जीवन-ज्योति-प्रदाता (Kavita)

October 1985

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तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता। युग द्रष्टा, युग स्रष्टा, प्रेरक जीवन-ज्योति-प्रदाता॥

पथ के गीध, शिला, शबरी को पावन प्यार लुटाते। चले जा रहे महाप्राण, करुणा की किरण उगाते॥ अंधकार में घिरे मनुज को ज्ञान मशाल थमाये। श्वास-श्वास को चले होमते, यज्ञ-ज्वाल धधकाये॥ सोई संसृति को जागृति का जीवन घूंट पिलाते। ध्यान-मग्न, एकाकी पथ पर आगे कदम बढ़ाते॥ अंध अनय के लिए मन्युवत् न्याय-नीति के त्राता। तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता॥

संस्कृति-सीता, शांति-सभीता को अब मुक्ति दिलाने। लिये अखण्ड-ज्योति-सा जीवन, युग का तिमिर मिटाने॥ चले जा रहे देव, लक्ष्य की सीमाओं से आगे। सोये नहीं एक पल को भी, नींद जीतकर जागे॥ चिंतन चरण वहां जा पहुंचे, जहां न कोई साथी। साथी बनी राह में छायी, केवल गहन निशा थी॥ धर्म-साधना अर्पित जीवन, साधक, सृजक विधाता। तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता॥

इसीलिए करुणार्द्र हृदय ने निशि को नहीं मिटाया। दो रातों के बीच संत ने दिन का दिया जलाया॥ विश्वामित्र, वशिष्ठ, व्यास की परंपरा का पानी। गंगा की अबाध धारा-सा बढ़ता रहे अमानी॥ उस सीमा तक लिये जा रहे तप की अमर कहानी। साथ न कोई जहां पहुंचकर आज करे अगवानी॥ चिंतन जाग रहा जन-जन में जीवन-ज्योति जगाता। तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता॥

आप्त पितर फूले न समाते, गर्वित माथ उठाये। आशीषों की वर्षा कर आनंद अश्रु भर लाये॥ पुलकित प्राण आर्ष संस्कृति के, मुक्त ऋचायें गायें। खड़ा हिमालय शीश उठाकर कीर्ति ध्वजा फहराये॥ भव्य भारती भरे भाव से पुलक-पुलक बलि जाये। तप की गाथा प्रलय काल तक स्वयं शारदा गाये॥ अमृत का पिघलाव प्राण से उमड़-घुमड़ उफनाता। तप के धनी, ज्ञान के सागर, चिंतन के उद्गाता॥

*समाप्त*


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