अवन्तिका नगरी के समीप जंगल में कुछ ग्वाले पशु चराने जाया करते थे। उस क्षेत्र में एक ऊँचा टीला था। टीले पर जब कोई लड़का बैठ जाता तो बड़े विद्वानों जैसी बातें करता। नीचे उतरते ही उसकी स्थिति पूर्ववत् हो जाती। समझा गया कि टीले में कोई करामात है। सूचना राजा भोज के पास पहुँचाई गई। टीले को खोदने और उसके भीतर कोई विलक्षणता हो तो खोज निकालने की आज्ञा हुई।
टीला खोदा गया। उसके नीचे एक स्वर्ण सिंहासन निकला। उसके बत्तीस पाय थे, जो पुतली आकृति के बने हुए था। राजा भोज ने उसे अपने बैठने के लिए उपयुक्त समझा सो एक दिन इसके लिए निर्धारित हो गया।
राजा ने जैसे ही सिंहासन पर पैर रखा, पायों में लगी एक पुतली बोलने लगी अरे यह सिंहासन राजा विक्रम का है, वे बहुत गुणवान थे। उनके बत्तीस गुणों की प्रतिनिधि एक-एक पुतली है। यदि आप में वे गुण हों तो ही इस सिंहासन पर बैठना। भोज के पूछने पर एक पुतली ने एक गुण का संस्मरण सुनाया। राजा में वे गुण न थे इसलिये वे असमंजस में पड़े और मुहूर्त कल के लिये हटा दिया गया। दूसरे दिन दूसरी पुतली ने, तीसरे दिन तीसरी पुतली ने एक-एक गुण से सम्बन्धित संस्मरण सुनाये। इस प्रकार बत्तीस पुतलियों को अपने-अपने संस्मरण सुनाते हुए बत्तीस दिन बीत गये। राजा साहस पूर्वक यह न कह सके कि उनमें वे गुण हैं। अस्तु बत्तीसों पुतलियाँ मिल कर उस सिंहासन को आसमान में उड़ा ले गईं।
शासन में कितने सद्गुण होने चाहिये इस कथान्तर का यही अभिप्राय है। तभी उसकी प्रजा सुखी रह सकती है। यही बात सुव्यवस्थित परिवार के गृहपति पर लागू होती है।