संगीत और आत्मोत्कर्ष

December 1985

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वेदकाल के ऋषियों से लेकर अद्यावधि भक्तजनों ने अपनी अनुभूतियाँ प्रायः छन्द बद्ध रूप में ही विनिर्मित की हैं। भक्ति काल के प्रायः सभी साधनारत महामानव या तो कविताएँ रचते रहे हैं, या फिर छन्द−स्वरों में भगवान के गुणानुवाद गाते रहे हैं। महर्षि नारद से लेकर सूर, तुलसी, मीरा, कबीर तक की वही परम्परा क्रमबद्ध श्रृंखला के रूप में चली आई है।

सामूहिक संगीत के महत्व पर डाक्टरों का मत है कि जब कई व्यक्ति एक साथ गाते हैं तो सब लोगों का स्वर प्रवाह एवं आन्तरिक उल्लास मिलकर एक ऐसी तरंग श्रृंखला उत्पन्न करता है, जो वातावरण में मिलकर सबको उल्लसित कर देती है। यही उल्लास अन्तः की सूक्ष्म ग्रन्थियों को उत्तेजित कर रस प्रवाहित होने में सहायक भूमिका निभाता है। रसों वैसः की अनुभूति इसी कारण संकीर्तन, दिव्य संगीत में होती पायी जाती है।

गायन में स्तुति, मंगलाचरण, भगवान का ध्यान, माता का ध्यान, छोटे बच्चों को पास बैठाकर गाना, सजावट और सौंदर्य पूर्ण स्थान जैसे देव मन्दिर, तीर्थ अथवा जलाशयों के किनारे सामूहिक रूप से गाने का प्रयोग और भी प्रभावोत्पादक होता है। प्राचीनकाल में ऐसे अवसरों पर्व−त्यौहार पूजन, तीर्थयात्रा, मन्दिरों आदि में संगीत अभ्यास और गायन की व्यवस्था इसलिये की जाती थी कि उन पर्वों और स्थानों के सूक्ष्म प्रभावों को तरंगित कर उसका भी लाभ उठाया जा सके।

यह समझा जाना चाहिए कि संगीत, मात्र मनोरंजन नहीं है यदि उसे भावनाओं और प्रेरणाओं से सुसज्जित रखा जा सके तो इसका परिणाम न केवल गाने सुनने वालों के लिए वरन् सुविस्तृत वातावरण को श्रेयस्कर परिस्थितियों से भरा−पूरा बनाने में सहायक हो सकता है।

मनुष्य की कोमल भावनाओं को झंकृत, तरंगित करने पर उसमें देवत्व का उदय होता है। इस प्रयोजन की पूर्ति में नादयोग द्वारा शब्दब्रह्म की साधना करना एक उत्कृष्ट योगाभ्यास है। दीपक-राग, मेघ-राग जैसे स्वर ब्रह्म के नगण्य से स्थूल प्रकृति से सम्बन्धित चमत्कार है। सूक्ष्म प्रकृति को तरंगित ओर उत्तेजित करने में उसकी धाराएँ बदलने में भी संगीत का प्रभाव स्वल्प दृष्टिगोचर नहीं होगा। अन्य योगों की साधना का अवलम्बन लेकर जिस प्रकार उच्चकोटि की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं, उसी प्रकार स्वर−योग की साधना से भी उच्च अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश करके दिव्य विभूतियों को करतलगत किया जा सकता है, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड के अन्तराल में नाद−ब्रह्म का गुञ्जन संव्याप्त, उसकी प्रतिध्वनि से पिण्ड की अन्तःस्थिति भी गूँजती रहती है। संगीत की स्वर−साधना इस अव्यक्त गुञ्जन को व्यक्त बनाती है मुखर करती है। गान यदि उच्चस्तर का हो तो अन्तरात्मा की भाव सत्ता को तरंगित करके ब्रह्मानन्द की आत्मानन्द की रसानुभूति करा सकता है।

संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिये एक पृथक वेद की ही रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को कितनी ही तुच्छ हों−भगवान् से मिला सकता है। अब इस सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यतायें भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं।

योग शास्त्रों में संगीत की बड़ी चर्चा है। तत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि अदृश्य जगत् की सूक्ष्म कार्य प्रणाली पर जिधर भी दृष्टि डालते हैं, उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य संगीत से सभी दिशायें और विश्व भवन झंकृत हो रहा है। यह स्वर लहरियाँ वीणा, भ्रमर, झरना, नागरी भेरी, वंशी आदि की तरह सुनाई देती हैं। जिस तरह सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी तरह चित्त उन स्वर लहरियों में आसक्त होकर सभी प्रकार की चपलतायें भूल जाता है। नाद से संलग्न होने पर मन ज्योतिर्मय हो जाता है और जो स्थिति कठिन साधनाओं से भी कठिनाई से मिलती है, वह स्वर योग के साधक को अनायास ही मिल जाती है।

अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिये वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि देव संस्कृति की उपासना पद्धतियों से लेकर कर्मकाण्ड तक में सर्वत्र “स्वर” संयोजन अनिवार्य रहा है। मन्त्र भी वस्तुतः छन्द ही हैं। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि, कोई देवता तो होता ही है उसका कोई न कोई छन्द जैसे युष्टटुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मन्त्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियाँ भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीकोंसी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा उसी तरह अमुक गति, लय और ताल के उच्चारण से ही मन्त्र सिद्धि होगी−यह उसका विज्ञान है।

नादयोग के साधक सूक्ष्म कर्णेन्द्रियों के माध्यम से घण्टा नाद, शंख नाद, वेणु नाद, मेघनाद, निर्झर प्रवाह आदि के रूप सुनने का प्रयत्न करते हैं और उस आधार पर सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में चल रही अगणित गति-विधियों के ज्ञाता बनते हैं। इन स्वर निनादों के साथ जी अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है वह प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने और उसे अपनी अनुयायी−संकेत गामिनी बनाने में सफलता प्राप्त करता है। योगविद्या का अपना स्थान है। स्वरशास्त्र स्वरयोग का साधन विज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान है। नासिका द्वारा चलने वाले सूर्य चन्द्र स्वरों को माध्यम बनाकर कितने ही साधक प्रकृति के अंतराल में प्रवेश करते हैं और वहाँ से अभीष्ट मणि मुक्तक उपलब्ध करते हैं।

विश्व के यशस्वी गायक एनरिकी कारूसो लिखते हैं−जब कभी संगीत की स्वर लहरियाँ मेरे कानों में गूँजती, मुझे ऐसा लगता मेरी आत्म−चेतना किसी असह्य जीवनदायिनी सत्ता से सम्बद्ध हो गई है। शरीर की पीड़ा भूल जाता हूँ भूख−प्यास और निद्रा टूट जाती है, मन को विश्राम और शरीर को हल्कापन मिलता है। मैं तभी से सोचा करता था कि सृष्टि में संगीत से बढ़कर मानव−जाति के लिये और कोई दूसरा वरदान नहीं है।

कारूसो ने जीवन भर संगीत की साधना की। जबकि एक बार एक शिक्षक ने यहाँ तक कह दिया कि तुम्हारा स्वर संगीत के योग्य है ही नहीं। तुम्हारा स्वर लड़खड़ाता है पर निरन्तर अभ्यास और साधना से कारूसो ने संगीत−साधना में अभूतपूर्व सिद्धियाँ पाईं और यह प्रामाणिक कर दिया कि संगीत का सम्बन्ध स्वर से नहीं हृदय और भावनाओं से है। कोई भी मनुष्य अपने हृदय को जागृत कर परमात्मा के इस वरदान से विभूषित हो सकता है।

संगीत से मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है और वह सूक्ष्म सत्ता के भाव−संस्पर्श और अनुभूति की स्थिति पाता है, यह परिणाम अंतर्जगत से सम्बन्ध रखते हैं, इसलिये उस सम्बन्ध में विस्तृत अन्वेषण का क्षेत्र पाश्चात्य जगत के लिये अभी नितान्त खाली है, मस्तिष्क शरीर और वन्य वनस्पतियों तक में संगीत के जीवनदायी प्रभाव को पाश्चात्य विद्वान और वैज्ञानिक भी अब मानने लगे हैं। वस्तुतः संगीत का मनुष्य जीवन को सरस बनाने में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। यदि संगीत का अस्तित्व मिट जाय तो दुनियाँ बड़ी ही नीरस, रूखी और कर्कश प्रतीत होने लगेगी। साधारण पशु की अपेक्षा मनुष्य को आनन्दमयी स्थितियाँ प्राप्त हैं उनमें संगीत साहित्य और कला का बहुत बड़ा भाग है।

इसके अतिरिक्त युवकों के चरित्र निर्माण में संगीत को एक अत्यन्त प्रभावशाली साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अरस्तू कहा करते थे− ‘‘स्वर और लय के योग से कैसी भी भावनायें उत्पन्न की जा सकती हैं।” महाराष्ट्र राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल श्री प्रकाश जी ने एक बार कहा− ‘‘संगीत की शिक्षा स्कूलों में अनिवार्य कर देनी चाहिये। इससे युवक विद्यार्थी में मानसिक एकाग्रता और जागरूकता का विकास स्वभावतः होगा। यह दो गुण स्वयं उसके व्यक्तित्व में अन्य गुणों की वृद्धि करने में सहायक बन सकते हैं।

हमारे प्रत्येक देवता के साथ संगीत का अविच्छिन्न सम्बन्ध होना यह बताता है कि विश्व की सृजन प्रक्रिया में संगीत का चमत्कारिक प्रभाव है। हृषीकेश का पाञ्चजन्य, शंकर का डमरू, भगवान कृष्ण की मुरली, भगवती वीणा−पाणि सरस्वती की वीणा का रहस्य एक दृष्टि से यह भी है कि सृष्टि का प्रत्येक अणु संगीत शक्ति से गतिशील हो सकता है।

देखा जाय तो शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं। इसी कारण संगीत को पिछले युग में धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों का अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी विवाह शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते हैं। हम देखते नहीं पर अदृश्य रूप में ऐसे अवसरों पर प्रस्फुटित स्वर संगीत से लोगों को, आल्हाद, शान्ति और प्रसन्नता मिलती है, लोग अनुशासन में बने रहते हैं।

मिलिटरी की कुछ विशेष परेडों में भी वाद्य यन्त्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अंतर्जगत् एक−सी विचार तरंगों से आविर्भूत हो उठते हैं।

लेकिन स्मरण रहे संगीत की उपयोगिता तभी है जब उसे उच्च उद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। कलाएं दुधारी तलवारें हैं यदि उन्हें पशु प्रवृत्तियां भड़काने के लिए काम में लाया जाय तो वे घातक भी कम सिद्ध नहीं होतीं। इसलिये यह कहा जाता रहा है कि संगीत का उपयोग मात्र आत्मोत्कर्ष के निमित्त किया जाना चाहिए। संगीत से ही इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। संगीत हमारे जीवन का सार है, एक अभिन्न अंग है। इसके सुनियोजन द्वारा आत्मिक प्रगति सुनिश्चित है, इसमें कोई संदेह नहीं।


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