चेतना तीन गतियों में गतिशील रहती है। प्रथम ऊर्ध्वगमन प्रगतिशील- उत्कर्ष। दूसरी जड़ता-यथा स्थिति। तीसरी- अधोगामी, पतित। इन्हीं स्थितियों को स्वर्गलोक-मृत्यु लोक और नरक लोक कहते हैं। जिनके मन में कोई महत्वाकाँक्षा नहीं उठती। खाने सोने की पशु प्रवृत्ति अपनाये रहते हैं। ज्यों-त्यों करके जिन्दगी पूरी करते रहते हैं। वे पशुवत् जीते हैं। उन्हें नर पशु भी कह सकते हैं। परिस्थितियों के झकोरे उन्हें टूटे पत्तों की तरह जहाँ-तहाँ उड़ाते रहते हैं।
जिन्हें प्रगतिशीलता की महत्वाकांक्षा है वे ऊपर उठते और आगे बढ़ते हैं। जड़ता की स्थिति में न उन्हें चैन मिलता है न सन्तोष। मनुष्य से ऊँची स्थिति महामानव की है। ऋषि, देवात्मा, सिद्ध पुरुष, जीवन मुक्ति इसी प्रगतिशीलता के स्तर हैं। यह श्रेय किसी को अनायास ही नहीं मिलता। इसके लिए उच्चस्तरीय पुरुषार्थ करना पड़ता है। आत्म-शोधन और आत्म-विकास के लिए इन्हीं दो प्रयासों को अपनाना और लक्ष्य पूर्ति तक निरन्तर जारी रखना पड़ता है। तीसरी गति अधःपतन की है। प्रयास तो इसमें भी करना पड़ता है पर वह प्रवाह में बहने जैसा नितान्त सरल होता है। समाज में चारों ओर पतनोन्मुखी प्रवृत्तियाँ संव्याप्त हैं। लोग स्वभाव में दुष्प्रवृत्तियां भरते और बढ़ाते रहते हैं। क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिनमें वासना, तृष्णा और अहन्ता की पूर्ति के लिए छूट रहे। कर्तव्य और औचित्य का विचार न करना पड़े। अनीति अपनाने वाले और अपराधी आचरण करने वाले अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में कम समय में लाभ अर्जित कर लेते हैं पीछे क्या परिणाम भुगतना पड़ेगा यह देखने समझने की विवेक बुद्धि नहीं के बराबर होती है। यों ज्ञान चर्चा में कर्मफल की बात उनने पढ़ी-सुनी ही नहीं अनेक बार कही भी होती है। किन्तु उस पर विश्वास नहीं के बराबर होता है। कारण कि सत्कर्मों का-आदर्शवादी गति विधियों का-प्रचलन न होने से अनुकरण प्रिय प्रवृत्ति उसे एकाकी अपनाने में झिझकती है। फिर ऐसे उदाहरण भी सामने कम ही होते हैं जिनमें सन्मार्ग पर चलने वालों ने हाथों हाथ वैसी सफलता पाई हो जैसा कि दुष्ट दुराचारी छल प्रपंच की अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाकर हाथों हाथ अर्जित कर लेते हैं। यों उनके दुष्परिणाम भी होते तो निश्चित रूप से हैं पर सभी भले-बुरे कर्मों का प्रतिफल समयसाध्य होता है। इतनी देर में हुई परिणति की प्रतीक्षा कौन करे? स्मरण कौन रखे?
लोक प्रचलन अनीति की दिशा में है। वह पतन के गर्त्त में जा गिरते हैं। बर्फ पिघलने पर हिमालय का स्वच्छ जल नदी के प्रवाह में गिरकर अधोगामी बनता है और अन्त में नीचे गिरते-गिरते समुद्र के खारी जल वाले खड्ड में जा गिरता है अधः पतन का यही क्रम है। धार्मिक भाषा में इसी को नरक कहते हैं।
पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति सहज ही हर वस्तु को ऊपर से नीचे खींचती है। पानी ढलान की ओर बहता है और क्रमशः नीचे की ओर गिरता जाता है। यह सरल है। इस सरल मार्ग को अपनाकर अनेकानेक प्राणी पतन के गर्त में गिरते हैं। उनकी देखा-देखी मनुष्यों की अनुकरण प्रिय प्रवृत्ति अन्धी भेड़ों की तरह एक के पीछे एक चलती और गर्त में गिरती जाती हैं। प्रचलन बड़ा प्रभावी होता है। वह परम्परागत उचित और सौभाग्य प्रतीत होता है। भले ही वह कितना ही कष्ट कर या असुविधाजनक क्यों न हो? नर पशुओं द्वारा अपनाई गई जीवनचर्या का यही स्वरूप है। उसका अनुगमन करने में कष्ट और झंझट भी सुहाते और अपनाने योग्य प्रतीत होते हैं।
नर-नारी बिना सन्तानोत्पादन किये एक दूसरे के लिए असंख्य गुने उपयोगी हो सकते हैं और समाज के लिए अति महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं। प्रसव की मरण तुल्य व्यथा और सर्वथा अपरिचित प्राणी को घर बुलाकर उसके लिए सामर्थ्य से अधिक श्रम और धन लगाते हैं। विवेक की कसौटी पर बिना प्रचलन का विवाह एक प्रकार के सुख सौभाग्य जैसा है किन्तु लोगों की उलट बुद्धि को देखा जाय कि सन्तान न होने पर दुख मनाते हैं और उस हर दृष्टि के कष्ट कारक उपलब्धि के प्राप्त होने पर फूले नहीं समाते हैं। इसी को कहते हैं लोक प्रचलन। सामाजिक कुरीतियाँ, अवाँछनीय मान्यताएँ, दुष्प्रवृत्तियाँ इस प्रकार चलती हैं। लोग नशा पीते और अपना शरीर, धन, सम्मान, कौशल एवं परिवार अस्त व्यस्त करते हैं। दुष्प्रवृत्तियों की छूत ऐसी ही है वह एक से दूसरे को लगती हैं और पतन पराभव का वातावरण बनाती रहती हैं। नरक इसी अधोगमन को कहते हैं।
धार्मिक भाषा में अलंकारिक रूप से स्वर्ग लोक को ऊपर बताया गया है। मर्त्य लोक वही है जिसमें हम सब बिना उठे गिरे पशुवत् पेट प्रचलन के कुचक्र में दिन गुजारते रहें। यह यथास्थिति ही मर्त्य लोक है। नरक लोक नीचे है। अर्थात् अधोगामी निकृष्टता अपनाने पर निर्भर है। वस्तुतः किसी ग्रह नक्षत्र पर यह लोक नहीं है। उनकी दूरी नहीं नापी जा सकती। यह जीवन की रीति-नीति और दिशा धाराएँ हैं। जिन्हें मनुष्य अपनाता तो स्वेच्छापूर्वक है पर कृत्यों का परिणाम भुगतने के लिए सृष्टि व्यवस्था के अंतर्गत बाधित रहता है।
ऊर्ध्व लोक से तात्पर्य यहाँ उत्कृष्टता से है। इसके हृदयंगम भाव सम्वेदना को-सहृदयता को अपनाना स्वभाव में उतारना और आचरण में समाविष्ट करना पड़ता है। हृदय में भगवान विराजते हैं। इसका तात्पर्य करुणा, उदारता, सद्भावना, शालीनता को कार्यान्वित करना है। इससे भी एकदम ऊर्ध्वलोक की दिशा में मस्तिष्क के अन्तराल में काम करने वाली प्रकाश ज्योति है। दूसरे शब्दों में इस दूरदर्शी विवेकशीलता-दिव्य दृष्टि कहते हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग में ब्रह्म रन्ध्र को शेषशायी विष्णु का और कैलाशवासी शिव का अदृश्य स्थान माना गया है। विवेक को तृतीय नेत्र कहा गया है। इसी क्षेत्र में अतीन्द्रिय क्षमताओं का भण्डार भरा पड़ा है। आज्ञा चक्र को मस्तिष्क भांडागार की चाबी कहा गया है। इस महाकोष में से अभी मनुष्य को सात प्रतिशत का ही अनुभव अभ्यास है। यदि आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा इस क्षेत्र का जागरण, उन्नयन सम्भव हो सके तो सामान्य व्यक्ति का देव पुरुष होना सम्भव है।
दीपक जब ठीक तरह जलता है तब उसकी प्रकाश ज्योति ऊर्ध्वगामी होती और अपने प्रभाव क्षेत्र को ज्योतिर्मय बनाये रखती है। किंतु जब दीपक के पेंदे में छेद हो जाता है तो जिस स्थान पर वह रखा था उसे गन्दला कर देता है। कोई छुए तो उस चिकनाई को हाथ या कपड़े से छुड़ाना कठिन पड़ता है। इतना ही नहीं दीपक के जल सकने की क्षमता आधी चौथाई रह जाती है। जो बत्ती देर तक काम दे सकती है थी पर तेल नीचे रिस जाने पर एक बारंगी जल जाती है और उसकी लपट से पास रखी हुई वस्तुओं में अग्निकाण्ड का खतरा उत्पन्न हो जाता है। देखते-देखते प्रकाश क्षेत्र अन्धकार में डूब जाता है। यह दीपक के पेंदे में छेद हो जाने की दुष्परिणितियाँ हैं। हमारे मस्तिष्क में से प्रज्ञा का तिरोभाव हो जाने से दूरगामी विवेकशीलता घट जाने से ऐसी ही खेदजनक सम्भावनाएँ सामने आती हैं।
चेतना का ऊर्ध्वगमन शरीर के ऊर्ध्वलोक ऊर्ध्व भाग से सम्बन्धित है। इसके तीन कक्ष है। हृदय की सहृदयता, मस्तिष्क की विवेकशीलता यह दो आधार हुए तीसरा है- रसना। जिव्हा पर अंकुश रख रखकर स्वाद जनी जाता है। व्रत उपवास की साधना द्वारा मनोबल बढ़ाया जाता है और शरीरगत जीवनी शरीर शक्ति को आरोग्य एवं दीर्घ जीवन प्रदान करने वाली रखा जाता है। मनोनिग्रह की आधी साधना स्वाद जन से हो जाती है और मनोबल अभिवर्धन की आधी यात्रा पूरी हो जाती है। संकल्प और साहस के अभिवर्धन में उपरोक्त तीनों ही क्षेत्र में मिल-जुलकर काम करते हैं। यह ऊर्ध्व लोक की यात्रा है। इसे चेतना का ऊर्ध्वगमन कह सकते हैं।
अधोलोक- नरक यों व्यक्तित्व के साथ जुड़े हुए गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित है। पर यदि काय विभाजन के अनुरूप वर्गीकरण किया जाय ता नाभि क्षेत्र को मर्त्य लोक कहा जायेगा। पेट और प्रजनन तक सीमाबद्ध रहना और पशु प्रवृत्ति का परिचायक है। जिनका कोई आदर्श उद्देश्य या लक्ष्य नहीं है। उन्हें प्रकृति प्रेरणा से दो कार्यों में निरत रहना पड़ता है। जन्म के साथ ही क्षुधा की प्रेरणा साथ आती है और जिस-जिस प्रकार पेट भरना पड़ता है। इसके उपरान्त किशोरावस्था आते-आते यौवन की सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते यौनाचार की उमंगें उठती हैं और जोड़ी ढूंढ़ने तथा गर्भाधान का ताना-बाना बुनने की प्रक्रिया चल पड़ती है। समस्त प्राणियों को शरीरगत श्रम के लिए भूख का और दिमाग में मधुर कल्पनाओं का सरंजाम जुटाने के लिए काम-क्रीड़ा के लिए दिमाग पर जोर देना पड़ता है। समस्त जीवधारी विभिन्न प्रकार की गतिविधियां इन्हीं दो प्रयोजनों के निमित्त करते देखे जाते हैं। यह प्रकृति प्रेरणा है जो समस्त जीवित प्राणियों में पाई जाती है। इसी में नर पशु की जिन्दगी भी कट जाती है। इसलिए इसे प्राणि लोक या मनुष्य लोक कहा गया है।
अधो लोक में मल मूत्र के छिद्र आते हैं। अधिक खाने और मद्य माँस वाले इन दोनों को भी रुग्ण कर लेते हैं। पेचिश, अपच जैसे रोग घेर लेने पर मल त्याग की स्वाभाविक क्रिया में बाधा पड़ती है। बहुमूत्र, मधुमेह, सुजाक, पथरी जैसे मूत्र रोग भी एक प्रकार से अधोलोक हैं। इनके वेग न रुकने पर वस्त्र बिस्तर खराब होने और दुर्गन्ध से कुरुचि उत्पन्न का घिनौनापन देखा जाता है। यौनाचार भी इसी क्षेत्र की क्रिया है। उसका प्रभाव मस्तिष्क तक धावा बोलता है तो अगम्यागमन, व्यभिचार, बहुमैथुन, कामुक चिन्तन आदि के उद्देश्य सिर पर सवार रहते हैं और उसे मानसिक कामाचार के फलस्वरूप मनुष्य खोखला होता जाता है। मानसिक विशेषताएँ- विभूतियाँ एक-एक करके विदा होने लगती हैं और उच्च स्तरीय चिन्तन के अभाव में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षट् रिपु श्रृंखलाबद्ध अथवा व्यतिरेक क्रम से मनुष्य पर आरूढ़ होने लगते हैं। उनके आवेश उद्विग्नता की आग में जलाते रहे हैं और परिणाम चित्र-विचित्र स्तर की नारकीय यातनाएँ प्रस्तुत करते रहते हैं। अपने शरीर में भी तीनों लोक हैं। उसमें से क्या चयन करना है यह मनुष्य की अपनी इच्छा के ऊपर निर्भर है।