धर्म अपने स्वस्थ स्वरूप में ही वरणीय है।

December 1985

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‘इन्ट्रोडक्शन टू साइन्स’ पुस्तक में विद्वान टी. ए. थाक्सन लिखते हैं कि विज्ञान का लक्ष्य अवैयक्तिक तथ्यों का प्रामाणिक रूप से सत्य की भाषा में सरलता से प्रस्तुतीकरण करना है। एक वैज्ञानिक घटनाओं और दृश्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करता तथा उनमें नियमानुकूलता का पता लगाकर जो निष्कर्ष निकालता है, वही परीक्षण की कसौटी पर खरा उतरने पर एक निश्चित सिद्धान्त अथवा विधि−विधान के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार विज्ञान तर्क पूर्ण निष्कर्षों तथा आनुभविक सूक्ष्म परीक्षणों द्वारा सत्य के निकट पहुँचता है। पर उस निष्कर्ष तथा आविष्कृत सत्य को कभी भी अन्तिम नहीं मानता। प्रयोग में पुनरावृत्ति विज्ञान का आवश्यक अंग है। प्रयोगों की कसौटी पर कसे बिना कोई भी तथ्य स्वीकार्य नहीं होता। किसी ग्रन्थ अथवा व्यक्ति का कथन इसलिए प्रामाणिक नहीं माना जाता है कि वे पुरातन हैं वरन् सत्यता के आधार पर वे प्रामाणिक घोषित किये जाते हैं। सत्यानुसन्धान की प्रवृत्ति के कारण विज्ञान ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है।

आदिम अवस्था में मानव की बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुयी थी। प्रकृति की घटनाओं को वह समझ नहीं पाता था। प्राकृतिक प्रकोपों को वह किसी अविज्ञात शक्ति का−देवी-देवता का कोप मानता था। सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण का लगना, भूकम्प का आना ज्वालामुखी का फटना, तूफान का आना जैसी घटनाओं के प्रति उसकी मान्यता थी कि वे किसी दैवी शक्ति से अभिप्रेरित होती हैं, पर बुद्धि के विकास से प्रकृति के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा बढ़ी। फलतः वे रहस्य अनावृत होते चले गये तथा पुरानी मान्यताएँ भी बदलती गयीं। उन्हें अब प्रकृति की असामान्य घटना भर समझा जाता है।

जिज्ञासा की भावना तथा तर्क की प्रवृत्ति वैज्ञानिक मनोवृत्ति की प्राथमिक शर्त है। किसी वस्तु, घटना अथवा रहस्य को देखकर सहसा ही ‘क्या’, क्यों और कैसे का प्रश्न, उठे, यही वैज्ञानिक मानसिकता है। सत्य एवं तथ्य की खोज में इसी से प्रेरणा मिलती है। प्रचलित सिद्धान्तों, मान्यताओं तथा परिकल्पनाओं में औचित्य का अंश कितना है, इसका निर्धारण इस खोज की मनोवृत्ति से ही हो पाता है। पूर्व मान्यताओं एवं स्वयं के पूर्वाग्रहों का उसमें स्थान नहीं होता। रहस्यों को जानने के लिए उठायी गयी शंकाएँ वितण्डावादी तर्क से अभिप्रेरित नहीं होती वरन् जिज्ञासा से प्रेरित होती हैं। जिज्ञासा से प्रेरित वैज्ञानिक खोज ही महत्वपूर्ण उपलब्धियों का आधार बनता है। विज्ञान कभी भी सिद्धान्तों की सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करता। उसके लिए कोई तथ्य अथवा घटना प्रश्न से परे नहीं होते। क्रिया और प्रतिक्रिया के नियम को मात्र वह शाश्वत मानकर चलता है तथा उनका स्वरूप जानने का प्रयत्न करता है। वैज्ञानिक मनोवृत्ति सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिए मनुष्य को सतत् उत्प्रेरित करती है। अपनी सामर्थ्य एवं उपलब्धियों को कभी भी विज्ञान पूर्ण नहीं मानता। न्यूटन जैसे विज्ञानी तो यहाँ तक कहते हैं कि “ज्ञान के अथाह सागर से कुछ सीपी और घोंघे ही अभी एकत्रित किये जा चुके हैं। गहराई में डुबकी लगाने पर नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने मिलने की भी सम्भावना है।”

ज्ञान को पूर्ण नहीं सतत् विकासशील मानना विज्ञान का नियम है। किसी भी नयी सम्भावना से वह इन्कार नहीं करता। आशावादी भविष्य पर उसका दृढ़ विश्वास होता है। प्रकृति के जिन रहस्यों अथवा घटनाओं को अभी समझा नहीं जा सका है, विज्ञान यह मानकर चलता है कि कल नहीं तो परसों उनके ऊपर के परदे अवश्य उठेंगे तथा यथार्थता सामने आयेगी। आविष्कृत सार्वभौम सिद्धान्तों एवं तथ्यों को जो सर्वमान्य हैं, उन्हें ही विज्ञान प्रामाणिक मानता तथा स्वीकृति देता है। सन्देह पूर्ण आविष्कार मान्यता प्राप्त नहीं कर पाते। भेद खड़ी करने वाली दीवारों को पार करके वह सिद्धान्तों की एकरूपता में विश्वास करता, उन्हें ही मान्यता देता है।


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