आवश्यकताओं और इच्छाओं का अन्तर

December 1985

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आवश्यकताओं और इच्छाओं का अन्तर समझा जाना चाहिए। आवश्यकताएं वे हैं जो हमारे जीवन रथ को चलाने में अनिवार्यतः काम में आती हैं, और उन्हें जुटाये बिना जीवित रह सकना सम्भव नहीं होता।

इच्छाएँ वे हैं, जिनके बिना कोई काम रुकता नहीं, पर बड़प्पन जताने और अहंकार बढ़ाने के लिए अकारण ही उन्हें संग्रह किया जाता है। यह संग्रह अस्वाभाविक होने के कारण कष्टसाध्य भी होता है और परिणति में दुःखदायी भी। इनके कुचक्र में फँसकर उन बहुमूल्य सत्कर्मों को कर सकना सम्भव नहीं रहता जो आत्मा को प्रगतिशील और जीवन को महान बनाते हैं। व्यस्तता के रहते वे बच कैसे पड़े? अनावश्यक सम्पदाओं के संग्रह में अनेक तरह के अनाचार अपनाने पड़ते हैं फलतः कुकर्मी जीवन आत्म−प्रताड़ना और लोक भर्त्सना का कारण बनता है।

आवश्यकताएँ वे हैं जो औसत भारतीय स्तर की अन्न, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि को जुटाने के लिए अभीष्ट हैं। उनके लिए हर समर्थ आदमी को श्रम करना चाहिए। छोटे बालकों, अपंगों अथवा जराजीर्णों के अतिरिक्त हर किसी के लिए आवश्यक है कि अपने निर्वाह के निमित्त एक तरह न सही दूसरी तरह से श्रम करे। काम चोर, हरामखोर होकर न जियें। परावलम्बी होकर गुजारा तो विवशता की स्थिति में ही करना चाहिए। और वह सोचते रहना चाहिए कि कब उस लज्जाजनक स्थिति से उबरने का अवसर मिले।

इच्छाएँ एक दुर्व्यसन है−नशेबाजी जैसा। जिन वस्तुओं की सामान्य दैनिक जीवन में आवश्यकता नहीं है। उन्हें क्यों तो संग्रह किया जाय? और क्या उनका अपव्यय करके कुप्रचलन का−दुर्व्यसनों का भागीदार बना जाय। अमीरी, ठाट−बाट, शृंगारिकता, विलासिता के साधनों का जमा करते जाना कभी सौभाग्य और बड़प्पन का चिन्ह रहा होगा पर जब बढ़ती हुई विचारशीलता ने उस मान्यता को निरस्त कर दिया है। अब इस वर्ग की गणना हेयजनों में होती है।

मनुष्य को समय, कौशल एवं अवसर मिला है वह इसलिये है कि अपनी वरिष्ठता तथा दूसरों की सुख−शान्ति बढ़ाने में उपयोग करे। इसलिए नहीं कि दौलत जमा करके ईर्ष्या भड़काये और विग्रह खड़े करे। दीवार खड़ी करने के लिए किसी दूसरी जगह से मिट्टी उठानी पड़ती है और वहाँ गड्ढा बनता है। संसार में भगवान ने इतनी ही सामग्री बनाई है कि सब लोग मिल बाँटकर खा सकें और हँसते−हँसते जी सकें। जो दूसरों की तुलना में अधिक सम्पत्तिवान विलासी बनना चाहते हैं वह अपनी, ईश्वर की और समाज की निगाह में नीचे गिरें।

जीवन सीमित है। मनुष्य की कार्य क्षमता भी मर्यादित है। इस अवसर को किस प्रकार खर्च किया जाय, यह विचारणीय है। कोई चाहे तो गुजारे जितना कुछ ही घंटे के श्रम में ईमानदारी के साथ कमा सकता है और बची हुई सामर्थ्य को ईश्वर के उस उद्यान को सींचने में विश्व वसुधा को समुन्नत करने में लगा सकता है।


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