एक साधु थे (kahani)

March 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक साधु थे, योग साधना करते थे और प्रतिदिन सायंकाल ग्रामवासियों को एकत्रित कर उन्हें ज्ञान दान भी दिया करते थे। साधु का ही प्रभाव था कि गाँव में न कोई चोरी करता था और न छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष और बेईमानी। सब लोग प्रेम पूर्वक रहते थे।

एक दिन गाँव के कुछ मनचले लड़कों को शरारत सूझी। कई लड़के इकट्ठा होकर साधु के पास गये ओर बोले- महात्मन्! अपने गाँव के पास जो गंगाजी का पुल है, नाराज होकर कहता है, मुझे दस हजार रुपये दो तो यहाँ पर रुकूँगा, नहीं कहीं दूर चला जाऊँगा। हम लोगों ने बहुत मनाया, मानता ही नहीं। हारकर गाँव वाले चन्दा इकट्ठा कर रहे हैं कुछ आप भी दान दीजिये। साधु ने ध्यान से सब बात सुनी, बच्चों की ओर देखा- थोड़ा मुस्कराये, भीतर कुटी में गये और पाँच रुपये लाकर लड़कों को देते हुये बोले- “लो शीघ्र जाओ और पुल को कहीं बाहर जाने से रोको।” लड़के तब तो चले गये पर दूसरे दिन आकर उन्होंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और पूछा- “महाराज! आप तो इतने ज्ञानी हैं, फिर आप इतना भी नहीं समझ सके कि पुल भी कहीं रूठता है?” साधु हँसे और बोले- ‘बेटा! वह तो मैं भी समझ गया था पर आप लोगों की परोपकार की भावना की रक्षा तो करनी थी।” बालकों ने सज्जनता की सच्ची प्रतिमूर्ति उस साधु में देखी, और स्वयं उस मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles