भक्ति में देना ही पड़ता है।

December 1985

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भगवान् का प्रेम जीवन के सत्य को देखता है। भगवान का प्रेम मनुष्य के शिव को देखता है। भगवान का प्रेम आपके जीवन के सौंदर्य को देखता है। आप परमात्मा की अभिव्यक्ति हैं अतः उनके हो जाने में उनके गुणों का उभार आपके जीवन में होना स्वाभाविक है। गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, ताप्ती, नर्मदा, गोदावरी आदि नदियाँ तब तक स्थल खण्ड में इधर−उधर विचरण करती रहती हैं जब तक उन्हें नदियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जाता। उनकी शक्ति और सामर्थ्य की तब तक उतनी ही होती है किन्तु जब वे सब मिलकर एक स्थान में केन्द्रीभूत हो जाती हैं तो उनका अस्तित्व समुद्र जितना विशाल, रत्नाकर जैसा सम्पन्न, सिन्धु-सा अनन्त बन जाता है। अपने आपको परमात्मा में समर्पित कर देने पर मनुष्य का जीवन भी वैसा ही अनन्त−विशाल, सत्य, शिव एवं सुन्दर हो जाता है। उन्हें पाकर मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है।

ईसा, मंसूर, शंकराचार्य, रामकृष्ण, दयानन्द तथा अरविन्द आदि अनेकों ईश्वर परायण देवदूत हैं। ईश्वर की कृपा के फलस्वरूप उन्होंने सामान्य व्यक्तियों से उच्चतर सिद्धियाँ प्राप्त कीं। यह ईश्वर उपासना का अर्थ एकाँगी लाभ उठाना रहा होता तो इन महापुरुषों ने भी या तो किसी एक स्थान में बैठकर समाधि से ली होती या भौतिक सुखों के लिये बड़े से बड़े साधन एकत्र कर शेष जीवन सुखोपभोग में बिताते। पर उनमें से किसी ने भी ऐसा नहीं किया। उन्होंने अन्त में मानव मात्र की ही उपासना की। सिद्धि से उन्हें सन्तोष नहीं हुआ तो लौटकर वे फिर समाज में आये और प्राणियों की सेवा को अपनी उपासना का आधार बनाया।

“परमात्मा केवल एकान्तवासी को मिलते हैं और अध्यात्म का अर्थ घरबार छोड़कर योगी हो जाना है” यदि ऐसा अर्थ लगाया जाय तो फिर हमारे ऋषियों की सारी व्यवस्था एवं भारतीय दर्शन की सारी मान्यता ही गलत हो जायेगी। जप, ध्यान या साधना की एक निश्चित सीमा होती है उसके बाद की साधना समाज और विश्व के हित साधन तथा लोक मंगल में जुटने की होती है। ऋषियों ने गृहस्थ में रहकर साधनायें कीं पर उन्हें कोई स्वार्थवादी नहीं कह सकता। वे समाज के हित के लिए अन्त तक लगे रहे।

यह समष्टि से प्रेम का ही प्रभाव है जो पाषाण को भी भगवान् बना देता है। मूर्ति क्या है? पाषाण की एक प्रतिमा मात्र। उसमें अपनी व्यक्तिगत विशेषता कुछ नहीं होती। किन्तु यही साधारण प्रस्तर प्रतिमा तब परमात्मा के रूप में बदल जाती है और वैसा ही प्रभाव सम्पादन करने लगती है, जब भक्तों की प्रेम भावना उसमें समाहित हो जाती है। भक्त का प्रेम पाते ही पाषाण खण्ड अपनी शोभा, आकर्षण, तेज और प्रभाव में सजीव हो उठता है। प्रतिमा पूजन का तत्व−ज्ञान यही है कि परम ब्रह्म, परमात्मा, सामान्य जनों के लिये अज्ञेय और असाध्य होता है। उससे प्रेम किया जा सकता है, उसकी भक्ति भी की जा सकती है, किन्तु यह भावना मानसिक अस्थैर्य के कारण निराधार रह जाती है।

मनुष्य की भावना एक आधार चाहती है, एक ऐसा अवलम्ब चाहती है, जिसका सहारा लेकर वह ठहर सके और अपनी वाँछित दिशा में विकसित भी हो सकते हैं। मानव की भक्ति भावना को आधार देने के लिये ही मूर्ति पूजा का आविष्कार किया गया है। युग−युग से परमात्मा का प्रतीक के रूप में मूर्ति पूजन होता जा रहा है और लोग उस माध्यम से आनन्द और सद्गति पाते चले जाते हैं। इस प्रयोग में एक महान् आध्यात्मिक तथ्य वर्तमान है। वह यह कि जिस किसी में, अपनी भावना का आरोपण कर प्रेम किया जायेगा, वह वस्तु चाहे जड़ हो या चेतन, सजीव हो अथवा निर्जीव व्यक्ति की भावना के अनुसार ही फलीभूत होने लगती है।

मूर्ति पत्थर अथवा धातु की बनी एक निर्जीव प्रतिमा होती है। किन्तु भक्त से परमात्मा की भावना पाकर वह उसके लिए भगवान् ही बन जाती और तद्नुसार ही फल देने लगती है। तथापि मूर्ति में यह विशेषता आती तब ही है, जब भावना के साथ अखण्ड आस्था और अगाध श्रद्धा का भी समावेश हो।

अध्यात्म का मूल मन्त्र प्रेम ही बताया गया है। भक्ति साधना से मुक्ति का मिलना निश्चित है। जिस भक्त को परमात्मा से सच्चा प्यार होता है, वह भक्त भी परमात्मा को प्यारा होता है। उपनिषद् का यह वाक्य ‘रसो वै सः’ इसी एक बात की पुष्टि करता है−परमात्मा प्रेम रूप है, इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है कि जिसने प्रेम की सिद्धि कर ली है, उसने मानो परमात्मा की प्राप्ति कर ली है अथवा जहाँ प्रेमपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी वहाँ परमात्मा का बास माना जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति ही आनन्द का हेतु होता है।

आनन्द प्राप्ति का एक सरल और सुन्दर-सा उपाय यही है कि हम ईश्वर के प्रति जिस त्याग को करना चाहते हैं, उसकी जो सेवा करना चाहते हैं, उसका लाभ उसके अंश संसार के अन्य जीवों को पहुंचायें। संसार के सारे जीवों में परमात्मा का निवास है। उनको दी हुई हर सेवा उस एक ईश्वर को ही प्राप्त होती है। प्राणियों की सेवा ईश्वर की ही सेवा है। और उनके लिए किया हुआ हर त्याग उसके प्रति ही किया गया माना जायेगा।

जिस प्रकार कुएँ में मुंह डालकर आवाज करने से उसी प्रकार की आवाज कुएँ से निकलकर कानों में गूँजने लगती है, उसी प्रकार साधक के हृदय का प्रेम परमात्मा अथवा उसके व्यक्त रूप प्राणियों को प्राप्त होकर पुनः प्रेमी के पास ही वापस आकर उसे आत्म−विभोर कर देता है। इसका यह आशय नहीं कि परमात्मा अथवा प्राणी उसके प्रेम को स्वीकार नहीं करते और वह वैसे है वापस कर दिया जाता है। बल्कि इसका आशय यह है कि जब साधक परमात्मा अथवा प्राणियों को प्रेम करता है तो उनकी ओर से भी प्रेम पाता है। परमात्मा से कुछ पाना हो तो भक्त को देना ही पड़ता है।

अनेक बार लोग देश, राष्ट्र अथवा समाज के प्रति बड़ा प्रेम अनुभव करते हैं। उनका यह प्रेम बात−बात में प्रकट होता है। परमात्मा के प्रति भक्ति−भाव में आँखें भर−भर लाते हैं। कीर्तन, भजन अथवा जाप करते समय धाराओं में रो पड़ते हैं। उनकी यह दशा देखकर कहा जा सकता है कि उन्हें समाज अथवा परमात्मा से प्रेम है। किन्तु वे ही लोग अवसर आने पर उसके लिए थोड़ा−सा भी त्याग करने के लिए तैयार नहीं होते। ऐसे प्रेमी अथवा भक्त जन प्रेम से नहीं भावातिरेक से परिचालित होते हैं। सच्चे प्रेम का प्रमाण है−त्याग। जो अपने प्रिय के लिए सब कुछ सुखपूर्वक त्याग करता है और जो उस त्याग के बदले में रत्ती भर भी कोई वस्तु नहीं चाहता, वहीं सच्चा प्रेमी है, भक्त है।


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