नदियों के तेज बहाव को रोककर उससे नहरें निकाली जाती हैं। बिजली पैदा होती है और दूसरे कई प्रयोजन सिद्ध होते हैं। यदि बहाव को यथावत् बहने दिया जाय तो किनारों की मिट्टी कटेगी और गहराई नीची होती जाने से उस पानी का उपयोग ऊपर के क्षेत्र में न हो सकेगा। बहता पानी समुद्र के खारी जल में जा मिलेगा। पर्वती गहरी नदियों के तेज बहाव से उस क्षेत्र के तटवर्ती निवासियों को कोई लाभ नहीं मिलता वरन् बच्चे, चौपाये आदि के बह जाने का ही खतरा रहता है।
लोक मानस ऐसा ही प्रवाह है जिसमें रूढ़ियां, मूढ़ मान्यताएँ, संकीर्ण स्वार्थपरताओं की तीव्रता रहने से जन शक्ति और सम्पदा का अपव्यय एवं दुरुपयोग ही होता रहता है। जनसंख्या, शिक्षा, सम्पदा बलिष्ठता आदि की वृद्धि के साथ−साथ उनके उद्धत प्रयोग से दुष्परिणाम ही बनते हैं। अनर्थ ही खड़े होते हैं।
इस प्रवाह की रोकथाम करके बाँध की भूमिका निबाहने वाला एक ही वर्ग है। वह है ब्राह्मण। ब्राह्मण अपनी निजी सुख सुविधाओं का विसर्जन करके एक ही चिन्ता और क्रिया में निरत रहता है कि किस प्रकार कुप्रचलनों की रोकथाम हो, किस तरह उद्धत दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगे−और किस प्रकार सत्प्रवृत्ति के प्रचलन में सज्जनता की रीति−नीति में अभिवृद्धि हो−ब्राह्मण का यह एक ही लक्ष, उद्देश्य और धर्म कर्म है।
कभी इस देश में ब्राह्मण परम्परा जीवन्त थी। एक बहुत बड़ा वर्ग इसी निमित्त अपने को समर्पित किये रहता था। वह समाज की शालीनता को सुरक्षित रखने और उसे समुन्नत बनाने के लिए जो कुछ बन पड़ता था सो सब कुछ करता था। इसी उत्सर्ग का प्रतिफल था कि समूचा समाज उत्कृष्टता के शिखर बिन्दु तक पहुँचा रहता था और अनीति का−अनौचित्य का कहीं कोई चिन्ह तक परिलक्षित नहीं होता था।
आज ब्राह्मण परम्परा मिटती जा रही है। उसके दर्शन दुर्लभ हो रहे हैं यही कारण है कि अवाँछनीयताएँ हर दिशा में सिर उठाती और अनर्थ सँजोती दिख पड़ती हैं। बाँध न बाँधें तो अधोगामी प्रवाह की रोकथाम कैसे हो। यदि रोक न लगे तो नहरें निकलने और बिजली घर बनने का सुयोग किस प्रकार सम्भव हो?
यहाँ ब्रह्म शब्द से तात्पर्य किसी जाति या वंश विशेष से नहीं जिस प्रकार बढ़ती जनसंख्या की धूम है। उसी प्रकार अन्य जातियों की तरह ब्राह्मण जाति भी बढ़ रही है। पर इससे क्या प्रयोजन सधा। यहाँ जाति−पाँति के जाल−जंजाल को देखते हुए यह आशा नहीं बँधती कि वे गुण कर्म स्वभाव से भी अपनी पैतृक परम्परा का दायित्व सम्भालेंगे। जो परिकर जिस विशेषता के लिए प्रसिद्ध है यदि वह उसे गँवा बैठे तो फिर ढाँचा ढकोसला ही शेष रह जाता है और उससे आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत नहीं होता।
ब्राह्मण को धरती का देवता माना गया है। उसे अभिवादन प्रणाम सम्मान का उच्चस्तरीय श्रेय दिया गया है। ब्रह्मभोज कराते हुए लोग पुण्य सम्पादन की कल्पना करते हैं। दान दक्षिणा देते समय ब्राह्मण को खोजा जाता है। ऐसा क्यों? जब सभी मनुष्य एक जैसे रक्त−माँस के एक−एक स्वभाव संरचना के हैं तो किसी वर्ग विशेष को श्रेष्ठता क्यों दी जाय? इस प्रश्न का सीध−सा उत्तर है कि उनके लक्ष्य, दृष्टिकोण एवं क्रिया−कलाप को देखते हुए इस प्रकार की वरिष्ठता दी गई है न कि निजी वंश परिवार में जन्म लेने के कारण ऊँच−नीच का निर्धारण हुआ है।
ब्राह्मण का स्वरूप है लोक सेवा में विशेषतया लोकमानस को परिष्कृत बनाने की प्रक्रिया में निरत होने के कारण उसकी उपयोगिता एवं सेवा साधना के उपलक्ष्य में श्रेय देने की परम्परा चली है। इसके साथ ही यह आशा भी की गई है कि वे वही कार्य करेंगे जो उनके पूर्ववर्ती करते रहे हैं। कर्त्तव्य से इन्कार करने पर तो अधिकार भी छिन जाता है। स्वर्णकार को आभूषण बनाने की कला आनी चाहिए और उसकी दुकान में यही सब सरंजाम रहना चाहिए। पर ऐसा कुछ न हो स्वर्णकार हजामत बनाने का धन्धा करने लगे तो फिर वर्ग में उसकी गणना कैसे होगी और आवश्यकता पड़ने पर उसे उस कार्य के लिए कौन पुकारेगा कौन उसके घर जाएगा। व्यवसाय बदल लेने पर तो बिरादरी भी बदल जाती है। पूर्वज भले ही स्वर्णकार रहे हैं पर अब जिसकी हजामत बनाने की दुकान चलती है उसे ‘बारबर’−हज्जाम आदि विशेषणों के साथ ही पुकारा जाएगा।
पूर्वजों की विशेषता के आधार पर कोई अपने बड़प्पन का दावा नहीं कर सकता डॉक्टर, इंजीनियर आदि के लड़के बिना पढ़े हों या कुछ और धन्धा अपनायें तो अपने नाम के साथ पिता वाली पदवी जोड़ने का उन्हें कोई अधिकार नहीं रह जाता। कलाकार का बेटा यदि चपरासी है तो उसे कलाकार की कुर्सी पर जा बैठने का अधिकार किस प्रकार मिल सकेगा। आज के ब्राह्मण अपने वंश की गरिमा का श्रेय उठाना चाहते हैं तो उन्हें तद्नुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए तत्परता दिखानी होगी।
निस्वार्थ लोक सेवा से ही कोई परमार्थी बनता है। पर जिन्होंने मानवी सत्ता की प्राण सम्पदा−विचारणा को निकृष्टता के गर्त्त में न गिरने देने का−स्वच्छ निर्मल बनाये रहने का−ऊँचा उठाने और स्तर को श्रेष्ठतर बनाये रहने का जिम्मा अपने सिर पर लिया है। उसके निमित्त कष्ट सहा और त्याग किया है उसे सहज सम्मान मिलेगा। महानता उपार्जित करने में लोग तपस्वी जीवन जीते, आसमान जितना ऊँचा सोचते और बाजारू श्रमिकों की तुलना में कहीं अधिक श्रम करते हैं उनकी साधना कम से कम लोक श्रद्धा की अजस्र वर्षा तो करेगी ही।
कला कौशल सिखाने वाले तक को अपने विषय का प्रवीण पारंगत बनना पड़ता है। फिर कोई कारण नहीं कि लोग व्यवहार में शालीनता का समावेश करने वाले सर्वप्रथम अपने ही व्यवहार में उन विशिष्टताओं का समावेश किये बिना ही, दूसरों को मात्र प्रवचन देकर ही आदर्शवादिता की रीति−रीति अपनाने के लिए सहमत कर लें।
खिलौने, आभूषण, पुर्जे आदि ढालने के लिए सर्वप्रथम साँचे बनाने पड़ते हैं। जब वे ठीक तरह बन जाते हैं तो उनके साथ सटने वाली मुलायम वस्तुएँ भी ठीक आकार की बनती जाती है। गलाने और ढालने का यही तरीका सर्वथा अपनाया जाता है। अग्रगामियों के पीछे अनुगामी भी चल पड़ते हैं।
ब्राह्मणों को अग्रगामी होना पड़ता है और अनुकरणीय आदर्शों से भरा−पूरा भी। वक्ता ऊँची चोटी पर बैठता है। श्रवणकर्त्ताओं की पंक्ति नीचे रहती है। सामान्य जानकारी देने की बात है तो उस स्तर का लैक्चर कोई भी दे सकता है। किन्तु यदि जीवन को शालीनता के ढाँचे में ढालने तथा लोकहित के लिए कुछ त्याग बलिदान करने की बात हृदयंगम बनाने की अभीष्ट हो तो उसके लिए आवश्यक है कि स्वयं प्रतिपादन को निज के जीवन में चरितार्थ करके दिखाया जाय। संयम और लोक सेवा ही सत्प्रवृत्तियों में गिनी जाती है। धर्म मंच से इन्हीं का उपदेश दिया जाता है। ब्राह्मण जनता का स्तर ऊँचा बनाये रखने का उद्घोष करता है। ऐसी दशा में यह नितान्त आवश्यक है कि उन उत्कृष्टताओं को अपने निज के जीवन में इतनी गहराई तक संस्थापन किया जाय जिसे कड़ी कसौटी लगाने पर भी कोई खोटी सिद्ध न कर सके। ब्राह्मण को उपदेशक ही नहीं निजी जीवन की श्रेष्ठताओं से भरा-पूरा भी रहना चाहिए। (क्रमशः)