प्रेम ही परमेश्वर है।

October 1985

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प्यार की सम्वेदना ईश्वर की प्रत्यक्ष सहानुभूति एवं अभिव्यक्ति है। हलचल तो जड़ पदार्थों में भी होती है, परमाणु, जीवाणु और विषाणु भी चले फिरते, जीते ओर हलचलें करते हैं पर उन्हें आत्मा के चेतनायुक्त नहीं गिना जाता, कारण कि चल बल के रहते हुए भी उनमें भावना का समावेश नहीं होता। भावनाओं से सम्पन्न चेतना का ही दूसरा नाम आत्मा है। आत्मा की परमात्मा के रूप में परिणति तब होती है जब उसमें प्यार का अमृत भर निर्झर लहराने लगता है। प्रेमी प्रकृति को ईश्वर की प्रतिध्वनि प्रतिच्छाया कहा जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

नीरस, रूखे, निष्ठुर, शून्य और शुष्क प्रकृति के मनुष्य जीवित तो कहे जा सकते हैं पर उनमें उस सद्भावना युक्त सरसता का अभाव रहता है जिसे सहृदयता कहते हैं। सहृदयता का ही दूसरा नाम प्रेम प्रकृति है। यह जिस भी अन्तःकरण में उगेगी वहाँ चन्दन जैसी शीतल सुगन्ध उमगती रहेगी। ऐसे व्यक्ति इस धरती के वरदान हैं स्थिर शान्ति और प्रगति उन्हीं के अस्तित्व से जुड़ी रहती है।

अपनी आत्मा की परिधि जो जितनी विस्तृत कर सकता है वह उतना ही प्रेम व्यवहार की व्यापकता का परिचय दे सकता है। दूसरों में अपनी आत्मा का-अपने में दूसरों का अस्तित्व समाया हुआ अनुभव करना ही वह उद्गम है जहाँ प्रेम भावनाओं का आविर्भाव होता है। परायापन जहाँ होगा वहाँ उपेक्षा बरती जायगी और उदासीनता रहेगी। पर जहाँ अपनापन जोड़ लिया गया हो वहाँ गहरी दिलचस्पी पैदा होगी। अपने आपे को सुखी समुन्नत बनाने का प्रयास हर कोई सहज स्वभाव से करता है। आत्मीयता की बूंदें जितने क्षेत्र में बरसेंगी उसमें उल्लास की हरियाली निश्चित रूप से उगेगी।

अधिकार में आई हुई वस्तुओं को अपना माना जाता है। जिनसे कुछ प्राप्त होने की आशा है अथवा जिनके साथ कारण वश मोह बन्धन बंध गये हैं वे सभी प्रिय लगते हैं। प्रिय पदार्थों और प्रियजनों का सान्निध्य भी प्रिय लगता है। उनके सुख सन्तोष में भी अपने को वैसी ही प्रसन्नतादायक अनुभूति होती है। आनन्द का समस्त परिवार प्रेम के केन्द्र बिंदु से ही विनिर्मित और विकसित होता है। रुग्ण और अभावग्रस्त दुःखी मनुष्य भी प्रिय पात्रों को देखकर खिल उठते हैं यह सदा देखा जाता है। वैभव के विस्तार एवं निकटवर्ती परिजनों में जितनी ममता होती है उतना ही उनका सान्निध्य प्रिय लगता है। यदि हम इस आत्मीयता की परिधि को अधिक व्यापक और विस्तृत बना सकें तो अपनी सारी दुनिया हर्षोल्लास से भर सकती है।

समस्त सद्गुणों का मूल प्रेम है। जो अपने से प्रेम करेगा उसे व्यक्तित्व के सद्गुणों से- सत्प्रवृत्तियों से- सुसज्जित करना ही होगा। सद्ज्ञान का आहार आत्मा को देना ही पड़ेगा। जो अपने से प्यार करेगा, जिसे अपने उज्ज्वल भविष्य की आशा है उसके लिए एक मार्ग राजमार्ग यही प्रतीत होगा कि संयम और सदाचार से शरीर को और परिष्कृत विवेक दृष्टि से अपने मनःक्षेत्र को परिष्कृत एवं सुसंस्कृत बनाने में संलग्न हो।

आत्मा का प्रकाश जितने क्षेत्र में विस्तृत होगा उतने में अपना आपा बिखरा दिखाई देगा। उसे स्वच्छ सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिए अन्तःकरण में अदम्य स्फुरता उठेगी। सेवा धर्म उसका सहज स्वभाव बन जायेगा। जब अपने समान ही दूसरों को भी सुखी सम्पन्न बनाने की आत्म-भावना विस्तृत हो उठेगी तो अपनी ही भाँति उन्हें भी सुखी समुन्नत बनाने के लिए ऐसी उत्कंठा जगेगी जिसे रोकना या दबाना सम्भव ही न हो सके।

प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। यदि वह स्वार्थपरता और संकीर्णता से सना नहीं है, पवित्र और प्रखर है तो उसे पाकर मनुष्य महान से महानतम होता चला जायेगा और अपने में नर में नारायण की झाँकी करेगा।


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