उथल-पुथल इन दिनों न केवल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में हो रही है वरन् समाज व्यवस्थाएँ भी बदल रही है। लोगों की आकांक्षाएँ और आदतें भी। मनःस्थिति में अनेक कारणों से उलट-पुलट हुई है। फलतः उसकी प्रतिक्रिया और परिस्थितियों में भी चकित कर देने वाला परिवर्तन हुआ है।
प्रकृति क्षेत्र एवं धरती का वातावरण भी इससे अछूता नहीं रहा है। मनुष्य का भविष्य अधर में झूल रहा है। भविष्य की सम्भावना चौराहे पर खड़ी है वह उत्कर्ष या विनाश की किसी भी दिशा में कदम बढ़ा सकती है। यह बात पृथ्वी के सम्बन्ध भी लागू होती है। वह ऐसे सन्धिकाल में होकर गुजर रही है जिसमें अपने इस धरातल को विषम विपत्ति में भी फँसना पड़ सकता है।
विज्ञानी राबर्ट डाएत्ज के अनुसार पृथ्वी के इतिहास में दास हजार वर्ष की अवधि में अनेकानेक असाधारण परिवर्तन होते रहे हैं। उनका बड़ा कारण आकाश से उतर कर किसी बड़े उल्का पिण्ड का धरती से टकराना होता रहा है। साधारण उल्काएँ तो आये दिन पृथ्वी के कवच को चीर कर नीचे उतरती और वायु संघर्ष से जलकर भस्म होती रहती हैं। कुछ अधिक बड़ी और कड़ी होने के कारण जमीन से भी टकराती हैं और जहाँ गिरती है वहाँ बर्बादी खड़ी करती हैं, पर बहुत बड़े पिण्डों की बात दूसरी है। वे टकराते हैं तो पृथ्वी के क्रम एवं प्रवाह में उथल-पुथल उत्पन्न करते हैं। चन्द्रमा को खाई-खड्डों वाला स्वरूप इन उल्का आघातों के कारण ही हुआ है।
पृथ्वी के इर्द-गिर्द कुछ दिनों से ‘इकॉरस’ नामक विशालकाय उल्का पिण्ड चक्कर लगा रहा है। सन् 1968 में यह धरती के बहुत निकट आ गया था। सन् 1983 में भी एक बार फिर लौटा। किन्तु टकराने जैसी परिस्थिति नहीं बनी। परिधि का स्पर्श करते हुए दूसरी ओर चला गया। इसकी आँख मिचौनी समाप्त नहीं हुई है। कभी आ टकराया तो 20 करोड़ मैगाटन के परमाणु बम फटने जैसा विस्फोट उत्पन्न करेगा और जहाँ कहीं टकरायेगा वहाँ का स्वरूप ही बदल देगा। सारी पृथ्वी उसमें प्रभावित होगी।
इकॉरस का छोटा भाई एक और उल्का पिण्ड है- तोरो। यह आकार में छोटा है तो भी ऐसा है कि टकराने पर कोई भयानक दुर्घटना खड़ी कर सके। यह पाँच किलोमीटर व्यास का है, तो भी तेजी से गिरने पर पृथ्वी की धुरी तक को हिला सकता है और उतने भर से जल, थल का वर्तमान नक्शा बदल सकता है। मौसम चक्र में असाधारण परिवर्तन हो सकता है।
ध्रुव क्षेत्र के विशेषज्ञ एच.एन.ब्राउन का अनुसंधान है कि इन दिनों दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का भार निरन्तर बढ़ रहा है। यह ऐसे ही बढ़ता रहा तो कुछ ही समय में पृथ्वी की धुरी बदल जायगी और कहीं से कहीं जा पहुँचेगी। वर्तमान धुरी सात हजार वर्ष पहले बनी थी। अब हिम भार में असन्तुलन उत्पन्न होने के कारण सन् 2000 के आसपास फिर परिवर्तित हो सकती है। चार्ल्स हैपवुड ने भी इस मत का समर्थन किया है। ध्रुव स्थान बदलते हैं तो उसका प्रभाव धरती की क्रम व्यवस्था में भारी परिवर्तन होता है। अब तक तीन बार ऐसा हो चुका है। इन दिनों ध्रुवों के खिसकने की गति में तेजी आई है। सन् 2000 तक इनकी स्थिति ऐसी हो सकती है जिसका प्रभाव पृथ्वी की धुरी बदलने के रूप में सामने आये और उसके फलस्वरूप भारी उथल-पुथल मचे।
धुरी में राई रत्ती हेर-फेर होने पर भयानक भूकम्पों जैसी स्थिति बनती है। जिन्हें भूकम्पों का इतिहास विदित है वे जानते हैं कि इस आधार पर पिछले दिनों कैसे विचित्र उपस्थित हुए है। चिली के भूकम्प ने समुद्रतल 1000 फुट ऊँचा उठा दिया था। 1950 में हिमालय क्षेत्र में जो भूकम्प आया था उससे चोटियाँ 100 फुट तक ऊँची हो गई थीं। पृथ्वी का सन्तुलन बनाये रहने के लिए हिमालय की चोटियों को जिस सीमा में रहना चाहिए अभी में वे उससे 600 फुट अधिक ऊँची हो गई हैं। यदि भूकम्पों ने उन्हें और भी ऊँचा उठाया तो पृथ्वी का सन्तुलन डगमगा सकता है और महाद्वीपों के स्थान परिवर्तन करना पड़ सकता है। ऐसे अवसरों पर खण्ड प्रलय जैसे दृश्य उपस्थित होते हैं।
सन् 1982-83 में जितनी सर्दी पड़ी है उतनी पिछले सौ वर्षों में कभी भी नहीं पड़ी। सम्भावनाएँ है कि ऐसी अनियमित अव्यवस्थाओं का दौर आगे भी चलता रहेगा और मौसम अपने सामान्य विधि-व्यवस्था का व्यतिक्रमण करके उछल-कूद की- उलट-पुलट की नीति अपनाता रहेगा।
इसका कारण खोजने वालों ने कई प्रकार के अनुमान लगाये और कारणों का पर्यवेक्षण करते हुए कई कतिपय निष्कर्ष निकाले हैं। कैलीफोर्निया जेट प्रोपल्शन लेवोरेटरी के मौसम विशेषज्ञ रिचर्ड विलसन का अभिमत है कि सूर्य कलंकों की वर्तमान स्थिति इसके लिए जिम्मेदार है। सन् 1979 से इस सन्दर्भ में एक विसंगति क्रम चला है और वह 1986 तक इसी प्रकार बेतुके ढंग से चलता रहेगा। इस कारण सूर्य की गर्मी प्रायः एक प्रतिशत धरती पर कम आई और उस कारण सर्दी बढ़ी है।
पिछले दो ढाई सौ वर्ष पूर्व भी ऐसा हो चुका है। सन् 1645 से 1715 तक भी इसी कारण योरोप और अमेरिका में भयानक ठण्ड पड़ी थी और उन दिनों उसे मिनी हििमयुग कहा जाने लगा था। बिगड़ा सन्तुलन उस समय तो सध गया था। पर जब भूत ने घर देख लिया तो फिर कभी भी छप्पर से कूदकर आँगन में आ धमक सकता है।
1982 के मार्च, अप्रैल महीनों में मैक्सिको का अलचिनोन ज्वालामुखी फटा था। इसका मलवा असाधारण था वह आसमान में 30 किलोमीटर ऊँचा उछल गया। इतनी ऊँचाई पर चलने वाली हवाओं ने उसे पकड़ लिया और उत्तरी गोलार्ध के एक बड़े भाग पर उस धूलि को बखेर दिया उससे धूप के पृथ्वी तक आने में रुकावट उत्पन्न हुई। उस कमी के कारण ठण्ड का अनुपात बढ़ गया। माउन्टेन न्यू के नासा अनुसंधान केन्द्र के विज्ञानी ब्रायन ट्रन का कथन है कि यह प्रभाव अभी देर तक बना रहेगा।
ठीक ऐसा ही घटनाक्रम अब से 150 वर्ष पूर्व और भी घटित हो चुका है। सन् 1816 में योरोप में ठंडे मौसम के कारण फसल को पाला मार गया था और उत्तर-पूर्व अमेरिका में जून से अगस्त तक बर्फ गिरी थी जबकि उन दिनों क्षेत्र में गर्मी पड़ा करती है। विशेषज्ञों के अनुसार इसका कारण उन दिनों इन्डोनेशिया के तंवोरा ज्वालामुखी से हुआ भयंकर विस्फोट था। उस शताब्दी का यह अपने ढंग का अनोखा विस्फोट था। उसमें भी ऐसी ही धूलि उछाली थी। फलतः सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आसमान लाल दीखता था। चन्द्रमा पीले के स्थान पर नीला दीखने लगा था।
अमेरिका की नेशनल एकेडेमी आफ साइन्सेज ने इस बदलते मौसम का एक और कारण बताया है। उसने एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उसके विशेषज्ञों का कथन है कि जिस प्रकार पृथ्वी और सूर्य के परिक्रमा चक्र में दूरी और समीपता के कारण सर्दी-गर्मी का मौसम बदलता है। ठीक उसी प्रकार अपना सूर्य भी महासूर्य के इर्द-गिर्द परिक्रमा करता है। उसकी कक्षा भी पृथ्वी जैसी चपटी है। इस कारण इसी में अन्तर पड़ता है। इसका सौर मण्डल के ग्रहों पर प्रभाव पड़ता है। पिछले 5000 वर्षों में पृथ्वी समेत सौर-मण्डल अन्तर्ग्रही परिभ्रमण पथ की उष्णता परिधि में रह रहा था अब वह सर्दी के दौर में प्रवेश कर रहा है। फलतः ठण्डक बढ़ रही है।
इन दिनों सूर्य की क्रियाशीलता अधिकतम है। इन्हीं दिनों पृथ्वी के वातावरण में धूमकेतुओं का प्रवेश हो रहा है। इन परिस्थितियों का धरातल पर मनुष्य आदि प्राणियों पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। खगोलविद् फ्रेडहाइल ने पुरातन अनुसंधानों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जब कभी ऐसी परिस्थितियाँ आई हैं तब महामारियाँ फैली हैं। धूमकेतुओं की समीपता से पृथ्वी के वातावरण में भारी परिवर्तन होता है।
आमतौर से सूर्य की सक्रियता 11 वर्ष के साइकिल चक्र के अनुरूप बढ़ती पाई गई है। जब उस पर धब्बे अधिक बढ़ते हैं तब सक्रियता भी बढ़ती है। उस बढ़ोत्तरी से धरती का सारा वातावरण प्रभावित होता है। वस्तुओं से उत्पादन और प्राणियों के स्वभाव एवं स्तर पर उसका प्रभाव पड़ता है।
ब्रिटिश खगोल वेत्ता वाल्टर मौन्डेर ने विगत कई शताब्दियों में हुए सूर्य कलंकों का इतिहास संग्रह किया है। उनके अनुसार जब भी सूर्य सक्रियता बढ़ी है। तब-तब विक्षोभ, उपद्रव एवं प्रकृति प्रकोप होते रहे हैं। इसके विपरीत वे धब्बे जब घट जाते हैं तब अपेक्षाकृत अधिक शान्ति रहती है। अमेरिका में विगत 300 वर्षों में जब-जब सूखा पड़ता रहा है तब तब सूर्य की विपन्नता उसके साथ जुड़ी है। आस्ट्रेलिया के हिमनदों के पीछे हटना उनकी लम्बाई घट जाना अन्तरिक्षीय कारणों से सम्बन्धित माना गया है।
सूर्य धब्बों की संख्या बढ़ती है तो उसकी लपटों की परिधि भी बढ़ती है और विद्युत आवेश वाले कणों की बौछार होने लगती है इसका प्रभाव सौर मण्डल के ग्रहों उपग्रहों पर पड़ता है। अन्यत्र उसका क्या प्रभाव पड़ा इसकी जाँच-पड़ताल के उपयुक्त साधन अभी मनुष्य के पास नहीं है तो भी पृथ्वी पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव अनेक परीक्षणों से भली-भाँति सिद्ध होता है।
फ्राँसीसी वैज्ञानिक निकोलस के अनुसार सूर्य की चुम्बकीय बौछार बढ़ने से धरातल से ऊपर 15 से 50 किलोमीटर ऊपर का स्ट्रेटोस्फीयर एवं ट्राफोस्फीयर कवच अत्यधिक प्रभावित होता है और एक विशेष प्रकार की अल्ट्रावायलेट तथा एक्स किरणें धरातल की ओर उगलने लगता है। इस कारण पृथ्वी पर अदृश्य चुम्बकीय हलचलें उत्पन्न होती हैं। उनका कहना है कि पुरातन काल के विशालकाय महागज, महासरीसृप जैसे प्राणियों के उद्भव और विनाश में सूर्य कलंकों के घट-बढ़ ने एक विशेष भूमिका निभाई है।
प्रस्तुत अन्तर्ग्रही परिस्थितियाँ पृथ्वी की सुस्थिरता ओर सुखद सम्भावनाओं को चुनौती देती हैं। इनसे डरने की तो आवश्यकता नहीं पर हमें जानकारी तो रहनी ही चाहिए और यदि प्रकृति प्रवाह के परिवर्तन में मानवी चेतना के हस्तक्षेप की आशा बँधती हो तो उसके लिए भी प्रयत्नशील होना चाहिए।