राजा शतनीक बहुत दानी था। किन्तु वह प्रजा के कष्टों के निवारण की ओर समुचित ध्यान न देता था। उसके बाद उसका पुत्र सहस्रानीक राजा बना वह तत्त्ववेत्ता न्यायविद् एवं कर्त्तव्य निष्ठ था किन्तु ब्राह्मणों को दान बहुत कम देता था। एक बार ब्राह्मणों के प्रतिनिधि राजा सहस्रानीक के पास पहुँचे व उसके पिता की दान परम्परा का ध्यान दिलाते हुए उससे भी उसी परम्परा को आगे बढ़ाने का आग्रह किया। सहस्रानीक ने कहा- “यदि परलोक विद्याविद् कोई योगी वह बता सके कि दानशील मेरे पिता इन दिनों उस पुण्य के क्या सुफल पा रहे हैं, तो मैं आप लोगों को अवश्य दान दूँगा। मेरी बुद्धि के अनुसार तो मैं जो न्याय दान कर रहा हूँ वह राजोचित दान है। राजा की बात सुन ब्राह्मणों ने देखा कि ऐसे योगी से संपर्क किया जाय जो स्वर्गीय नरेश का अता−पता बता सके।
बहुत प्रयास के बाद एक आरण्यकवासी तपस्वी ऋषि इस हेतु सहमत हुए। दिव्य शक्ति से सूक्ष्म शरीर द्वारा उन्होंने लोकान्तर भ्रमण किया और वहाँ दिवंगत नरेश शतनीक की स्थिति जानी। नियत समय पर सभा में सबके समक्ष वह विवरण रखना तय हुआ था।
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सभा जुटी। राजा, राज कर्मचारी, ब्राह्मण वर्ग एवं नागरिकगण विशाल संख्या में उपस्थित थे। दिव्यदर्शी योगी ने बताया “यद्यपि राजा शतनीक ने ब्राह्मणों के निर्देशानुसार 16 प्रकार के महान दान दिये थे, ब्राह्मणों को रत्न, वस्त्र दिया था। किंतु वे नरक त्रास भोग रहे हैं क्योंकि वह धन उन्होंने प्रज्ञा को उत्पीड़ित कर संचित किया था। राजा का प्रथम कर्त्तव्य प्रजा का योग्य परिपालन है। वैसा करते हुए ही सुयोग्य ब्राह्मणों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है। धन बाँटना ब्राह्मणों का सच्चा सम्मान नहीं, राजा का यश लोभ था, लोकेषणा थी। दुःखी राजा ने बेटे को सन्देश भेजा है कि मेरी गलती न दुहराना और प्रजा के परिपालन के कर्त्तव्य की ओर प्रथमतः ध्यान देना।