मनुष्य की सशक्त प्राण-ऊर्जा

December 1985

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आर्थिक आदान-प्रदान− शरीरगत सेवा सहयोग के सहारे परस्पर एक दूसरे की सहायता करने, मैत्री विकसित करने एवं सद्भावना उपलब्ध करने के अनेकानेक प्रमाण सामान्य जीवन में आये दिन मिलते रहते हैं। छोटे और बड़ों में, मित्र-मित्र में, कई कारणों से, कई प्रकार के आदान-प्रदानों का सिलसिला चलता रहता है।

ऊँचे स्तर पर मनुष्य की एक विशेष क्षमता है− प्राण। यह एक प्रकार की जीवंत विद्युत है। जीवन एवं व्यक्तित्व इसी की न्यूनाधिकता में गिरता उठता रहता है। प्राण की सीमित मात्रा सभी प्राणधारियों को समान रूप से उपलब्ध है। वे शरीर यात्रा के आवश्यक साधन इसी से सहारे जुटाते हैं और यथोचित पुरुषार्थ एवं कौशल विकसित करने में सफल रहते हैं। प्राण ऐसा तत्व है जो हवा की तरह भीतर भी भरा है और समस्त ब्रह्मांड में भी संव्याप्त है। उसकी अतिरिक्त मात्रा प्राणायाम प्राणाकर्षण विधान जैसे उपायों के सहारे अर्जित भी की जा सकती है।

प्राण अपनी सर्वतोमुखी समर्थता के लिए तो आवश्यक है। उसका प्रयोग उपचार दूसरों के हित अनहित के लिए भी किया जा सकता है। योग माध्यम से प्राणोचार का प्रयोग प्रायः सदुद्देश्यों के लिए ही होता है। किन्तु ताँत्रिक अभिचार से इसे दूसरों को परास्त करने के लिए प्रहार रूप में भी किया जाता है। शक्ति−शक्ति ही रहेगी। उसका उपयोग किसने किस प्रकार किया यह दूसरी बात है। प्राण मानवी सत्ता की सबसे बड़ी शक्ति है। उसका उपयोग पग−पग पर होता है। जीवन मरण के लिए−समर्थता दुर्बलता के लिए−कायरता साहसिकता के लिए−अवसाद और पराक्रम के लिए प्राणशक्ति की न्यूनाधिकता एवं उत्कृष्टता निकृष्टता ही आधारभूत कारण होता है। बाहरी उपचारों से तो तनिक-सा ही सुधार परिवर्तन सम्भव होता है।

विचार दूर−दूर तक जा सकते हैं। उन्हें पत्रों, लेखों तथा टैप टेलीफोन आदि के माध्यम से अन्यत्र भी भेजा जा सकता है। किन्तु प्राण में यह कमी है कि वह एक सीमित क्षेत्र में ही रहता है। उसका कहने लायक प्रयोग समीपवर्ती परिधि में ही हो सकता है। जैसे−जैसे दूरी बढ़ती जाती है वैसे ही प्राण प्रभाव का क्षेत्र झीना होता जाता है। किन्हीं महाप्राणों की बात दूसरी है जो अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र को−उसमें रहने वाले समुदाय को अनुप्राणित करें। किन्तु सामान्यतया यह सचेतन ऊर्जा जलती आग की तरह निकटवर्ती को ही अधिक प्रभावित करती है। आग से दूर हटते जाने पर उसकी रोशनी भले ही दिखे पर गर्मी में तो निश्चित रूप से कमी ही होती जायेगी। प्राण की प्रकृति भी यही है।

ऋषि आश्रयों में गाय और सिंह निर्भय होकर एक घाट पानी पीते थे। किन्तु उस प्रभाव परिधि से बाहर निकल जाने पर फिर वे ‘आक्रामक आक्रान्त’ की रीति−नीति अपनाने लगते हैं। उसे प्राण शक्ति का सम्मोहन ही कहना चाहिए।

सान्निध्य का प्रभाव क्या पड़ता है इसका सामान्य परिणाम सत्संग और कुसंग के भले−बुरे रूप में देखा जाता है। समर्थों की निकटता असमर्थों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। चोर, जुआरी, लम्पट, मद्य−व्यसनी, दुर्गुणी संपर्क में आने वालों को अपना छूत लगा देते हैं। यह कुसंग हुआ। सज्जनों की− प्राणवान महामानवों की निकटता भर से सहचरों से उन गुणों का एक महत्वपूर्ण अंश अनायास ही हस्तांतरित होता है। इसलिए अधिक समय के लिए सम्भव न होने पर भी लोग महामानवों के निकट तक पहुँचाने का किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ प्रयत्न करते रहते हैं।

दर्शन, प्रणाम, चरण स्पर्श, पैर दबाना आदि से महाप्राणों को भले ही कोई लाभ न मिले पर दुर्बल प्राण उस तनिक से सुयोग तक का लाभ उठा लेते हैं। अधिक घनिष्ठता की तो बात ही क्या? जो पक्ष प्रबल होगा वह दूसरों को अपनी भली−बुरी विशेषताओं से प्रभावित करेगा।

दाम्पत्य जीवन में यह चमत्कार विशेष रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। महात्मा गाँधी का इसी स्तर का अनुदान उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा को मिला था। रामकृष्ण परमहंस की पत्नी माता शारदामणि जो निजी स्तर पर उतनी ऊँची नहीं थीं पर उन्हें अपने पति का न केवल यश, श्रेय वरन् प्राण भी समुचित मात्रा में उपलब्ध हुआ था। ऋषियों की तरह ऋषिकाएँ भी प्रायः उसी स्तर की प्रखरता अपने में धारण किये होती थीं, भले ही उनके विद्या, तपश्चर्या या प्रतिभा निजी रूप से उतनी बढ़ी−चढ़ी न रही हो। सप्त ऋषि मण्डली में वशिष्ठ के समान ही अरुंधती को भी समतुल्य पद मिला था। नारी और नर के मध्य विद्युत संचार की एक प्रकृति प्रदत्त विशेष आकर्षण शक्ति काम करती है। आवश्यक नहीं कि पति−पत्नी के रूप में ही हस्तांतरित हो, वह अन्य रिश्तों से सरलता पूर्वक अग्रगामी होती है। योगी अरविन्द और प्रातः स्मरणीय माताजी की घनिष्ठता लौकिक नहीं अध्यात्म स्तर की ही थी। विवेकानन्द और निवेदिता के रिश्ते भी ऐसे ही थे। मनु की पुत्री इला उन दिनों अपने पिता के दाहिने हाथ का काम करती थी। इनके मध्य भी नेहरू और इन्द्रा जैसी निकटवर्ती आत्मीयता थी। इन उदाहरण में सरदार पटेल और उनकी पुत्री मणिवेन का नाम भी गिनाया जा सकता है। गाँधीजी के आश्रम में उनकी साज सम्भाल करने वाली महिलाएँ अपेक्षाकृत अधिक नफे में रही थीं।

नर और नारी की प्रकृति संरचना की ही ऊपर की पंक्तियों में उल्लेख हुआ तो इसका अर्थ यह नहीं कि नर और नर के−नारी और नारी के बीच−वैध प्रत्यावर्तन हो नहीं सकता या उसमें कुछ विशेष अड़चन पड़ती है। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द, विरजा और दयानन्द, कृष्ण और अर्जुन जैसों की निकटवर्ती घनिष्ठता अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी सिद्ध हुई थी। इस विचार प्रभाव को भी अधिक प्राण प्रत्यावर्तन कहना चाहिए।

इस प्राण प्रवाह को ही कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। उसे प्रचण्ड बनाने का विशेष उपक्रम एवं विधान है। शक्तिपात द्वारा बड़े रूप में और चिकित्सा उपचार की तरह छोटे रूप में इस क्षमता का लाभ एक के द्वारा दूसरे को दिये जाने का प्रावधान है।

स्थूल शरीर से परे मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व अब विज्ञान द्वारा भी प्रामाणित होने लगा है। सन् 1963 से अब तक रूस के वैज्ञानिकों ने इस दिशा में कई सफल प्रयोग किये हैं। वहाँ के एक इलेक्ट्रान विशेषज्ञ सेमयोन किर्लियान ने अपनी वैज्ञानिक पत्नी वैलिण्टाना के सहयोग से फोटोग्राफी की एक विशिष्ट प्रविधि का आविष्कार किया। इस विधि द्वारा सजीव प्राणियों के आस−पास होने वाले सूक्ष्म कम्पनों और देह−ऊर्जा के क्रिया−कलापों का छायाँकन किया जा सकता है।

इन छाया चित्रों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं। पहला प्राकृतिक अथवा भौतिक जो आँखों से दिखाई देता है और दूसरा सूक्ष्म शरीर जिसकी सब विशेषताएँ प्राकृतिक शरीर जैसी होती हैं, पर जो दिखाई नहीं देता। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह सूक्ष्म शरीर ऐसे सूक्ष्म पदार्थों का बना होता है जिनके इलेक्ट्रान ठोस शरीर के इलेक्ट्रानों की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से चलायमान होते हैं। उनके अनुसार सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर से अलग होकर कहीं भी विचरण कर सकता है।

‘द बायोलॉजिकल प्लाज्मा बॉडी’ का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने उसके तत्वों का भी विश्लेषण किया है। बायोप्लाज्मा की संरचना और कार्य विधि का अध्ययन करने के लिए सोवियत वैज्ञानिकों ने कई प्रयोग किए और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बायोप्लाज्मा का मूल स्थान मस्तिष्क है और यह तत्व मस्तिष्क में ही सर्वाधिक सघन अवस्था में पाया जाता है तथा सुषुम्ना नाड़ी और स्नायविक कोशिकाओं में सर्वाधिक सक्रिय रहता है।

शास्त्रकार ने इस शरीर की तुलना एक ऐसे वृक्ष से की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। जिस प्राण ऊर्जा के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने अनुभव किया वह आत्मचेतना नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर के स्तर की ही शक्ति है जिसे मनुष्य शरीर की विद्युतीय ऊर्जा भी कहा जाता है। यह ऊर्जा प्रत्येक जीवधारी के शरीर में विद्यमान रहती है।

मनुष्य शरीर पदार्थ का समुच्चय है उसका मूल स्वरूप ऊर्जामय है। शरीर के इर्द−गिर्द फैला रहने वाला तेजोवलय तथा विचार तरंगों के रूप में आकाश को आच्छादित किये रहने वाला चेतन प्रवाह अपने−अपने स्तर की ऊर्जा का परिचय देते हैं। चूँकि पदार्थ कभी मरता नहीं इसलिए यह मनुष्य की आत्मा न सही, शरीर या पदार्थ भर माना जाय तो भी यह कहा जा सकता है कि मृत्यु के उपरान्त भी ऊर्जा बनी रहती है जिसे अध्यात्म की भाषा में प्राण कहा जाता है।

विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी डा. पेनफील्ड ने मस्तिष्क के अग्रभाग में लगभग ढाई वर्ग इंच लम्बे और 1/10 इंच मोटे एक ऐसे क्षेत्र का पता आज से वर्षों पूर्व लगाया था जहाँ दो काली पट्टियाँ हैं जिन्हें टेम्पोरल कारटेक्स कहा जाता है। ये कनपटी के नीचे मस्तिष्क को चारों और छल्लानुमा घेरे हुए हैं। यही वे पट्टियाँ हैं जहाँ मानसिक विद्युत का प्रवेश होते ही अच्छी−बुरी स्मृतियाँ उभरती हैं। इसी में स्मृतियों के भण्डार भरे पड़े हैं, यदि इनमें विद्युत आवेश प्रवाहित किया जाये तो इतनी सी पट्टी ही उस व्यक्ति के ज्ञात−अज्ञात सारे रहस्यों को उगल सकती है। जिसे भयवश, लोक लज्जा अथवा संकोच वश मनुष्य व्यक्त नहीं कर पाता, जो जन्म−जन्मान्तरों से संस्कार रूप में मनुष्य के साथ संचित बने रहते हैं।

यह पट्टियाँ किसी केन्द्रक तत्व (न्यूकिलक एलीमेंट) से बनी होती हैं। जब इनमें लहरे उठती हैं तो इनसे प्रभावित नलिका विहीन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से एक प्रकार के हारमोन्स निकलते हैं। जो क्रोध, घृणा, कामवासना, भय, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहिष्णुता आदि भावों के जनक कहे जाते हैं। हारमोन्स के कारण ही मनुष्य स्वस्थ या रोगी बनता है। यदि अच्छे गुण होते हैं तो अच्छे हारमोन्स और बुरे गुण बुरे हारमोन्स का द्योतक है। अच्छे हारमोन्स का निश्त्रवण स्निग्धता, हल्कापन, प्रसन्नता, प्रफुल्लता अच्छे विचार उत्पन्न करता है। बुरे हारमोन्स ठीक इसके विपरीत प्रभाव दिखाते हैं।

उदाहरण के लिए डा. पेनफील्ड ने एक व्यक्ति की इस काली पट्टी में विद्युत प्रवाहित की तो वह एक गीत गुनगुनाने लगा जो न तो अमेरिकन था न जर्मनी, उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसे समझ न सका। उस गीत को टैप कर लिया गया और भाषा शास्त्रियों की मदद ली गई तो पता चला कि वह भाषा किसी आदिवासी क्षेत्र की थी और वह गाना सचमुच ही उस क्षेत्र के लोग गाया करते हैं।

इस प्राण ऊर्जा को सम्वर्धन किया जाय, उसे खिलवाड़ में न बखेरा जाय अभी उससे कोई महत्वपूर्ण काम लिया जाय इसी में बुद्धिमत्ता है।


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