प्रतिभा- जागरुकता और तत्परता की परिणति

October 1985

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नीति शास्त्रियों के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में मनोनुकूलता (एप्टीट्यूड) का भी योगदान होता है। व्यक्तित्व के विकास एवं निर्धारण में सन्तुष्ट मन की असाधारण भूमिका होती है। सर्वविदित है कि श्रेष्ठ कलाकार, संगीतकार, साहित्यकार, वैज्ञानिक अपनी साधना में इतनी तत्परता व मनोयोग से निरत रहते हैं कि उन्हें बाह्य दुनिया की उतनी परख नहीं रहती जितनी कि अपनी आन्तरिक आकाँक्षा को पूर्ण करने की। तन्मय बने रहने से बाह्य व्यवधानों एवं आकर्षणों का प्रभाव भी उतना नहीं पड़ता। एक निश्चित दिशा में अपने चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को लगाये रखने पर भटकाव की भी गुँजाइश नहीं रहती। मनोनुकूलता श्रेष्ठ व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक सिद्ध होती है।

किसी कार्य विशेष में शीघ्रातिशीघ्र दक्ष हो जाना इस बात का परिचायक है कि उस विषय में उस व्यक्ति की मनोनुकूलता है। मनोनुकूलता और जन्मजात क्षमता में अन्तर है। तीव्र बुद्धि और मनोनुकूलता से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति की बुद्धि तीव्र अधिक है वह कार्य में निपुणता एवं सफलता प्राप्त कर ही ले।

मनोनुकूलता और रुचि में भी अन्तर होता है। सम्भव है कोई व्यक्ति संगीत में रुचि रखता हो पर उसमें मनोनुकूलता न हो। वस्तुतः यह एक मानसिक प्रवृत्ति है जो किसी काम विशेष में व्यक्ति को पूरी तरह तत्पर रहने के लिए प्रेरित करती है और सफलता लक्ष्य तक पहुँचाकर रहती है।

जेम्स मैकेन्जी कहते हैं- ‘‘प्रगति के लिए जहाँ जानकारी, परिस्थिति, प्रतिभा, सुविधा आदि की आवश्यकता है, वहाँ मनोनुकूलता की और भी अधिक है। इच्छा करते रहने या मान्यता बना लेने मात्र से काम नहीं चलता वरन् मन को अभीष्ट लक्ष्य में समुचित रस लेने लगने के लिए भी प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाना चाहिए। यही है वह मनोनुकूलता जो समग्र तत्परता के साथ अभीष्ट प्रयोजन में जुटाने और सफल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाती है।’’

जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाविद् हरबार्ट महोदय ने चारित्रिक विकास के लिए ‘श्रेष्ठ नैतिक विचारों’ को बहुत महत्वपूर्ण बताया है वे सद्विचारों के निरन्तर संपर्क में रहने और स्वाध्याय के साधन जुटाने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘‘जब सद्विचारों के फलस्वरूप उनमें रस आने लगता है जो आचरण में आने पर चरित्र का निर्माण करते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य के आचरण और चरित्र के विकास के लिए उसका उत्कृष्ट एवं भले विचारों के संपर्क में रहना आवश्यक है। व्यक्ति के भले बुरे कार्यों का हेतु उसके श्रेष्ठ-निकृष्ट विचार ही होते हैं। सद्विचारों से व्यक्ति की पाशविक वासनाएँ विवेकपूर्ण भावनाओं इच्छाओं में बदलती चली जाती हैं और व्यक्ति देवोपम बन जाता है।”

“मानवी मस्तिष्क कोरे कागज के समान है, उस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। भीतर से तो प्रेरणाएँ भर उठती हैं। उन्हें दिशा देने तथा व्यवहार में उतारने का ताना-बाना विचार तन्त्र द्वारा ही बुना जाता है। इसकी व्यवस्था न की जाय तो व्यक्ति भटकता ही रहेगा और यह न समझ सकेगा कि आज की परिस्थितियों में सत्प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने के लिए उसे क्या और कैसे करना चाहिए।”

विचार विस्तार इन दिनों एक कंटकाकीर्ण जंगल की तरह उग पड़ा है। अनैतिक और अवाँछनीय विचारों की बाढ़ तूफानी गति से आई है। साहित्य, चित्रकला के क्षेत्र में तो हानिकारक उत्पादन हुआ ही है। प्रचलन में भी ऐसे ही विचार व्यवहृत होते देखे जाते हैं जिन्हें अनैतिकता कुरुचि का सड़ी-गली संरचना कहा जा सके। समय का प्रवाह नीति-निष्ठा के पक्ष में नहीं है। जो हवाएं बह रही हैं, वे नमी को सुखाने वाली और छत-छप्परों को उड़ा ले जाने वाली ही सिद्ध हो रही हैं। ऐसे समय में मानवी गरिमा को बना सकने में एक ही उपाय कारगर हो सकता है कि आदर्शवादिता के पक्षधर विचारों का न केवल उत्पादन किया जाय वरन् उन्हें जन-जन के मन-मन तक पहुँचाने का व्यापक एवं समर्थ प्रयास क्रम भी अपनाया जाय।

जीवन तो भगवान का दिया हुआ है पर उसे दिशा देने और किसी परिणाम पर पहुँचने की पूरी-पूरी जिम्मेदारी चिन्तन चेतना की है। उसी के अनुरूप व्यक्ति बनते, बढ़ते और बदलते हैं। पेट की भूख बुझाने में जो स्थान आहार का है वही मानसिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति में विचार संपदा का। अभक्ष्य खाने पर रुग्णता एवं अकाल मृत्यु का संकट सामने आ खड़ा होता है। अचिन्त्य चिन्तन को उत्साहित करने वाले कुविचार भी प्रायः ऐसा ही संकट उत्पन्न करते और पतन पराभव के गर्त्त में धकेलते देखे जाते हैं।

कलिजुंग ने उच्च लक्ष्य की ओर चलने वालों को अपना गन्तव्य सुनिश्चित कर लेने पर बहुत जोर दिया है। उनका कथन है-

“अधिकाँश व्यक्तियों का कोई लक्ष्य नहीं होता। वे हवा के रुख में उड़ने वाले तिनके पत्तों की तरह कभी इधर कभी उधर भटकते देखे जाते हैं। अनेकानेक आकर्षण-अनेकानेक परामर्श-सामने आते रहते हैं इनमें से किन्हें अपनाया जाय? किन्हें छोड़ा जाय इसका निर्भीक निर्धारण न होने से कभी एक ओर बढ़ना कभी मुड़ना, उलटकर चलने लगने जैसी विक्षिप्त विचित्रता कार्यान्वित होती रहती है। ऐसे लोग बढ़ तो किसी भी दिशा में नहीं पाते। भटकावजन्य थकान और खाली हाथ रहने की निराशा मन को खिन्न उद्विग्न किये रहती है।”

“विडम्बना के कुचक्र में उलझे रहने की अपेक्षा यह उत्तम है कि जीवन का लक्ष्य निश्चित किया जाय और फिर उसकी पूर्ति के लिए अपनी योग्यता के अनुरूप छोटे शुभारम्भ से प्रयास आरम्भ कर दिया जाय।’’

“एक रास्ते पर चलने वाले ही व्यवहार क्षेत्र की प्रगति में सफलता पाते हैं। विद्वान, पहलवान, कलाकार स्तर की कहने योग्य सफलतायें उन्हीं को मिली है जिनने एक लक्ष्य स्थिर किया और बिना मन डुलाये निर्धारित मार्ग पर चलता रहा उसे हर काम में अभीष्ट सफलता मिली है। छोटे आकार वाली चींटी भी लक्ष्य के प्रति उत्साह और प्रयास में मनोयोग संजोये रहने पर ऊंचे पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है।”

“लक्ष्य के अनुरूप चिन्तन, चिन्तन के अनुरूप पुरुषार्थ, पुरुषार्थ के अनुरूप सहयोग एवं साधनों का एकत्रीकरण-तदुपरान्त सफलता का श्रेय। इसी प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए सामान्य स्तर के लोग, आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त करते रहे हैं।”

“व्यक्तित्व की श्रेष्ठता परक प्रगति को महत्व देने वाले आधी अधूरी कल्पना नहीं करते रहते वरन् लक्ष्य तक पहुँचने का संकल्प करते हैं और उस पर व्रतशील होकर जुट जाते हैं। जिनने अपने में इतनी साहसिकता जगा ली उनकी सफलता की आधी मंजिल पूरी हो गई। अवरोधों और अभावों से जूझना, परिश्रम और मनोयोग को अधिकाधिक प्रखर करना यों प्रत्यक्षतः सफलता के निमित्त कारण समझे जाते हैं किन्तु इससे भी बड़ी बात है कि लक्ष्य निर्धारण। आदर्शवादी प्रगति के लिये तो इस प्रकार की व्रतशीलता नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार का निश्चय यदि जीवन के आरम्भिक दिनों में किया जा सके तो प्रगति के लिये पर्याप्त अवसर मिल जाता है। वैसे इस प्रकार के निर्धारण जब भी किये जा सकें तभी सराहनीय श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न करने आरम्भ कर देंगे।”

लार्क एल हाल ने अपने ग्रन्थ ‘प्रिंसिपल्स ऑफ विहेवियर’ में नीति निष्ठा की गरिमा बताते हुए लिखा है- ‘‘आचरण की सर्वोत्तम अवस्था वह मानी गई जिसमें मनुष्य विवेकपूर्ण कार्यों को ही करता है। विवेक उसका मार्गदर्शक होता है। नैतिक दृष्टि से विकसित आचरण वाला व्यक्ति औचित्य, अनौचित्य का निर्णय अपने स्वतन्त्र विचार से करता है। उसको समाज के अनेक विरोधी रीति-रिवाजों और नियमों में से सर्वोत्तम का तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार चुनाव करना होता है। उच्चस्तर का आचरण उन्हीं का माना जाता है जिनमें स्वतंत्र विचार करने की क्षमता एवं तद्नुरूप कार्य करने की योग्यता होती है। नैतिक सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करना सर्वश्रेष्ठ साहस माना गया है। संसार के महामानव अपने स्वतन्त्र चिन्तन, नीति निर्णय एवं आदर्शवादी कार्य पद्धति के बल पर ही आगे बढ़े हैं।

“सदाचार समर्थक विचारों को पढ़ना उस प्रकार के उपदेशों को रुचिपूर्वक सुनना एक सराहनीय अभिरुचि है। पर इतने भर के काम कुछ नहीं बनता। आदर्शों को अपनाने, उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए एक विशेष प्रकार के साहस की आवश्यकता पड़ती है जो भौतिक क्षेत्र के साहसियों से भिन्न प्रकार का होता है। कठिन कामों में धैर्य, साहस, उत्साह, दिखाने वाले और अवरोधों की चिन्ता किये बिना हाथ में लिये काम को पूरा करने में निरत व्यक्ति साहसी कहलाते हैं। यह लौकिक प्रयोजनों को पूरा करने वाली शूरवीर स्तर की साहसिक हुई। अपनी त्रुटियों को समझना-समझने के उपरान्त उनसे लड़ पड़ना-संपर्क क्षेत्र में छाये हुए अनुपयुक्त वातावरण के दबाव को अस्वीकार करना-साथ ही जो आदर्श युक्त हैं उसे अपनाते समय सामने आने वाली आन्तरिक आनाकानी और स्वभाव अभ्यास की मनमानी को उलटकर रख देना-ऐसा साहस है जिसकी परिणति महामानवों को उपलब्ध होने वाली गरिमा सफलता बनकर सामने आती है।’’

सी. स्पीयर मैन की ‘इन डिवीजुअल विहेवियर’ के एक अध्याय का सार संक्षेप इस प्रकार है-

“असावधानी बाहर से छोटी सी भूल भर मानी जाती है पर वस्तुतः उसके द्वारा उत्पन्न हुई हानियाँ किसी बाहरी आक्रमण से कम नहीं होती। अन्तर इतना ही है कि कुल्हाड़ी से लकड़ी को तत्काल काट दिया जाता है और वह कृत्य प्रत्यक्ष दिखता है। इसके विपरीत घुन इसी कार्य को गुपचुप करता और अपेक्षाकृत देरी लगा लेता है। असावधानी के कारण होने वाली हानियों का लेखा-जोखा तैयार किया जायेगा कि घाटा देने वाली समस्त मदें उतने संकट उत्पन्न नहीं करतीं जितनी अकेली असावधानी करती रहती है। अच्छे खासे लाभदायक धन्धे करने वालों में से कितने ही लोग इसी एक बुद्धि के कारण दिवालिये बनते देखे गये हैं।”

‘‘असावधानी जीवन के हर क्षेत्र में अप्रत्याशित संकट उत्पन्न करती और अपने यजमान को पग-पग पर नीचा दिखाती, धूलि चटाती रहती है। जीवन विकास के क्षेत्र में इसका प्रभाव और भी अधिक होता है। अपने दोष दुर्गुणों के प्रति उनके कारण होने वाले हानियों के प्रति उपेक्षा बरतने वाले लोग अन्ततः ऐसे संकट में जा फँसते हैं जिससे निकलने की न सूरत बचती है और न हिम्मत रहती है। नशेबाजी की तरह ही असावधानी भी एक प्रकार की धीमी आत्म-हत्या है जिससे विनाश क्रम रहता तो धीमा है पर होता है निश्चित रूप से।’’

“प्रगति के लिए किन सद्गुणों को अपनाना आवश्यक है? अवगति से निकलने के लिए किन दुर्गुणों को हटाना अनिवार्य है? इसे न देखा सोचा जाय। जैसा कुछ भी ढर्रा चल रहा है वैसा ही चलने दिया जाय तो प्रगति की आशा रखना तो दूर- वर्तमान दुर्गति से उबरना भी सम्भव न हो सकेगा।”

“जागरूकता उस सत्प्रवृत्ति का नाम है जो प्रगतिशीलों से प्रेरणा लेकर-विकास पथ पर चलने की उमंग उत्पन्न करती है। उसके लिए आत्म विश्वास-साहस और पुरुषार्थ जगाती है। इतना ही नहीं उत्कर्ष पथ पर चलने में स्वभावतः आते रहने वाले अवरोधों से जूझने का शूरवीरों जैसे अविचल धैर्य और संतुलन भी प्रदान करती है। जागरूक भूत से सीखते हैं-भविष्य की सोचते हैं और तद्नुरूप जो आवश्यक है उसे करने के लिए न केवल दूरगामी निर्धारण करते हैं वरन् बिना समय गँवाये उन निर्धारणों को क्रियान्वित करने में जुट भी पड़ते हैं।’’

नैतिक विकास हेतु जागरूकता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह जागरूकता इस स्तर की होनी चाहिए जिसे न तो अवाँछनीयता सहन हो और न सुधार के लिए पराक्रम बरतने में विलंब करने वाली आना-कानी।


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