आत्मवत् सर्व भूतेषुः (kahani)

December 1985

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आत्मवत् सर्व भूतेषुः का सन्देश देने वाले स्वामी रामतीर्थ अमेरिका पहुँचे। जहाज सान फ्रांसिस्को बन्दरगाह पर रुका। जहाज खड़ा होते ही सभी यात्री जल्दी−जल्दी अपना सामान सँभालने लगे। सबमें उतरने की जल्दी और उत्सुकता दिखाई देने लगी। जहाज में एक तरफ एक व्यक्ति शान्त भाव से डैक पर खड़ा था, उसके चेहरे पर कोई घबराहट दिखाई दे रही थी और न ही उतरने की उतावली उसे कुछ देर तक एक अमेरिकन व्यक्ति देखता रहा और अन्त में बोला− ‘‘क्यों महाशय, आपको यहाँ नहीं उतरना है क्या? अपना सामान क्यों नहीं सँभालते?’’

व्यक्ति स्वाभाविक मुस्कराहट की मुद्रा में प्रत्युत्तर देते हुए बोला− ‘‘मेरे पास कोई सामान नहीं है।’’ तो पास में पैसे तो होंगे ही, जिससे खाने−पीने का काम चलता होगा। यह तुरन्त दूसरा प्रश्न हो उठा। ‘‘मैं अपने पास पैसे भी नहीं रखता।’’ तब तो यहाँ कोई आपका मित्र होगा, जिसके यहाँ ठहरना होगा। यह युवक का तीसरा प्रश्न था। स्वामी रामतीर्थ में प्रचण्ड आत्मविश्वास था और सबमें अपनी ही आत्मा देखने का आत्म−भाव भी। इसी आधार को लेकर तो वे इतनी लम्बी यात्रा आरम्भ कर रहे थे।

स्वामी जी युवक को प्रत्युत्तर देते हुए बोले− ‘‘हाँ, यहाँ हमारा एक मित्र है जिसके यहाँ हमें रुकना है और जो हमारी सब सहायता भी करेगा।’’ वह व्यक्ति कौन है? सच्चे वेदान्ती रामतीर्थ जी हँसे और उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोले− ‘‘आप ही मेरे मित्र हैं।’’


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