टि से भी रोगी रहता है और पड़ा-पड़ा ऐसी कल्पना करता रहता है जो उसे बीमारी की तरह ही कष्ट देती और दुःखी करती है। परिचर्या के लिए सही अस्पताल के कर्मचारी उपलब्ध हो सकते हैं। एक रोगी के लिए एक परिचारिका का का होना भी सुगम नहीं ऐसी दशा में सूनेपन की व्यथा से छुटकारा पाने के लिए सुगम सरल संगीत की अपनी उपयोगिता है। पर सूनेपन का अच्छा साथी बनकर इच्छित समय तक साथ रह सकता है। टैप रिकार्डर के माध्यम से अच्छे संगीत या उपयोगी परामर्श सुनते रहने के लिए यह व्यवस्था एक ऐसे मनोवैज्ञानिक डाक्टर का काम दे सकती है जो हर समय अपना काम छोड़कर हाजिर रह सकता है।

यों यह कार्य अच्छी पुस्तकों से भी हो सकता है। पर उतनी मात्रा में उपयोगी साहित्य भी कहाँ उपलब्ध होता है।

संगीत चिकित्सा अपने आप में एक श्रेष्ठ उपचार पद्धति है। सबसे बड़ी विषमता उसकी यह है कि अन्य किसी उपचार प्रक्रिया में वह बाधक नहीं होता। जबकि अन्य चिकित्सा विधियों में यह सुविधा नहीं है। होम्योपैथी चिकित्सा के साथ ऐलोपैथी नहीं चल सकती। एक दूसरे की दवाओं को काटती है और एक का भी समुचित लाभ नहीं मिलता। पर यह दोष संगीत चिकित्सा में नहीं है उसका निर्वाह किसी भी पद्धति के साथ भली प्रकार हो सकता है।

स्नायु समूह को- प्राण विद्युत को प्रोत्साहित करना उसका प्रधान कार्य है। इस विद्या में जितना सम्भव हो सकता होगा उतना लाभ ही होगा। उसमें ऐन्टी बायोटिक्स जैसा कोई मारक गुण नहीं है जो किसी भी रोगी को किसी भी दृष्टि से कुछ भी हानि पहुँचावे। रोगी के लिए चित्त को प्रसन्न रखने के साधन अपने आप में रोग निवारक विशेषताएँ हैं। रोते या उदास मचलते बच्चे को जिस प्रकार अच्छे खिलौने देकर मूड बदला जा सकता है उसी प्रकार संगीत भी सबके लिए विशेषतया रोगी के लिए अच्छा मनोरंजन है। उसकी शर्त एक ही है कि वह उद्देश्य के अनुरूप ऊँचे स्तर का होना चाहिए। यह गुण प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करने पड़ते हैं वे बाजारू फिल्मी या दूसरे तरह के विछोह भर, शिकायत भरे, अश्लील संगीत में नहीं हो सकता। फिर बाजारू रिकार्ड गायन भरे होते हैं। जबकि चिकित्सा प्रयोजन के लिए स्नायु संस्थान में उपयोगी हलचलें उत्पन्न करने वाली ध्वनि तरंगों की ही आवश्यकता है। यह कार्य विशेषतया इसी प्रयोजन के लिए विचारपूर्ण विनिर्मित किये गये संगीत टैप ही सम्पन्न कर सकते हैं।

रोगों की भिन्नता के अनुरूप स्नायु संस्थान में यह गड़बड़ियाँ भी भिन्न प्रकार की होती हैं। इसलिए हर रोगी के लिए उसकी स्थिति के अनुरूप दवा का चयन करने की ही तरह उसकी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए- संगीत को प्रभाव को ध्यान में रखते हुए ऐसा चुनाव करना पड़ता है जो रोगी की स्थिति के अनुरूप हो। सबके लिए जिस प्रकार एक दवा देने से काम नहीं चलता उसी प्रकार प्रत्येक रोगी को-बिना उसकी विशिष्ट स्थिति एवं आवश्यकता को समझे किसी भी, संगीत को सुनने की छूट नहीं मिल सकती। ऐसी छूट मनोरंजन मात्र के लिए मिल सकती है चिकित्सा के लिए नहीं।

जिस प्रकार रसायन चिकित्सा के लिए रक्त, मूत्र आदि विभिन्न माध्यमों से रोगी की स्थिति का विश्लेषण के उपरांत औषधि का निर्णय करना पड़ता है उसी प्रकार स्नायविक एवं नाड़ी संस्थान की वर्तमान स्थिति जानने के लिए इस प्रयोजन के लिए आवश्यक उपकरणों द्वारा जाँच पड़ताल करनी पड़ती है। रोग का इतिहास एवं वर्तमान स्तर प्रश्नोत्तर प्रणाली से भी जाँचना पड़ता है। तभी यह स्पष्ट होता है कि शरीर के किस भेजे में कितनी निष्क्रियता छाई है और इसके लिए इतनी शक्ति का संगीत-कितनी देर-किस समय उपयोग में लाना ठीक पड़ेगा। निदान के बिना उपचार आरम्भ कर देना तो सब धान बाईस पसेरी के भाव बेचने की तरह है। उससे लाभ के साथ निराशा भी हाथ लग सकती है और हानि भी हो सकती है।

संगीत चिकित्सा का साँगोपाँग स्वरूप वर्णन करना और उसके भेद-उपभेदों का बताना इस छोटे लेख में सम्भव नहीं इसके लिए एक परीक्षित और अनुकूल पद्धति के समस्त भेद-उपभेदों का जानना-जनाना आवश्यक है। इसके लिए अगले दिनों ही एक उपयुक्त प्रक्रिया पाठकों के हाथ पहुँचेगी। यहाँ तो उसका संकेत भर जान लेना और पृष्ठभूमि समझ लेने से ही काम चल सकेंगे।

विदेशों में, विशेषकर अमेरिका में-इस प्रकार के संगीत अस्पतालों की स्थापना हुई है जो दूरस्थ रोगी की भी घर बैठे सेवा करते हैं। वे प्रश्नोत्तरों द्वारा रोगी की जाँच पड़ताल करते हैं और समाधान के हेतु अमुक संगीत श्रवण की सलाह देते हैं। वे टैप डाक में भेज दिये जाते हैं और उद्देश्य पूरा होने पर वापस मँगा लिये जाते हैं। ऐसे अस्पतालों की पृष्ठभूमि में ईसाई मिशनों का हाथ है जो अपनी लोकसेवा प्रवृत्ति, वैज्ञानिकता एवं ईसाई धर्म तत्वों की जन-जन के मन-मन में गहराई तक बिठाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इसकी प्रगति समीक्षा पढ़ने से प्रतीत होता है कि वह योजना लोकप्रिय होने के साथ-साथ सफल भी सिद्ध हुई है। अन्य देशों में भी इस योजना का विस्तार हो रहा है और मानसिक रोगियों को विशेष रूप से लाभ हो रहा है। जो अस्पताल में दाखिल होने की स्थिति में नहीं पहुँचे हैं, मात्र सनकी और कुकल्पनाओं से ग्रस्त हैं वे परिवारी लोग अपने-अपने घरों पर इस योजना का विशेषतया लाभ उठा रहे हैं।

संगीत भारत का उत्पत्ति केन्द्र है। यहाँ के अधिकाँश देवी-देवता संगीत उपकरणों से सुसज्जित हैं। सामगान का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। विवाह जैसे उत्सव तो उस आयोजन के बिना सम्पन्न ही नहीं होते। लोक गीतों के रूप में हर सम्पन्न और पिछले क्षेत्र में अपने-अपने ढंग से उसका प्रचलन है। देवी-देवताओं की अभ्यर्थना में संगीत जैसे आयोजनों की व्यवस्था देश के कोन-कोने में होती है। भूत-प्रेत भगाने और साँप का विष उतारने में अपने-अपने ढंग के आयोजन सर्वत्र होते रहते हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि जन-मानस के विकास, लोक शिक्षण के अतिरिक्त इस प्रक्रिया का उपयोग शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं रोग निवारण के निमित्त किया जाय। यह कार्य भारत की साँस्कृतिक परम्परा के अनुरूप भी है और व्यवहार में सरल भी। अथर्ववेद आयुर्विज्ञान का प्रधान ग्रन्थ है। उसकी समस्त संरचना छंद विद्या के अनुरूप हुई है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि उन मन्त्रों का अर्थ ही रोग निवारण शिक्षाओं से परिपूर्ण हो ऐसी बात नहीं है। रहस्य यह भी है कि उनका उच्चारण यदि सामवेदीय परम्परा के अनुरूप गायन क्रम से हो तो उसका असाधारण लाभ मिल सकता है। मंत्रों के पाठ, जप परंपरा ही नहीं है उनका विधिवत् गायन भी होगा और साथ में वादन का भी संयोग रहता है। यज्ञ कृत्यों में एक अधिकारी उद्गाता भी होता है जिसका उत्तरदायित्व वेद मन्त्रों की प्रक्रिया में गायन विद्या का उपयोग त्रुटिपूर्ण न रहने पाये।

इस सुविस्तृत विज्ञान में विलम्ब लगता दृष्टिगोचर हो तो एकाकी वेदमाता गायत्री का उपयोग समस्त शारीरिक मानसिक उपचारों के निमित्त हो सकता है। अन्तर इतना ही है कि उसके साथ उपयुक्त वादन विधियों का भी समावेश हो। उच्चारण मानसिक हो सकता है। रोगी को मन ही मन वेदमाता का ध्यान ओर मानसिक जप करने में किसी प्रकार के प्रतिबन्धों जैसी कोई बात नहीं है।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान हरिद्वार की यह शोध प्रक्रिया कई वर्षों से चल रही है कि किस शारीरिक और किस मानसिक रोग में गायत्री मन्त्र को किस राग रागिनी में ढाल जाय तो संगीतकारों के भी अनुकूल हो और साम विद्या के अनुरूप भी वह प्रयोग लम्बे समय से चलने के उपरान्त अब उस स्थिति में आ गया है कि उसे सार्वजनिक प्रयोग के लिए प्रस्तुत किया जा सके।

शान्ति-कुंज में असाध्य कष्टसाध्य और छूत कि रोगियों के लिए तो व्यवस्था नहीं बन पाई है जिनके लिए अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता पड़े या दूसरों को दूत लगने का भय हो तथा आश्रमवासियों को असुविधा हो पर जो सामान्य शारीरिक मानसिक कठिनाइयों से ग्रसित हों वे भारतीय स्तर की संगीत चिकित्सा का लाभ उठा सकते हैं। जिनके पास अपने टैप रिकार्डरों का प्रबन्ध है तो यहाँ से रोग विशेष के अनुरूप टैप मँगा सकते हैं।

आशा की जानी चाहिए कि भगवान शिव के डमरू, कृष्ण की वंशी, सरस्वती की वीणा और नारद के इकतारे में निस्सृत संगीत विद्या आज की स्थिति में भावनात्मक उत्कर्ष और शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य के सम्वर्धन में महत्वपूर्ण योगदान वे सकने में समर्थ होगी।


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