सब कुछ लुट गया

March 1984

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एक लकड़हारा था। नित्य की तरह लकड़ी काटने जंगल गया। काम की लकड़ी दिखी नहीं। तीसरा प्रहर हो चला। थक कर एक पेड़ की छाया में सुस्ताने लगा। लेटते-लेटते नींद आ गई। फिर भी वह गहरी न थी। सपनों की दौड़ चल पड़ी।

देखा कि वह कंकरीली जमीन में भटक रहा है। बैठने लायक कहीं जगह न दिखी तो पत्तों का आसन बनाकर उस पर सुस्ताने की बात सोचने लगा।

पूरे पत्ते जमा भी न होने पाये थे कि एक विचार उसके दिमाग में आया। क्यों न लकड़ी बीन कर चारपाई बनाई जाय और उस पर लम्बे पैर करके मजे में सोया जाय।

उसने पत्ते बटोरना छोड़ दिया और लकड़ी काटने लगा। चारपाई का सपना उसकी अभिलाषा को दूनी कर रहा था।

चारपाई के लिए लकड़ी पूरी भी न हो पाई थी कि मन बदला और सोचने लगा सामने वाले पहाड़ पर कब्जा क्यों न कर लिया जाय। इसमें ढेरों चट्टानें, कितनी ही गुफाएँ और पेड़ों की भरमार है। उस पर रहते हुए। लकड़ी पत्थर काटने बेचने का भी लाभ मिलेगा। टूटे झोंपड़े में रहने की अपेक्षा किसी बढ़िया गुफा में परिवार समेत रहने का प्रबन्ध भी हो जायेगा।

सपना सघन होता चला गया। उसने कुल्हाड़ी फेंक दी। धनुष बाण बनाया और उस पहाड़ी पर रहने वालों को परास्त करने कब्जा करने की योजना में जुट गया।

सपना तो सपना ही ठहरा। पत्ते का आसन- लकड़ी का पलंग- हवा में उड़ गये। अब धनुष बाण बन रहा था और पहाड़ी पर कब्जा करने- उस क्षेत्र की प्रचुर सम्पदा हस्तगत करने को मन ललक रहा था। आधी घड़ी बीतने न पाई थी कि उसने पहाड़ी पर कब्जा कर लिया। अब वह उस क्षेत्र का राजा था। खुशी से फूला न समा रहा था।

राजा पत्ते के आसन, लकड़ी की चारपाई पर थोड़े ही बैठते हैं। दरबारी क्या कहेंगे। शानदार सिंहासन चाहिए। चाँदी का। पूछने पर किसी ज्योतिषी ने बताया, यहाँ से तीस योजन दूर एक चाँदी की खदान हेमकूट पर्वत पर है। वह पर्वत संगमरमर का है। ग्रह दशा अच्छी है। इसी मुहूर्त में चल पड़ा जाय तो उस पर अधिकर करने में कोई बाधा न पड़ेगी। राजमहल बनाने को चमकीला पत्थर और सिंहासन के लिए चाँदी मिलेगी। चाँदी बेचकर राजमहल बनाने हाथी घोड़े खरीदने और फौज भर्ती करने में देर न लगेगी।

ललक ने बेचैनी उत्पन्न कर दी। वह हवा में उड़ा और हेमकूट पर्वत पर आसमान में उड़ता हुआ पहुँचा और बादल की तरह समूचे क्षेत्र पर छा गया। बिना प्रयास के किए उस पर्वत की सारी सम्पदा उसके हाथ आ गई। चाँदी और संगमरमर की खुदाई शुरू हुई। विश्वकर्मा आसमान से उतरे और देखते-देखते उनने संगमरमर का महल और चाँदी का सिंहासन बना दिया।

लकड़हारा, सपने का राजा था। दरबार लगा। राज्याभिषेक की तैयारी चल पड़ी। रत्न जटित पोशाक बन गई। पर मुकुट चाँदी का, सिंहासन चाँदी का होना कुछ फव नहीं रहा था। सम्राट के लिए सोने का सिंहासन और सोने का मुकुट चाहिए। इसके लिए सात मन सोना चाहिए। सपने का राजा इस कमी को पूरा करने के लिए बेचैन हो उठा।

आसमान से चार परी उतरीं। बोलीं आप हम चारों से विवाह कर लें। आप जैसे प्रतापी राजा की खोज में हम चारों अभी तक कुमारी फिर रही हैं। संसार भर में भ्रमण करने के उपरान्त आप ही मनचाहे मिले हैं। आप हम चारों को रानी बना लीजिए। हम सहेलियाँ हैं साथ रहेंगी। तीस मन सोना हम लोगों के पास है सो आपको दहेज में देंगी।

राजा अपने भाग्य को सराहने लगा। उसने बिना मुहूर्त दिखाये ही तत्काल विवाह कर लिया। अप्सराएँ रानियाँ थीं। सोने का मुकुट और सिंहासन बनते देर न लगी। अभिषेक समारोह की शहनाइयाँ बजने लगीं। चारों रानियाँ च्योवर ढुला रही थीं। अभिषेक का कृयाकृत्य चल पड़ा। प्रजानन उपहारों के थाल लिये खड़े थे। किले के बाहर रथों और हाथियों की पंक्ति खड़ी थी। अभिषेक के उपरान्त राजा की नगर में शोभायात्रा निकालनी थी। घटना चक्र तूफानी गति से आगे बढ़ रहा था। सालों का काम मिनटों में निपट रहा था।

शोभायात्रा चल पड़ी। सज-धज वाला जुलूस किसी चक्रवर्ती के विजयोत्सव से कम न था। लकड़हारा सोया तो धरती पर था पर कल्पना के विमान पर चढ़कर वह सातवें स्वर्ग में उड़ रहा था। सफलता और सौभाग्य के गर्व से उसकी महत्त्वाकाँक्षाएँ कृत-कृत्य हुई जा रही थीं। जुलूस गाजे-बाजे के साथ चल रहा था।

मच्छर मस्ती पर आये गये। उनके झुण्ड पीठ और कन्धे पर जम गये। गर्मी की अधिकता से कान खजूरे भी रेंगते हुए वहीं आ गये और लकड़हारे की गदेली जैसी देह पर सैर करने लगे। खुजली चल पड़ी। नींद तो ऐसे ही अधूरी थी। इन दुष्टों ने उसे भी हराम कर दिया। खुजलाने को हाथ उठा तो करवट भी बदलना पड़ा। इतने भर उलट-पुलट में नींद खुल गई। देखा तो दिन छिपने जा रहा था।

नींद टूटी। वास्तविकता सामने आ खड़ी हुई। कितना मीठा सपना। कहाँ चला गया। फिर देखने लगे यह सोचकर उसने फिर से आँखें बन्द करने और लेटने का प्रयास किया। पर यर्थाथता प्रबल थी। उसने अन्धेरे का खतरा- और घर की दूरी बताई और झटपट चल पड़ने के लिए बाधित कर दिया।

लकड़हारा, सब कुछ गँवा चुका था। भारी पैर से बड़ी कठिनाई से गिरता पड़ता भारी मन लेकर खाली हाथ घर पहुँचा। उस दिन लकड़ी भी नहीं काटी गई। धान भी पोटली में न था। घरवाली चिन्तित हो उठी। उदासी किस कारण छाई। धान की पोटली क्यों खाली आई। जैसे प्रश्न उसने उत्सुकता से पूछे।

लकड़हारे के होठ सूख रहे थे। सिर पर हाथ रखकर वह एक कोने में निढाल बैठ गया। उसका सब कुछ लुट चुका था।

किसी समझदार ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- “यह संसार भी एक प्रकार से चला-चली का मेला है। जितना भी जीवन है उसे परिश्रम से- ईमानदारी से काटना अच्छा है। सपने तो शेखचिल्ली देखते हैं।”


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