गुरुदेव की सावित्री साधना के संदर्भ में विशेष लेखमाला−

December 1985

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सावित्री साधना और पंचकोश [यह धारावाहिक लेखमाला गुरुदेव की 2 वर्ष की एकान्त साधना के सार संक्षेप के रूप में एक वर्ष तक लगातार जारी रहेगी]

आद्य शक्ति के दो पक्ष हैं। एक ज्ञान, दूसरा विज्ञान। ज्ञान में चेतना, विचारणा, भावना, मान्यता एवं आकाँक्षा सन्निहित है। इसका निवास मनुष्य के अन्तराल में है। विज्ञान प्रकृति सम्पदा के विस्तार और इसके इच्छानुसार कार्यान्वित करने की विद्या को कहते हैं। ज्ञान मनुष्य की अन्तः चेतना में समाहित है और विज्ञान इस क्रिया−कौशल के रूप में समझा जाता है जिससे पदार्थों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप ढाला जा सके। यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड और शरीर पदार्थ है। इसको आवश्यकतानुरूप ढालने के कौशल का विकास विज्ञान के रूप में हुआ है। सृष्टा का ज्ञान और प्रकृति का वैभव दोनों मिल−जुलकर इस विश्व की व्यवस्था को बनाते और उसे गतिशील रखते हैं।

पौराणिक गाथा में यह प्रसंग इस प्रकार आता है कि सृष्टि सृजेता ब्रह्मा की दो पत्नियाँ थीं। एक गायत्री दूसरी सावित्री। गायत्री ज्ञान की देवी और सावित्री विज्ञान की अधिष्ठात्री। मनुष्य का काय कलेवर पदार्थ है इसलिए उसकी सत्ता को सावित्री के अंतर्गत लिया जाता है।

ज्ञान मार्ग पर बढ़ने से मनुष्य संयम और संवर्धन का मार्ग प्राप्त करता है। प्रसन्न रहने और प्रेरणा देने की राह प्राप्त करता है। आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करता है। जीवन लक्ष्य की पूर्णता तक पहुँचता है। महामानव, ऋषि, देवात्मा, अवतार की श्रेणी में जा पहुँचता है। प्रत्यक्ष क्षेत्र में आगे बढ़ता है और परोक्ष में ऊँचा उठता है। ज्ञान की गायत्री की गरिमा ऐसी ही है।

विज्ञान द्वारा शारीरिक क्षमता का सही सदुपयोग किया जाता है। काय संरचना में छिपे रहस्यमय केन्द्रों को प्रसुप्त स्थिति से उबारकर जागृत स्थिति में लाकर उन्हें असाधारण रूप से सशक्त बनाया जाता है। लोग व्यवहार में काम आने वाले अनेक कौशलों में विज्ञान ही प्रवीण बनाता है। यही है सावित्री का स्वरूप डडडड कार्यान्वयन।

गायत्री साधना में आत्मशोधन प्रधान है। आत्म-सत्ता पर चढ़े जन्म−जन्मान्तरों के कुसंस्कारों का− जब संपर्क से मिलने वाले दोष दुर्गुणों का निराकरण किया जाता है। मानवी गरिमा के अनुरूप जिस समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की आवश्यकता पड़ती है उन्हें अर्जित किया जाता है। बुद्धि में दूरदर्शी विवेकशीलता−महाप्रज्ञा का−समावेश होता है। डडडड सब विशेषताओं के कारण मनुष्य इसी जीवन में देवोपम स्थिति को प्राप्त करता है। अपनी रीति−नीति और दिशाधारा ऐसी बनती है जिसमें इसी जीवन में देवत्व जैसी गरिमा उपलब्ध हो सके, स्वयं तरे और दूसरों को अपने कन्धे पर बिठाकर पार करा सके।

सावित्री साधना से शरीरगत अलौकिक शक्तियों को प्रसुप्ति से ऊँचा उठाकर जागृति में लाया जाता है और यह जागरण इतना महत्वपूर्ण सिद्ध होता है कि उसके सहारे दृश्य जगत को अनुकूल बनाया जा सके। इन उपलब्धियों को सिद्धियाँ कहते हैं। सौर मण्डल की समस्त क्षमताएँ सूक्ष्म रूप से परमाणु में विद्यमान है। परमाणु की गतिविधियाँ और क्षमताएँ संक्षिप्त रूप में वही होती हैं जो परमाणु में पाई जाती हैं। ब्रह्माण्ड का समस्त समीकरण पिण्ड में विद्यमान है। किन्तु साधारणतया मनुष्य को इतनी ही स्वाभाविक क्षमता प्राप्त होती है कि अपनी जीवनचर्या की गाड़ी किसी प्रकार घसीट सके। इसके अतिरिक्त विश्व परिस्थितियों को मोड़ने मरोड़ने की आवश्यकता समझी जाती है तो उसे उस विज्ञान का आश्रय लेना पड़ता है, जिसे सावित्री कहते हैं।

विज्ञान के अनेक प्रयोजनों के लिए अनेकानेक यन्त्र उपकरण बनाये और आविष्कार किये हैं। उन सभी की मूल सत्ता काया में सन्निहित अनेकों सूक्ष्म केन्द्रों में समाहित होती है। वह चाहे तो प्रयत्नपूर्वक उन्हें सक्रिय सक्षम कर सकता है और काया को ऐसी प्रयोगशाला में परिणित कर सकता है और काया को ऐसी प्रयोगशाला में परिणित कर सकता है जिसमें वैज्ञानिकों द्वारा विनिर्मित सभी यन्त्र उपकरणों की सत्ता उभर सके और वे ही कार्य कर सके जो विज्ञान क्षेत्र के मूर्धन्य अपने शोध प्रयासों से सम्पन्न करते हैं।

आद्य शक्ति की दो प्रकार की प्रतिमाएँ पाई जाती हैं। इनमें एक मुख, दो भुजा, हाथ में कमण्डलु, माला, वाहन हंस−यह ब्राह्मी शक्ति है। इसे गायत्री कहते हैं। एक दूसरे प्रकार की छवि पंचमुखी प्रतिमा या चित्र रूप में मिलती है। इसे सावित्री कहते हैं।

गायत्री का वाहन हंस है। हंस अर्थात्− राज हंस, परमहंस, नीर−क्षीर विवेक कर सकने वाला, मोती चुगने, कीड़े आदि न खाने वाला व्रतशील। माला से उपासना और पुस्तक से स्वाध्याय का−सत्संग का−मनन चिन्तन का भाव है। मातृ शक्ति की यही प्रतिभा है। मानवी गरिमा की वह अधिष्ठात्री है, इसलिए उसकी एक दिशा धारा, एक प्रतिपादन के रूप में एक मुख है।

सावित्री का वाहन कमल है। कमल अर्थात् प्रसन्नता। सुख साधनों की बहुलता। उसके पाँच मुख हैं। शरीर पाँच तत्वों का बना है और उसका मानस चेतन पाँच प्राणों के समन्वय से बना है। सावित्री की दस भुजाएँ अर्थात् काया में सन्निहित दसों इन्द्रिय। इन्द्रिय शक्ति से ही काया अपने विभिन्न कार्य सम्पन्न करती है। आयुधों में भी ऐसे यन्त्र उपकरणों का चित्रण है जो लौकिक प्रगति एवं संघर्षशीलता के लिए काम आते हैं।

गायत्री प्रधान है क्योंकि सद्ज्ञान हस्तगत होने से मनुष्य ऐसा व्यक्तित्व उपलब्ध करता है जो यदि सम्पदा क्षेत्र की ओर ध्यान दे तो अपने या दूसरों के लिए विपुल वैभव उपलब्ध कर सकता है। किन्तु सावित्री का क्षेत्र विज्ञान की सीमा साँसारिक उपलब्धियों तक सीमित है। आवश्यक नहीं कि वैभव सम्पन्न व्यक्ति सद्ज्ञान का भी धनी हो। इसलिए उसे गौण माना गया है। व्यक्तित्व में आत्मा प्रमुख है और शरीर गौण। इसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण से गायत्री को प्रमुख और सावित्री को गौण माना जाता रहा है। फिर भी उपास्य दोनों हैं। दोनों ही की अपने-अपने स्थान पर आवश्यकता रहती है। इसलिए समन्वयवादी साधक दोनों का ही प्रयोग करते और यथासमय उनकी क्षमताओं को कार्यान्वित करते हैं।

बाल्मीकि रामायण में प्रसंग आता है कि विश्वामित्र राम लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के बहाने अपने आश्रम में ले गये थे। वहाँ उन्हें बला और अतिबला विद्याएं सिखाई। यह दोनों सावित्री और गायत्री के ही दूसरे नाम हैं। एक के माध्यम से उन्होंने लंका में दुर्घर्ष असुरों को परास्त किया। दूसरी की शक्ति से उन्होंने सतयुग को त्रेता में वापस बुलाया। रामराज्य- धर्मराज्य की सतयुगी स्थापना की। इस प्रकार दोनों ही विद्याएं दो भिन्न प्रकार के प्रयोजनों में काम आईं और असाधारण प्रयोजनों की पूर्ति में सफल रहीं।

इन पंक्तियों में प्रधानतया सावित्री विज्ञान की चर्चा की जा रही है और बताया जा है कि उसके पाँच मुख शरीर रचना में− ब्रह्माण्ड के सृजन में प्रयुक्त हुए पाँच तत्व ये हैं−(1) पृथ्वी (2) जल (3) अग्नि (4) वायु (5) आकाश। इसी प्रकार मनःसंस्थान का सूत्र संचालन करने वाले पाँच प्राण हैं−(1) प्राण (2) अपान (3) ध्यान (4) उदान (5) समान। इन्हीं सबके समन्वय से मनुष्य जीवन की गाड़ी चलती है। इनमें सन्निहित रहस्यों को जाना और क्षमताओं को काम में लाया जा सके तो मनुष्य ऋद्धि−सिद्धियों का धनी हो सकता है।

पाँच की गणना में कई पक्ष आते हैं। पाँच देवता−(1) सूर्य (2) गणेश (3) ब्राह्मण (4) विष्णु (5) महेश। पंचरत्न प्रसिद्ध हैं। देवार्चन में पंचामृत का प्रयोग होता है। ज्योतिष का आधार पंचांग है। जड़ी−बूटियों में से अधिकांश के पाँचों अंग मूल, त्वक्, पत्र, पुष्प, फल ही काम में आते हैं। पाँच ज्ञानेंद्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विभूतियाँ, पाँच सम्पदाएँ प्रख्यात हैं। सावित्री साधना में पंचकोशों के अनावरण का विधान है। कुण्डलिनी जागरण में षट् चक्रों का वेधन करना होता है एवं कोश साधना में पाँच कोशों का। चक्रों और कोशों में राई रत्ती भर का अन्तर है। कुण्डलिनी जागरण, प्रचण्ड ज्वालमाल का प्रज्वलन है और पंचकोशी साधना में आवरणों को हटाते हुए शक्ति स्रोत तक पहुँचने का विधि−विधान। आज्ञाचक्र के सम्बन्ध में छः और पाँच का मतभेद इसी प्रकरण से होता है। कुण्डलिनी का उद्भव मूलाधार से होता है। वह इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना मार्ग से होती हुई सहस्रार मस्तिष्क मध्य तक समाप्त हो जाती हैं। इस मेरुदण्ड मार्ग में पाँच चक्र ही पड़ते हैं। आज्ञाचक्र भ्रूमध्य भाग में है। वहाँ मेरुदण्ड का अधिकार क्षेत्र नहीं है। इस विवाद में ही षट्चक्र और पांच कोश की विसंगति हो गई है। दूसरे कुण्डलिनी हठयोग है, वह बिजली का खेल है। उसमें चूक पड़ने पर जोखिम उठानी पड़ सकती है। पर पंचकोश अनावरण सौम्य है। वह छिलके व कपड़े उतारने की तरह है। एक−एक करके कोट, जाकेट, कुत्ता स्वेटर, बनियान उतरते चले जाएँ तो इसमें समय भर लगेगा। किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका नहीं है। कुण्डलिनी आग, बारूद, बिजली, चुम्बक, रेडियम जैसे पदार्थों का कार्यान्वयन है। उसमें अधिक सतर्कता, तत्परता एवं अनुशासन की जरूरत है। जबकि केले के तने के परत उतरते जाने में, प्याज के छिलके हटाते जाने में किसी बड़ी प्रवीणता की आवश्यकता नहीं है।

आत्म−ज्योति के ऊपर पाँच आवरण दोष−दुर्गुणों के, कषाय कल्मषों के, कुसंस्कारों के चढ़े हुए हैं। उन्हें हटाते रहा जाय तो जो प्रकाश पहले धुँधला प्रतीत होता था, वही अब स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। यही आत्मदर्शन या ब्रह्म साक्षात्कार है। इस स्थिति तक पहुँचने के उपरान्त और कुछ करना शेष नहीं रह जाता।

पंचकोशों में (1) अन्नमय (2) प्राणमय (3) मनोमय (4) विज्ञानमय (5) आनन्दमय कोष की गणना होती है। इनके जागरण के लिए पाँच प्रकार की प्रत्यक्ष और परोक्ष साधनाएँ करनी पड़ती हैं।

अन्नमय कोश में आहार शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है ताकि उससे बनने वाला शरीर पवित्र और प्रखर बनता जाय। इसके लिए व्रत उपवासों का आश्रय लेना पड़ता है। सीमित और सात्विक आहार पर रहना पड़ता है। आसन−स्तर की व तीर्थयात्रा जैसी शरीर से सम्बन्धित साधना करनी पड़ती है। आसनों में इस प्रयोजन के लिए शवासन या शिथिलीकरण मुद्रा का अधिक महत्व है।

प्राणमय कोश में प्राणों का निग्रह नियन्त्रण मुख्य है। शारीरिक विद्युत को प्राण कहते हैं। इसके लिए संयम साधना करनी पड़ती है। इन्द्रिय निग्रह की कड़ाई करनी पड़ती है। शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ता है। बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को अन्तर्मुखी करना पड़ता है। प्राणायामों में से अपनी स्थिति के अनुरूप किसी प्राणायाम को चुनना होता है। इसके लिए प्राणाकर्षण प्राणायाम अधिक सरल और सुविधाजनक पड़ता है।

मनोमय कोश के अनावरण करने के लिए मन की एकाग्रता से सम्बन्धित साधनाओं की आवश्यकता पड़ती है। एकाग्रता साधन के लिए त्राटक साधना का विशेष महत्व है। उसमें मन की भाग-दौड़ को किसी एक केन्द्र पर केन्द्रित करना पड़ता है। चिन्तन की भगदड़ को पकड़कर एक खूँटे से बाँधना पड़ता है। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन के अभ्यासों में भी मन रुकता है और एकाग्रता की स्थिति बढ़ती जाती है।

विज्ञानमय कोश के अंतर्गत विशेष ज्ञान, तत्व ज्ञान, आत्म-बोध की स्थिति अन्तःकरण में पैदा करनी पड़ती है। लोग अपने को शरीर मात्र समझते हैं और आजीवन उसी के लिए मरते खपते रहते हैं। इस दलदल में से निकलकर अपने शुद्ध स्वरूप का जीवन सम्पदा के स्वरूप एवं सदुपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है। इसके लिए प्रातः उठते ही नया जीवन और सोते समय उसके अन्त का अभ्यास सर्वसुलभ है।

सोहम् साधना में आत्म-बोध का पुट है। नादयोग से ईश्वर का वाणी, पुकार, निर्देशन को सुनने का अवसर मिलता है। शरीर और आत्मा की विभिन्नता अनुभव करते हुए आत्मा के लिए क्या किया जाना चाहिए इस पर ध्यानस्थ होकर विचार करना होता है। तब संसार के पीछे दौड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वरन् अपने को जागरूक प्रहरी मानकर दूसरों की सुरक्षा के लिए सतर्क करने वाला मार्गदर्शन करना पड़ता है।

आनन्दमय कोश में इस समस्त संसार को भगवान का विराट् स्वरूप मानते हुए उसे सुविकसित बनाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। परब्रह्म की सत्ता को अपने ब्रह्मरन्ध्र सहस्रार में प्रकाश ज्योति की तरह अनुभव करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए खेचरी मुद्रा भी दिव्य रसास्वादन का अवसर प्रदान करती है। योग निद्रा अथवा समाधि अवस्था में भी अद्वैत भाव स्थापित करना पड़ता है। दिव्य चेतना के प्रति समर्पित होना पड़ता है। अपनी महत्वकाँक्षाओं को छोड़कर दिव्य चेतना के निर्देशन एवं अनुशासन का पालन करने के लिए तत्पर होना पड़ता है।

ये साधनाएँ यहाँ तो अपने सर्वसुलभ रूप में दी गयी हैं एवं सभी सुविधानुसार नियमित, समय निकालकर करनी होती हैं। फिर भी यह सन्देहास्पद रह जाता है कि कौन व्यक्ति किस स्तर की, कितनी देर किस क्रम से साधना करें। इससे ऊँचे स्तर की साधना के सोपान तो अत्यन्त रहस्यमय हैं। उनके लिए साधक की मनःस्थिति और परिस्थिति की जाँच पड़ताल करने की आवश्यकता होती है। यह कार्य कोई अनुभवी एवं इस क्षेत्र का प्रवीण पारंगत व्यक्ति ही कर सकता है। इसलिए अन्य साधनाओं की भाँति पंचकोशी गायत्री साधना के लिए सावित्री विज्ञान का अध्यवसाय आरम्भ करने के लिए कुशल मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। रोगी की स्थिति देखकर जिस प्रकार चिकित्सक को उपचार का निर्धारण और परिवर्तन करना पड़ता है, उसी प्रकार अध्यात्म क्षेत्र में परिशोधन और उत्कर्ष का प्रयोजन सिद्ध करने में उपयुक्त स्तर के मार्ग दर्शक की आवश्यकता पड़ती है। (क्रमशः)


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