जापान में पुरातन काल में ‘शिन्टो’ धर्म का प्रचलन था। उसकी शिक्षायें तो यही थी जो अन्य धर्मों की हैं। धर्म सदाचार का ही समर्थन कर सकते हैं। भले ही कथा पुराणों में उनका छद्म रूप भी ऐसा जोड़ दिया हो जिनसे सामयिक आवश्यकता के अनुरूप उनमें छद्म मिला देने के अपवाद भी जुड़े हुए हैं। सभी धर्म ऐसा करते रहे हैं। चोर दरवाजे ऐसे भी रखे हैं जिनमें अपने विपरीत मतवालों से घृणा की जाय और बलपूर्वक उन्हें अपने धर्म में दीक्षित किया जाय। वस्तुतः विचार स्वातंत्र्य पनपने देने के लिये यह आवश्यक है कि मानवी ऐसे मौखिक अधिकारी को मान्यता दी जाय जो नीति सदाचार से टकराते न हों।
‘शिन्तो धर्म में कट्टरता नहीं है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म का जब उस क्षेत्र में प्रवेश हुआ तो बिना टकराये दोनों एक−दूसरे के साथ मिल गये। सामंजस्य ने दोनों की विशेषताएँ स्वीकार कर लीं। जापान के बौद्ध धर्म पर पुरातन शिन्तो मान्यताओं की गहरी छाप है। यदि यह प्रयोग अन्य धर्मों में ही हुआ होता तो धर्मों के कारण जो विलगाव उत्पन्न हुआ है और रक्तपात एवं छल छद्म अपनाये गये हैं उनकी कहीं कोई जरूरत न पड़ती।
शिन्तो धर्म की अतिरिक्त विशिष्टता यह है कि उसमें जापानियों को सूर्य पुत्र कहा है। उस क्षेत्र के निवासियों को अपने पूर्वज सूर्य के समान तेजस्वी और गतिशील होने की प्रेरणा दी है। यह मोटा सिद्धांत वहाँ के नागरिकों ने गहराई तक हृदयंगम किया है। इस आधार पर अपना स्वाभिमान ही नहीं चरित्र भी ऊँचा रखा है। व्यक्ति को अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में ऊँची मान्यता रखने से उसकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया क्या होती है, उसे जापान जाकर वहाँ के नागरिकों का भावनात्मक स्तर परखते हुए सहज ही किया जा सकता है।
अन्य धर्मों में आत्मा का उद्गम पतित क्षेत्र से माना गया है। हिन्दू धर्म में चौरासी लाख योनियों में घूमते हुए मनुष्य जन्म पाने पर फिर अपने पाप कर्मों का फल पाने के लिए उसी चौरासी के चक्र में चले जाने की मान्यता है। इसमें मनुष्य की चिरस्थायी सत्ता तो पशु की ही रही। मनुष्य जन्म तो ईश्वर का उपहार भर है। इसमें स्थायित्व नहीं है।
यह मान्यता विकासवादी डार्विन के उस मत से मिलती−जुलती है जिसमें क्षुद्र जल जीवों से धरती के प्राणियों में जीवन का विकास हुआ है और बन्दर से मनुष्य बना है। यदि हमारे पूर्वज बन्दर थे तो फिर उनकी वंश परम्परा अपने स्वभाव में सम्मिलित रहें तो क्या आश्चर्य। पुरातन निर्धारणों की सहज ही जनमानस में उनको मान्यता मिल जाती है और यदि वह गई गुजरी स्थिति है तो फिर पीढ़ियों में प्रखरता आने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।
भारतीय धर्म की वेदान्त मान्यता अपनाने योग्य है, जिसमें आत्मा को परमात्मा का अंश या प्रतीक प्रतिनिधि माना गया है और उसका परिष्कार करके पूर्णता की स्थिति तक पहुँचने के लिए निर्देशन किया गया है।
देवताओं को ऋषियों की सन्तान होने की बात हम अपने गोत्रों के आधार पर ही हृदयंगम कर सकते हैं। साथ ही पूर्वजों की गरिमा रक्षा के लिए अपने आपे को श्रेष्ठतम बनाने की बात भी सोच सकते हैं।