ईश्वर भक्ति और नानक देव की बढ़ती लगन को देखकर उनके पिता चिन्तित रहने लगे। उन्होंने सोचा यदि यही स्थिति रही तो यह कभी भी परिवार छोड़कर अन्यत्र जा सकते हैं, इसलिए किसी रोजगार में लगाना उचित है।
दूसरे दिन उन्होंने अपने पुत्र नानक को बुलाकर कहा− ‘‘इधर−उधर भटकने से काम न चलेगा। खाने को तो दोनों समय भोजन चाहिए ही। अब तुम बराबर के हो गये हो अतः दुकान की ओर ध्यान देना चाहिए। तुम आज बाहर चले जाओ। वहाँ से दुकान के लिए सामान ले आओ। हाँ, इतना ध्यान रखना कि सामान अच्छी किस्म का हो और किसी के बहकावे में आकर गाँठ का पैसा भी मत गँवा आना।’’
नानक ने रुपये लेकर कहा− ‘‘पिताजी! आप चिन्ता न करें। मैं सच्चा और खरा सौदा करके ही लौटूँगा।’’ पुत्र का आश्वासन पाकर पिता निश्चिन्त हो गये। उन्हें मार्ग में भगवान का गुणानुवाद गाते हुए कुछ साधु मिले जो कई दिन से भूखे थे। जब नानक को पता चला तो उन्होंने अपनी गाँठ के सारे रुपयों से साधुओं के भोजन की व्यवस्था की। उन्हें भरपेट खाना खिलाया और रात भर उनके साथ रहकर सत्संग किया। दूसरे दिन खाली हाथ घर लौट आये।
जब पिता ने दुकान के माल के सम्बन्ध में पूछताछ की तो उन्होंने सारी घटना का विवरण समझाते हुए कहा− ‘‘धर्म की कमाई सर्वश्रेष्ठ कमाई है। इसका सुफल इस लोक में ही नहीं वरन् परलोक में भी मिलता है। मैं आपसे कहकर गया था कि सच्चा और खरा सौदा करके ही लौटूँगा। अब आप ही बताइए कि भूखे ईश्वर भक्तों को भोजन कराने से भी बढ़कर कौन−सा सच्चा सौदा हो सकता है?’