क्रियायोग के चार विधान

December 1985

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कायिक और मानसिक, बहिरंग और अन्तरंग के अतिरिक्त योग त्रिवेणी की तीसरी धारा है− क्रिया योग। इसमें शरीर और मन के अतिरिक्त ऐसा भी कुछ करना पड़ता है जो रहस्यमयी अतिरिक्त शक्तियों को प्रसुप्त से जागृति की स्थिति में ला सके। अतीन्द्रिय क्षमताओं को सशक्त एवं सक्रिय कर सके। इसी को क्रियायोग कहते हैं। इसके भी चार चरण हैं− अर्चना, जप, ध्यान और प्राणायाम।

अर्चना प्रतीक की स्थापना और उपचार पदार्थों से उसका पूजन वंदन है। प्रतीक रूप में इष्ट की कोई प्रतिमा बनानी पड़ती है। मुसलमान काबा में रखें ‘संगे असवद’ का बोसा लेते हैं। विभिन्न देशों के अपने−अपने झण्डे होते हैं और उन्हें देशभक्ति की भावना से फहराया और नमन किया जाता है। लेनिनग्राड में लेनिन के मृत शरीर को प्रतिष्ठापित किया गया है और विश्व भर के कम्युनिस्ट उसकी झाँकी करने पहुँचते हैं। यह उनकी मनःस्थिति है जिनका ईश्वर से कोई सीधा वास्ता नहीं। प्रतीक पूजा में एकलव्य के मृतिका विनिर्मित द्रोणाचार्य और मीरा के पाषाण रूप गिरधर गोपाल की चर्चा होती है। जिन्हें श्रद्धा का दृश्यमान केन्द्र के रूप में गढ़ा गया था और उनके सहारे भावनाओं के उभार में समुचित सहयोग लिया गया था।

सामान्यजनों को भी कोई न कोई यज्ञ प्रतीक बनाना होता है। निराकारवादी भी प्रकाश ज्योति−किसी ग्रन्थ या शरीरधारी गुरु को माध्यम बनाते हैं और उसके सम्मुख नमन−वंदन ही नहीं, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि से अर्चन करते हैं। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का यह सरल मार्ग है। उनके लिए भी यह उपयुक्त है जो इंद्रिय प्रधान है जितना तत्वज्ञान की भूमिका का अभी उत्थान नहीं हुआ है। यह साकार पूजा है। मन्दिरों की संरचना और मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा इसी बहुसंख्यक बाल वर्ग के निमित्त हुई है। तत्वज्ञानी होने पर भी इसे अपनाये रहना आवश्यक है। क्योंकि उनके अनुकरण से अन्य अनेकों को भी उपासना का अवसर मिलता है और इससे श्रद्धा ने सही मान्यता का भाव तो जगता ही है। परिवार में छोटे−बड़े वर्ग के विभिन्न लोग रहने से−उन्हें इस प्रतिमा पूजा के माध्यम से नमन वन्दन का अवसर मिलता है जो प्रकारान्तर से किसी न किसी रूप में आस्तिक भावनाओं के पोषण में सहायक ही होता है।

इसके अतिरिक्त दूसरा चरण है−ध्यान। ध्यान अन्तरंग में कोई प्रतिमा स्थापित करके उसके साथ घनिष्ठता−तन्मयता स्थापित करने को कहते हैं। साकारवादी किसी प्रतिमा, देवालय, नदी, सरोवर, बर्तन, दीपक, सूर्य आदि का जो रुचिकर लगता हो उसका ध्यान कर सकते हैं। इसमें आँखें बन्द रखनी पड़ती हैं और कमर सीधी। सुखासन या कमलासन पर स्थित। हाथ गोदी में। यह ध्यान मुद्रा है। इसे अपनाते हुए इष्टदेव का ध्यान किया जाता है और उसके साथ तद्रूप होने की भावना परिपक्व की जाती है। दीप पतंग की तरह। यह द्वैत को मिलाकर अद्वैत स्थिति में पहुंचने की साधना है−समर्पण की।

गायत्री के साकार उपासकों को कहा जाता है कि वे छोटे बालक की तरह माता के अंचल तले बैठे और स्तनपान जैसा आनन्द लें। निराकारवादियों को कहा जाता है कि वे प्रातःकाल के उदीयमान सूर्य, सविता का ध्यान करें और इस अनुभूति को परिपक्व होने दें कि उनके बलवत् नग्न शरीर पर सविता की किरणें आच्छादित एवं प्रविष्ट होती चली जाती हैं। स्थूल शरीर में बल, सूक्ष्म शरीर में ज्ञान और कारण शरीर में दिव्य भाव के रूप में अपनी जड़ें गहरी जमाती चली जाती हैं। इस प्रकार की कल्पना ही नहीं साथ ही भावना भी करनी चाहिए। कल्पना में किसी दृश्य का आभास भर दिव्य चक्षुओं से होता है, किन्तु भावना में उस प्रकार की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है। अपने आप को विश्वास ही नहीं अनुभव भी वैसा होता है। यह अनुभव जितना−जितना सघन होता जाता है उसी अनुपात से वह चेतना का अंग बताया जाता है और अनुभव होता है कि वस्तुतः वैसा होने लगा। आदित्य की ऊष्मा और आभा अपने व्यक्तित्व को तपाने लगी और अपनी स्थिति एक सीमित सूर्य जैसी हो गई। अन्य सम्प्रदायों में अन्य प्रकार के ध्यान भी बताये गये हैं। पर उन सब का आधारभूत सिद्धान्त वही है जो ऊपर बताया गया है।

जप क्रियायोग का तीसरा चरण है जो ध्यान के साथ ही चलता है। ध्यान और जप को विलग कर दिया जाय तो शरीर और मन में से एक का काम मिलेगा और दूसरा छुट्टल रहने अनगढ़ क्रिया करने लगेगा। मात्र ध्यान हो तो शरीर को जहाँ−तहाँ खुजाने या कुछ हरकत करने की इच्छा होगी। यदि एकाकी जप हो तो मन छुट्टल रहेगा और वह आकाश−पाताल की कल्पनाएँ करने की घुड़दौड़ लगाने लगेगा अस्तु दोनों का समन्वय ही अभीष्ट है।

जप में गायत्री या अन्य मन्त्र का बार−बार रटन करने से उसकी स्थिति जिह्वा तक सीमित न रहकर अचेतन मन में उतर जाती है और उस मन्त्र के अर्थ एवं भाव के अनुरूप अपनी चेतना ढलने लगती है।

क्रियायोग का चौथा चरण है−प्राणायाम। प्राण को प्राण विद्युत कहा गया है वह चेतन भी है और सर्वव्यापी भी। प्राणायाम विधि से न केवल समुचित मात्रा में साँस भीतर पहुँचती है और फेफड़ों को परिपक्व करती है, वरन् उसका मूल तत्व है कि साधक के संकल्प से विश्वव्यापी महाप्राण की एक बड़ी मात्रा खींची जाती है और वह शरीर के कण−कण में समाविष्ट होती है।

भौतिक विद्युत का आवेश जहाँ भी समाविष्ट होता है वहाँ हलचल हरकत प्रारम्भ हो जाती है। प्राण विद्युत से झटका मारने और अनिष्ट करने जैसा कोई जोखिम नहीं है, पर वह संकल्पपूर्वक खींचे जाने और भीतरी अंग प्रत्यंगों द्वारा अवशोषित किये जाने पर वह एक उत्साह भरा उभार प्रकट करती है। अंगों की निर्बलता निष्क्रियता दूर होती है और नई चेतना का संचार नये सिरे से होता है। यह बैटरी चार्ज करने के समान है। शक्ति समाप्त होने पर बैटरी एक प्रकार से समाप्त हो जाती है और नाम मात्र का प्रभाव परिचय देती है, पर जब उसे चार्जर के साथ जोड़कर नये सिरे से शक्ति सम्पन्न कर दिया जाता है तो वह नई के समान कार्य करने लगती है। प्राणायाम थकान मिटाने का अनोखा तरीका है उससे न केवल शरीर के अवयव सक्षम होते हैं वरन् यह भी होता है कि मनःक्षेत्र में प्रतिभा, प्रज्ञा और मेधा का उदय हो और उस क्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियाँ जागृत होकर सिद्ध पुरुषों जैसी अतीन्द्रिय क्षमताओं का चमत्कारी परिचय दें।

प्राण का निरोध दीर्घ जीवन का अमोघ उपाय है। प्राण धीमा पड़ने पर दुर्बलता आ घेरती है और उसके निकल जाने पर सत्य निश्चित है। किन्तु यदि प्राण निरोध विज्ञान का अभ्यास किया जा सके तो मरण को चिरकाल तक आगे धकेला जा सकता है। प्राणायाम की गति तीव्र कर देने से शरीर में ऊर्जा की मात्रा बढ़ जाती है और उसके सहारे शीत ऋतु में भी कम वस्त्रों में अथवा बिना वस्त्रों के भी रहा जा सकता है।

प्राणायाम की उच्चस्तरीय विधि है− सोहम् साधना। इसमें नादयोग का भी समावेश हो जाता है साँस खींचते समय सो और निकालते समय ‘हम्’ की ध्वनि होती है। इसका श्रवण कर्णेंद्रिय की सूक्ष्म तन्मात्रा के सहारे ही होता है। इस शब्द विन्यास में जब मन लगने लगता है तो न केवल मन की एकाग्रता प्रगाढ़ होती है वरन् आत्मा और परमात्मा के मिलन की सरस अनुभूति भी होने लगती है। ‘सोहम्’ साधना को ‘हंसयोग’ भी कहा गया है। चौबीस अवतारों में एक हंशावतार भी है। पक्षियों में सबसे पवित्र और उत्कृष्ट हंस माना जाता है। हंसयोग की साधना में सोहम् प्राणायाम से जीवात्मा में वे सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैं जो हंस में पाई जाती हैं। नीर, क्षीर विवेक के कारण−सरोवर में से मुक्ता ढूँढ़ निकालने के कारण हंस की प्रशंसा है। ऐसी ही विभूतियों को उपलब्ध करने में सोहम् साधना की प्राणायाम भी मदद करता है।


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