एक बार की बात है- देवताओं और असुरों में घमासान युद्ध छिड़ा। दोनों पक्षों ने अपनी समूची शक्ति दाँव पर लगा दी। आरम्भ के दिनों में देवताओं का पक्ष लड़खड़ाया। सेनापति बदलने की आवश्यकता अनुभव हुईं। निर्णय प्रजापति को करना था।
ब्रह्माजी कारण जानने और उपाय खोजने के लिए समाधिस्थ हो गये। उनने देखा देवता विलासी और प्रमादी हो गये हैं। सो अन्य गुणों का बाहुल्य होते हुए भी इन दो कमियों के कारण वे जीत न सकेंगे। संयमी और पराक्रमी सेनापति की नियुक्ति होनी चाहिए।
उन दिनों भूलोक में राजा मुचुकुन्द की समता संयम और पराक्रम में मुकाबला कर सकने वाला और कोई नहीं था। सो उन्हें ही प्रजापति के आदेश से देव वाहिनी का सेनापति बना दिया गया। उनने आते ही माहौल बदल दिया। हारते हुए देवता जीतने लगे।
युद्ध लम्बा खिंच गया। साथ ही पाशा भी पलटने लगा। असुर फिर तगड़े-पड़ते गये और देवता जीती बाजी हारने लगे। चिन्ताजनक स्थिति से प्रजापति को अवगत कराया गया। उनने देखा कि विजय मिलते देख कर मुचुकुन्द अहंकारी होने लगा है। विजय के लिए अपेक्षित गुणों में संयम और पराक्रम की ही तरह निरहंकारिता भी एक महत्वपूर्ण आधार है। वह घटने लगे या हो नहीं तो समझना चाहिए पराभव के दुर्दिन आ गये। मुचुकुन्द को भूल सुधार साधना करने को कहा गया। नम्रता का अभ्यास करने में देर लगते देखकर नये सेनापति की नियुक्ति आवश्यक हो गई।
इसके लिए कार्तिकेय उपयुक्त पाए गये। उनमें तीनों विशेषताएँ थीं। अतएव नये सेनाध्यक्ष वे ही बने और नई रणनीति अपनाकर दैत्य समुदाय पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए।
मानवीय गरिमा को भी सदा यही गुण प्रभावित करते हैं। यह परम्परा इस देश में सदैव चलती रही है।