अन्तरंग योग की पृष्ठभूमि

December 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साधना वस्तुतः किसी देवी देवता या भगवान की मनुहार उपहार में बदले फुसलाकर मनमर्जी की चीजें पकड़ लेने की जादूगरी नहीं है। अधिकाँश लोग इसी विभ्रम में जहाँ तक भटकते और चित्र विचित्र पूजा पत्री के विधान करते हों तो भी हमें भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं। हमें शास्त्रकारों, आप्तजनों और अनुभवी पथ प्रदर्शकों का सार संक्षेप इसी रूप में अपनाना चाहिए कि साधना का पूरा नाम है जीवन साधना। जो इसके बहिरंग और अन्तरंग पक्षों को परिष्कृत कर लेते हैं, वे ही इस असली साधना के बदले यथार्थवादी सिद्धि प्राप्त करते हैं।

सर्वव्यापी भगवान् एक नियम अनुशासन ही हो सकते हैं। सारी सृष्टि इसी व्यवस्था क्रम में बँधकर अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। जो भी व्यतिक्रम करता है टूटकर चूर−चूर हो जाता है। सृष्टा के सम्बन्ध में हम इतनी मान्यता अटूट रखें और उनका अनुशासन समझें और अपनायें तो समझना चाहिए कि भक्ति भावना की उच्चस्तरीय भूमिका निभ गई।

अब उनके अनुग्रह और वरदानों की बात आती है। यह परमात्मा का नहीं आत्मा का विषय है। हम जितना ही अपने को विकसित परिष्कृत कर लेते हैं उसी अनुपात से सिद्धियों, विभूतियों, सफलताओं और महानताओं को अपनी ओर खींच बुलाते हैं। यह विभाग परमात्मा ने हर आत्मा के जिम्मे छोड़ा है और कहा है वह अपनी इच्छानुसार ऊँचा उठे या नीचा गिरे। परमात्मा किसी को कुछ करने के लिए बाधित नहीं करता। उसका तो व्यवस्थाक्रम ही इस प्रकार चल रहा है कि कोल्हू में ऊपर से तिल या बिनौली जो डाली जाय इसी का उसी गन्ध और स्वाद वाला तेल नीचे निकल पड़ेगा। इस प्रसंग में चापलूसी में फुसलाने और भेंट पूजा में बरगलाने की चतुरता रत्ती भर भी काम नहीं आती। आखिर भगवान मनुष्य जैसा लालची और खुशामदी तो है नहीं। पात्रता के अनुरूप उपलब्धियाँ पाने की ही उसकी सृष्टि में अविच्छिन्न व्यवस्था है।

जीवन के अन्तरंग पक्ष को भी बहिरंग पक्ष की तरह हमें स्वयं ही सँभालना पड़ेगा। इस क्षेत्र का प्रथम चरण यह है कि हम अन्तर्मुखी होना सीखें। अपने भीतर घुसे और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर अपनी त्रुटियों और विशेषताओं को खोजें। त्रुटियों को झटके में या धीरे−धीरे हटाना अपने साहस पर निर्भर है पर वे हटानी अवश्य पड़ेंगी। यही बात विशेषताओं के सम्बन्ध में है वे जितनी कुछ भी हैं उनमें खाद पानी देने और बढ़ाने की चेष्टा दृढ़तापूर्वक करनी चाहिए।

यह कार्य चिन्तन और मनन से सम्पन्न होता है। अन्तरंग की योजनाएँ इसी आधार पर बनती हैं। आमतौर से लोग दूसरों की बुराई देखते हैं और अपने सम्बन्ध में बेखबर रहते या पक्षपात बरतते हैं। अन्तर्मुखी होकर ही यह सुधार परिष्कार, निर्माण या विकास का कार्य किया जा सकता है। इसलिए दिनचर्या में इसके लिए कोई समय और स्थान निश्चित निर्धारित करना चाहिए। समय ऐसा जिसमें एकान्त मिले, स्थान ऐसा जहाँ कोलाहल होने से ध्यान न बटे। ऐसी स्थिति में सुस्थिर बैठकर अपने अन्तरंग की गुफा में प्राण चेतना को घुस जाने और ध्यानपूर्वक भले बुरे का पर्यवेक्षण करना चाहिए।

असंयम ही हमार सबसे बड़ा शत्रु है। उसके चार भाग हैं। इन्द्रिय असंयम। ध्यान असंयम। समय असंयम और विचार असंयम। अपनी दिनचर्या तथा आदतों पर पैनी दृष्टि डालकर यह देखना चाहिए कि इन चार महाशत्रुओं में से किसी ने अपने स्वभाव में घुसकर अधिकार तो नहीं कर लिया। जहाँ जो गड़बड़ी दिख पड़े उसे हटाने और अधिकाधिक संयमी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। सही नीर क्षीर विवेक है यही राजहंस परमहंसों की सराहनीय सत्प्रवृत्ति। यह अभ्यास हर दिन किया जाय। शरीर, वस्त्र, मकान की तरह अपने अन्तराल में इन कूड़े-करकटों का कोई ढेर जमा न होने देना चाहिए। जो कुसंस्कार जम गये हों उन्हें पूरी तत्परता के साथ झाड़-बुहार कर फेंकना चाहिए। यही है अन्तराल की स्वच्छता जिसमें भगवान को बुलाया या बिठाया जा सकता है।

एक बड़ा गुड़−गोबर यह हो गया है कि हमने आत्मा को शरीर में घुला दिया है। शरीर अलग से सोचने और आत्मा अलग से विचारने की चीज है। इसके बिना हम अपने हित और स्वार्थ को भी नहीं समझ पाते। घोड़े पर सोने का साज सजाने और सवार का फटे चिथड़े पहने फिरने जैसा उपहासास्पद है ठीक हमारी रीति−नीति वैसी ही होती है। शरीरगत वासना, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए हम दिन रात खपते हैं यहाँ तक कि अनीति पर भी उतर आते हैं और परिणामतः असह्य दुःखों को सहते हैं।

आत्मा एक कोने में सिसकती रहती है। उसकी भूख जिस आत्मशोधन और पुण्य परमार्थ से हो सकती है उसे जुटाने के लिए न मन होता है और न अवकाश निकलता है। शरीर मजा उड़ाता है और पाप का गट्ठर सिर पर लादकर आत्मा को जाना पड़ता है।

इस अन्तर को अधिकाधिक स्पष्ट करना आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण चरण है। हम जीवन और मृत्यु को साथ−साथ मिलाकर जिएँ। ऐसी पूर्व तैयारी संजोयें जिसमें मरण के समय व्यामोह में और मरने के उपरान्त दुर्गति में न रहना पड़े।

अन्तरंग योग का तीसरा चरण है− समस्वरता। अपनी मनःस्थिति को अविचल बनाये रहना। साँसारिक परिस्थितियों से अत्यधिक प्रभावित न होना। जीवन क्रम के साथ अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ जुड़ी रहती हैं। परिस्थितियों पर किसी का काबू नहीं। लहरों की तरह इस सरोवर में लहरें रहती हैं। रात दिन की तरह परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं। इनसे हर्ष शोक की अतिशय अनुभूति से अपने आपको बचाये रखा जाय। एक का मरण दूसरे स्थान का जीवन है। एक को हानि होती है तो दूसरा लाभ उठाता है। इस उतार चढ़ावे से बचा नहीं जा सकता पर अपनी मनःस्थिति को ऐसे ढाँचे में ढाला जा सकता है कि भावनाओं को अत्यधिक प्रभावित होने से रोका जा सके। अति हर्ष न अति विषाद। यही उपयुक्त है। गीताकार ने इसे स्थिति प्रज्ञा या योगी की स्थिति कहा है। उद्वेगों से अपने को बचाये रहने वाला शारीरिक और मानसिक रोगों से बचता है। निराशा नीरसता उसे नहीं सताती। वह अपने को दीन असहाय अनुभव नहीं करता और अपनी प्रसन्नता को अक्षुण्ण बनाये रहता है। यह बड़ी बात है। महत्वपूर्ण भी। ऐसा ही स्थिर मन उच्चस्तरीय भूमिका अपनाने और ऊर्ध्वगमन कर सकने में समर्थ होता है। आत्म साक्षात्कार के लिए ईश्वर दर्शन के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि है।

अन्तरंग योग का चौथा है अपने संकीर्ण सीमा बन्धनों की विशालता में विकसित करना। संसार को भगवान के विराट् रूप में देखना। अपनत्व को थोड़े व्यक्तियों थोड़े साधनों तक सीमित न रखकर असीम में सुविकसित कर देना। जो जितने थोड़े दायरे में है। अपने ‘स्व’ को बाँधे हुए है वह उतना ही दयनीय है। कूप मण्डूक को छोटे से जलाशय में ही सीमित रहना पड़ता है। गूलर के भुनगे बहुत छोटी स्थिति में अपनी जिन्दगी गुजारते हैं। नाली के कीड़ों को सड़ी कीचड़ में ही गुजारा करना पड़ता है। यही स्थिति उन लोगों की है जो लोभ और मोह के छोटे दायरे में मरते खपते रहते हैं। जिन्हें अपने ही मतलब से मतलब जो न पड़ौसियों की दशा पर दृष्टि डालते हैं और न जिन्हें देश, धर्म, समाज संस्कृति से सरोकार। प्रशंसा के लिए दान का विज्ञापन कर सकते हैं। यों धूर्तों द्वारा मूर्खों द्वारा जेब काटने के जीते जागते उदाहरण बनते हैं। अपनी गतिविधियाँ ऐसे कार्यों तक सीमित रखते हैं जिनसे भले ही प्राणियों का सुख सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन में भले ही राई रत्ती योगदान मिलता है पर उन्हें तीसमारखाँ बनने का अवसर अवश्य मिले। ऐसे ही लोग हैं जिन्होंने बेतुके मन्दिरों, किलों, स्मारकों में विपुल सम्पदा तो लगाई, पर आत्मिक प्रगति के लिए विचारशील उदारता से वस्तुतः वंचित ही बने रहे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118