चेतना जगत की सुलझती गुत्थियाँ

March 1984

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मरणोत्तर स्थिति के सम्बन्ध में अनुसंधानकर्ताओं का कथन है कि जीव चेतना जिस प्रकार जीवित स्थिति में अपने अनेकानेक आवश्यकताओं की तथा समस्याओं की पूर्ति करती रहती है उसी प्रकार वह स्वसंचालित पद्धति से मरणोत्तर स्थिति में भी स्थिति के अनुरूप तालमेल बिठा लेती है।

ग्रहण विसर्जन के उपक्रम आये दिन चलते रहते हैं। उनमें से कोई भी कष्टकारक नहीं होता है। अन्न, जल और श्वास का ग्रहण करने का क्रम निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार मल विसर्जन का कार्य अनेक छिद्रों द्वारा स्वतः सम्पन्न होता रहता है। करवट लेने और कपड़ा बदलने में कोई कष्ट नहीं होता। एक घर से दूसरे घर में प्रवेश करने- एक सड़क छोड़कर दूसरी पर चलने में जब कोई कष्ट नहीं होता और सामान्य अभ्यास ही उन कार्यों को निपटा लेता है तो फिर शरीर त्याग के समय कष्ट होने की बात समझ में नहीं आती।

जरा-जीर्ण होने पर अंगों की गतिशीलता में व्यवधान आने पर होने वाला कष्ट अलग बात है। चोट लगने या बीमार पड़ने की व्यथा का अपना ढंग और स्वरूप है। या उसे मरण के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। मरण से पूर्व रुग्णता एवं जीर्णताजन्य कष्ट होते हैं उन्हें जीवन में आते रहने वाले उतार-चढ़ावों में ही सम्मिलित रखना चाहिए। मरणकाल की स्थिति और रुग्णता की व्यथा को एक-दूसरे से सर्वथा पृथक समझना ही उचित है।

मरने के समय मस्तिष्क समेत सभी अवयव काम बन्द कर देते हैं। ऐसी दशा में कष्ट की अनुभूति का भी कोई तुक नहीं। यह कार्य उसी प्रकार का है जैसा कि ईंधन के अभाव में आग का बुझ जाना। ऐसी दशा में मरण काल का कष्ट पीड़ा परक नहीं हो सकता है। मोह के कारण बिछोह से तिलमिलाहट होना तो बात दूसरी है।

मरने के बाद स्वभावतः दूसरे स्तर का जीवनयापन करने की व्यवस्था होनी चाहिए। प्रकृति ने हर जीवधारी के शरीर, मन और साधनों का ऐसा सन्तुलन बिठाया है कि वह उस परिधि में रहकर बिना खिन्नता अनुभव किये अपनी जीवनचर्या चलाता रहा। यदि ऐसा न होता तो एक भी प्राणी न स्वयं चैन से रहता न दूसरों को रहने देता। देखा जाता है कि सभी जीवधारी अपनी-अपनी परिस्थितियों में सुखपूर्वक निर्वाह करते हैं। शरीर छोड़ने के लिए सहमत नहीं होते। वरन् ऐसा कुछ सामने होने पर उससे बचने का प्रयास करते हैं ताकि उपलब्ध सुख सुविधा से विरत न होना पड़े। मरणोत्तर काल में भी चेतना के लिए नियति ने ऐसी ही व्यवस्था बना रखी होगी जिसमें वह जब तक उस स्थिति में रहे तब तक बिना किसी कठिनाई के समय गुजार सके।

जन्म और मरण की मध्यवर्ती अवधि को चेतना विज्ञानी विश्राम की अवधि मानते हैं। बहिरंग मस्तिष्क को तो नींद लेकर थकान मिटाने का अवसर मिल जाता है पर शरीर यात्रा के लिए मूलतः उत्तरदायी अचेतन मन को कभी भी चैन नहीं मिलता। निद्रा काल में भी अचेतन मन के क्रिया-कलाप जारी रहते हैं। स्वप्नलोक में वह विचरण करता रहता है और समूचे शरीर को समस्त क्रिया-कलापों को अनवरत रूप से संभालता रहता है। रक्त-संसार, श्वास-प्रश्वास, निमेष, उन्मत्त आकुंचन प्रकुंचन आदि में अचेतन मन में निद्रावस्था में भी उतना ही सक्रिय रहना पड़ता है जितना कि जागृत स्थिति में। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि चेतना को समुचित विश्राम का अवसर जीवनकाल में कभी मिलता ही नहीं। उसके लिए मरणोत्तर काल का अवसर ही एक मात्र सुयोग है। ऐसी दशा में जीवात्मा का इन दिनों इतनी सुविधा मिलनी चाहिए जिसमें वह बिना किसी विक्षेप की थकान मिटा सके और भविष्य के लिए नई स्फूर्ति अर्जित कर सके।

इस सन्दर्भ में कई मनोविज्ञानियों डाक्टरों ने गहरी खोज की है। उनने मरणासन्न रोगियों की मनोदशा, शारीरिक स्थिति, वार्ता तथा संकेतों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि उन पर क्या बीत रही है। वे परिवर्तन से कैसा अनुभव कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त इन शोधकर्ताओं ने विशेष रूप से उनके साथ सम्पर्क साधा जो मृतक घोषित कर दिये गये थे। पर कुछ समय बाद उनकी चेतना लौट आई। और इस मध्यकाल के अनुभव बता सकने की स्थिति में थे। ऐसे शोध कर्ताओं द्वारा एकत्रित किये गये प्रमाण तथा निकाले गये निष्कर्ष सामान्य जनों की जिज्ञासा के समाधान में बहुत कुछ सहायता करते हैं।

वर्जिनिया मेडिकल कालेज के प्रोफेसर डा. इयान स्टीवेन्सन का निष्कर्ष है कि मृत्यु अनचाही अतिथि है। तो भी वह डरावनी नहीं है। वह एक परिवर्तन भर है, जिन्हें प्रवास के आनन्द की स्मृति है उन्हें यह भी जानना चाहिए कि मरणोत्तर जीवन में आत्म सत्ता बनी रहती है और वह विश्रान्ति के लिए नियति व्यवस्था के अनुरूप ऐसी परिस्थितियाँ मिलती हैं जिसमें थकान उतर सके और भविष्य के लिए स्फूर्ति मिल सके।

यह सामान्य स्थिति की बात हुई। पर असामान्य स्थिति में मरने वाले लोगों की मनःस्थिति जब विपन्न होती है तो उन्हें मरने के समय विछोह, पश्चाताप के अतिरिक्त अपनी विवशता पर भी खेद होता है और आँखों से आँसू बहाते हुए बिलखते हुए मरते हैं। ऐसे अनुभव उन पादरियों के मुँह से सुने गये हैं। जिनके पास मरणासन्न स्थिति में निर्धारित धर्मकृत्य कराने के लिए जान पड़ता रहा है। उनमें से सन्तुलित मनःस्थिति वाले तो प्रसन्नचित्त रहे किन्तु विक्षुब्ध प्रकृति वालों को व्याधिजन्य कष्ट की अनुभूति न होते हुए भी मृत्यू के क्षणों घबराने और रुदन करते पाया गया।

प्रेतों के सम्बन्ध में किये गये परामनोविज्ञान अनुसंधानों से भी ऐसा ही पता चला है कि उद्वीप्त मनःस्थिति ही मरणोत्तर समय पर मनुष्य को आक्रोशग्रस्त रखती है। एक जैसा जीवन व्यतीत करते रहे लोगों के बीच भी प्रेत जीवन में पाई गई भारी भिन्नता का कारण यह समझा गया है कि किसी दण्ड पुरस्कार के अन्तर्गत नहीं वरन् उन्हें अपने ही स्वभाव संस्कार के आधार पर उन दिनों सुख-दुख का अनुभव होता रहता है। अस्तु प्राणी की निजी मनःस्थिति को ही परलोक में उपलब्ध होने वाली भली-बुरी परिस्थितियों का निमित्त कारण माना जा सकता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इस तथ्य को अब स्वीकारने लगे हैं, जबकि पूवर्त्ति अध्यात्म दर्शन तो प्रारम्भ से ही इस मान्यता का पक्षधर रहा है।


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