सुख का कारण ज्ञान है (Kahani)

October 1985

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सन्त दादू में ब्रह्मज्ञानी और श्रमजीवी का समन्वय था। ऋषि परम्परा को उनने इसी रूप में समझा और अपनाया था। उपासना और सत्संग प्रवचन के उपरान्त वे अपना बचा हुआ समय लोकोपयोगी कार्यों में लगाते थे?

उन दिनों बचे समय में वे पगडंडी के किनारे की झाड़ियाँ काट रहे थे।

सन्त दादू से भेंट करने के लिए उस दिन शहर कोतवाल घोड़े पर चढ़कर आये। रास्ते में झाड़ी काटता एक अर्ध नग्न श्रमिक दिखा। पूछा- ‘‘बताओ सन्त दादू का आश्रम कहाँ है? उनसे भेंट कब होती है।’’

दुविधा में पड़े सन्त अचकचा रहे थे कि क्या उत्तर दें? कुछ बोल नहीं पा रहे थे। इस गुमसुम स्थिति से खीजकर कोतवाल ने एक हन्टर जमा ही दिया। बोले- “गूँगा-बहरा है क्या, जो बात का जवाब तक नहीं देता।’’

घोड़ा बढ़ाकर आगे पहुँचे, तो एक किसान मिला। उससे भी कोतवाल ने दादू का पता पूछा। उसने कहा- ‘‘पीछे लौट जाइए। उधर झाड़ियाँ काटते मैंने उन्हें देखा है। शायद वहीं होंगे। किसान ने जैसी आकृति बतायी, वह तो उसी व्यक्ति जैसी थी, जिसमें कि हंटर जमाकर वे आये थे।

लौट कर देखा तो दादू पीठ सहला रहे थे। हंटर जोर का पड़ा था। चमड़ी उखड़ आयी थी। कोतवाल ने उन्हें पहचाना, तो क्षमा माँगने लगा।

दादू ने कहा- ‘‘अज्ञान ही विपत्तियों का कारण है। आपने मुझे नहीं पहचाना और मैनें भी आपको जानने का प्रयत्न नहीं नहीं किया है। जानने वाले दुर्घटना करने और सहने से बच जाते हैं।’’

इस संक्षिप्त से सन्त समागम में सीखा और सिखाया गया है- ज्ञान ही सुख का कारण है। ज्ञान में सर्वोपरि महत्व का आत्मज्ञान है, जिसके सहारे बन्धन कटते और सिद्धि के द्वार खुलते हैं।


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