विधि का विधान- कर्म का प्रतिफल

March 1984

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नारद उस बार नैमिषारण्य होकर विष्णुलोक जा रहे थे। मार्ग में दो सरोवर पड़े। जल निर्मल भी था और शीतल भी। पर आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य तो क्या कोई पशु पक्षी तक उनका पानी न पीता था। प्यासे होते हुए भी उन्हें छोड़कर चले जाते।

नारद वहाँ पहुँचे तो देखकर आश्चर्यचकित रह गये। सरोवरें स्वयं बहुत दुःखी थीं। पूछने पर भी वे कोई कारण न बता सकीं। भाग्य का विधान कह कर चुप हो गईं। बोली आप विष्णुलोक जा रहे हैं तो हमारा पाप और उसका प्रायश्चित पूछते आइए।

आगे बढ़े तो नारद ने ऐसा ही एक और आश्चर्य देखा। दो विशालकाय आम्र वृक्ष थे। मधुर फलों से लदे हुए। आश्चर्य इस बात का है कि उस मार्ग से निकलने वाले उस क्षेत्र में रहने वाले मनुष्य तो दूर कोई पक्षी तक उन फलों को नहीं खाता था। तिरस्कार, बहिष्कार का अपमान उन्हें बहुत दुःख दे रहा था।

आश्चर्यचकित नारद ने कारण पूछा तो वृक्ष कुछ बता न सके। उन्हें भाग्य विधान के अतिरिक्त और कुछ विदित ही नहीं था। बोले आप भगवान के यहाँ जा रहे हैं तो हमारे पाप और उद्गार भी पूछते आइए।

आगे बढ़ने पर देवर्षि ने ऐसा ही एक और आश्चर्य देखा। दो गौएँ थीं। हृष्ट-पुष्ट और दुधारू। बछड़े दोनों के साथ। किन्तु मनुष्य तो क्या बछड़े तक उनका दूध नहीं पी रहे थे। यह भी कम विष्मयजनक प्रसंग नहीं था। नारद गौओं के पास गये। पूछने पर वे भी कारण बता नहीं सकीं और उल्टा उद्धार का उपाय पूछने लगीं।

विष्णुलोक में पहुँचने पर नारद ने अन्यान्य वार्ताओं के उपरान्त उन तीनों बहिष्कृत अपमानितों के भाग्य विधान और प्रायश्चित का कारण निवारण बताने का अनुरोध किया।

भगवान ने कहा- “नारद विधि का विधान प्रकारान्तर से कर्म का प्रतिफल ही है। विधाता मात्र न्याय करते हैं। उन्हें न किसी से राग है न द्वेष।”

सरोवरें पूर्व जन्म में दो सगी बहनें थीं। धनाढ्य और दानी भी। पर वे दान-पुष्य अपने ही सम्बन्धी, परिचितों को देती थीं। यह प्रशंसा के लिए मरती थीं। आवश्यकता उपयोगिता पर ध्यान नहीं देती थीं। दान के पीछे भी संकीर्ण बुद्धि रही। उनकी इस मूढ़ता का दण्ड बहिष्कार के रूप मिला। पुण्य के कारण व शीतल और निर्मल तो थीं। उनका उद्धार तभी होगा जब खोदकर नहरें बनें और खेतों की सिंचाई के लिए उनका उपयोग हो।

आम्रवृक्षो का विवरण बताते हुए भगवान ने कहा वे दोनों विद्वान थे। विद्या के बल पर यश भी कमाया और धन भी। पर उस कमाई को परिवार विलास भर के लिए खर्च करते रहे। अपनी विशिष्टता का लाभ शिक्षा विस्तार में करने से विमुख रहे। उसी का त्रास अपमान इसी रूप में सहना पड़ रहा है। उद्धार तब हो जब उनके फलों को ले जाकर कोई अनेक स्थानों में उद्यान लगाये उन उद्यानों से जब असंख्यों को लाभ मिलेगा तभी उनका उद्धार होगा।

अब दो दुःखी गौओं का प्रसंग सामने आया। भगवान बोले। वे दोनों पूर्व जन्मों में महिलाएँ थीं। मात्र अपने बेटों और पतियों का ध्यान रखती थीं। अन्य का नहीं इनका उद्धार तब हो जब कोई उनके दूध को अभावग्रस्त बालकों और रोगियों तक पहुँचाए।

समाधान सुनकर नारद लौटे और सरोवरों से नहर निकाल कर जल खेतों तक पहुँचाने। वृक्षों की गुठलियों से अनेक उद्यान लगाने। गौ दुग्ध को रोगियों तक पहुँचाने की व्यवस्था उनने अपने प्रभाव का उपयोग करके बनाई। और आगे चल गये।

बहुत दिन बाद फिर उधर से लौटे तो सरोवरों, वृक्षों और गौओं को सुख-सम्मान पाते देखकर बड़े प्रसन्न हुए। तब से वे पाप से बचने और करने पर प्रायश्चित अपनाने की शिक्षा जन-जन को देने लगे।


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