कंटकों की राह (kavita)

March 1984

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सिद्धि की मूर्ति में प्राण हो, इसलिये। कंटकों पर चले साधना के चरण॥

जन्म तो मिल गया था सहज ही कहीं। बढ़ गयी आयु, पर अज्ञता थी वहीं॥

तब कहाँ से विभा ज्ञान की फैलती। चाहिए या उषाकाल-वातावरण।

कंटकों पर चले साधना के चरण॥ की अंतः ज्ञान की मुक्त आराधना।

कल्मषों के समाधान की साधना॥ गति रहे उर्ध्वगामी सदा इसलिये।

कर लिया एक संकल्प का शुभ वरण। कंटकों पर चले साधना के चरण॥

मात अवरोध प्रत्येक खाता रहा। रक्त हर एक छाले से आता रहा॥

पग चले धूप में, धूलि में, रेत में। किन्तु जाना न विश्राम का एक क्षण।

कंटकों पर चले साधना के चरण॥ साथ पग के चलें मन तथा भावना।

मार्ग में ना भ्रमा ले कहीं कामना। तीक्ष्ण होता मनोबल रहे इसलिये।

गुरु-कृपा न किया प्राण का जागरण। कंटकों पर चले साधना के चरण॥

मुड़ गया शेष जीवन उसी राह में। लोक हित-लोक कल्याण की चाह में॥

सिद्धि का द्वारा यों मिल गया प्राण का। औ सफल हो गया देह का अवतरण। कंटकों पर चले साधना के चरण।

*समाप्त*


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