जिन्दगी चालीसवें साल से शुरू होती है।

March 1984

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जिन्दगी चालीस साल से आरम्भ होती है। इस कथन के पीछे तात्पर्य इतना ही है कि चढ़ते खून में अल्हड़पन अधिक रहता है। अनुभव के अभाव में व्यक्ति गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से अनगढ़ रहता है। इस लिए उन दिनों दूरदर्शी निर्णय करने और उपलब्ध क्षमताओं का अधिक उत्तम उपयोग करने की समझदारी की कमी बनी रहती है। यह स्थिति जब भी बदले तभी से जिन्दगी आरम्भ हुई, यह समझी जानी चाहिए। हो सकता है कि ऐसी विवेक बुद्धि छोटी आयु में ही जाग पड़े। हो सकता है कि अस्सी-सौ वर्ष बीत जाने पर भी मरने के दिन तक बच्चों जैसी चंचलता और अदूरदर्शिता छाई रहे। ऐसी दशा में यही कहा जायेगा कि जिन्दगी का आयु से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। फिर भी अनुभव एकत्रित करने और उत्तरदायित्व समझने में देर तो लगती ही है। इस देरी का मोटा अनुमान चालीस वर्ष जितना लगाया गया है।

मनुष्य ऐसे ही दिन काट ले तो उसकी विशेषता क्या रही और अन्य प्राणियों से अधिक सुयोग इतना भर ही रहा कि वह दो टाँगों के सहारे खड़ा होकर चल सका और हँसने, रोने, बोलने और सोचने भर की विशेषता दिखा सका।

विचारशीलों का कथन है कि “जिन्दगी चालीसवें साल से आरम्भ होती है।” इस उक्ति का तात्पर्य यह है कि इतने दिन पापड़ बेलने के उपरान्त उस समझदारी का उदय होता है जो साधनों के सदुपयोग और उत्तरदायित्व का अनुभव करती है। समय सबसे बड़ी सम्पदा है। उसे ज्यों-त्यों करके काट लेने का अभ्यास तो पशु-पक्षियों को भी होता है। गेंद की तरह ठोकर खाने पर इधर से उधर लुढ़कते रहने वालों को भी तो जीवित ही कहा जायेगा, पर इससे कुछ पल्ले नहीं पड़ता। मनुष्य जीवन का सुयोग्य ऐसा नहीं है कि उसे भारभूत होकर ढोया या ज्यों-त्यों करके किसी पर ढोया-घसीटा जाय। उसकी उपलब्धियाँ शानदार होनी चाहिए। यदि यह उमंग उमंगें तो समझना चाहिए कि समझदारी का अरुणोदय दीखा।

विवेकानन्द मात्र 36 वर्ष ही जिये। शंकराचार्य की मृत्यु 32 वर्ष की आयु में ही हो गई। ज्ञानेश्वर उठती उम्र में ही स्वर्ग चले गये, पर इतनी अवधि में ही उनने इतने महत्वपूर्ण कार्य इतनी कुशलता के साथ सम्पन्न कर लिये कि उस अल्पायु को भी सदा सराहा जाता रहेगा। इसके विपरीत ऐसे भी ढेरों लोग होते हैं जो अस्सी या सौ वर्ष तक जीवित रहें पर खाने-सोने में ही दिन काटते रहे। कोल्हू के बैल की तरह किसी तरह समय पूरा करते रहे। जीवन को सार्थकता के साथ जोड़ने की उनकी इच्छा उठती ही नहीं। जीवन का महत्व और उसका सदुपयोग उनने जानने समझने का प्रयत्न ही नहीं किया।

जिन्दगी और समझदारी एक ही बात है। कौन कितने दिन जिया इसका लेखा-जोखा, वर्ष महीने गिनकर नहीं वरन् यह देखते हुए लगाना चाहिए कि किसने कितना समय किस स्तर के कार्यों में, कितनी कुशलता पूर्वक लगाया। जिन्दगी के वर्ष तो सीमित होते हैं, पर उन्हें रबड़ की तरह खींचकर लम्बा या गुब्बारे की तरह फुलाकर छोटे से बड़ा बनाया जा सकता है।

समझदारी का अर्थ है अधिक महत्वपूर्ण कार्यों का चुनाव और जो करना है उसे पूरे मनोयोग के साथ करने का कौशल। यह समझ जिस भी आयु में उग पड़े, समझना चाहिए कि वास्तविक जिन्दगी उसी दिन से आरम्भ हुई।


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