सत्संग में बैठने का चस्का (kahani)

December 1985

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एक लकड़हारा जंगल से लकड़ियाँ काटता और बेचता था। इस बार उसे मार्ग में एक मन्दिर पर चलने वाले सत्संग में बैठने का चस्का लगा।

उस दिन थक भी गया था, सो लकड़ियों का गट्ठा बाहर रखकर सत्संग सुनने लगा। उस समारोह में विचारशील लोग सम्मिलित होते थे। लकड़ियों से चन्दन की सुगन्धि आती देखकर वे सत्संग समाप्त होने पर बाहर निकले और एक−एक−रुपया देकर एक−एक लकड़ी खरीदने लगे। सो वह गट्ठा देखते−देखते सौ रुपये का बिक गया। अब उसने जाना कि मैं जो लकड़ी काटता था व किस पेड़ की है। मैं जानता ही न था। और न वे खरीददार जानते थे क्योंकि चन्दन के बारे में उनने सुना भी न था।

लकड़हारा अब जलावन के लिए नहीं, सुगन्धित चन्दन के रूप में लकड़ी काटता और साहूकार समुदाय में बेचता। थोड़े ही दिनों में निर्धन से धनी हो गया। सत्संग का विचारशीलों के संपर्क का जो लाभ होता है वह मनुष्य को निहाल कर देता है।


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