अन्धकूप के पाँच प्रेत

March 1984

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आचार्य महीधर अपनी शिष्य मण्डली समेत तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। रात्रि में एक सुरक्षित स्थान पर विश्राम के लिए रुक गये। थकी मण्डली गहरी निद्रा में सो गई।

महीधर को नींद नहीं आई। कहीं दूर पर कई व्यक्तियों का संयुक्त करुण क्रन्दन सुनाई पड़ रहा था। वे चुपके से उठे और उधर चल पड़े जिधर से रुदन की ध्वनि आ रही थी। वे एक अन्ध कूप के निकट जा पहुँचे। देखा कि पाँच व्यक्ति उसमें औंधे मुँह पड़े बिलख रहे हैं।

आचार्य ने निकालने का प्रयत्न करने से पूर्व उनसे पूछा- वे कौन हैं, और क्यों कर इस गर्त में गिरकर दुःख पा रहे हैं। निकलने का प्रयत्न क्यों नहीं करते?

उनमें से एक ने कहा- ‘हम पाँचों प्रेत हैं। कर्मफल भोगने के लिए इस गर्त्त में गिराये गये हैं। विधिविधान को तोड़कर निकल सकना हमारे लिए सम्भव नहीं है।’

आचार्य का कौतूहल और भी बड़ा। उनने कहा- ‘भला जानें तो आप लोगों को किस कारण इस दुर्गति में पड़ना पड़ा?’

प्रेतों में से एक-एक ने अपनी दुर्गति का कारण बताया। पहले ने कहा- ‘वह पूर्व जन्म में ब्राह्मण था। दक्षिणा बटोरता और विलास में खर्च करता था। ब्रह्म कर्मों की उपेक्षा करता रहा।’ दूसरे ने कहा- मैं क्षत्रिय था। दुःखियों की रक्षा सहायता से बचता और मद्य माँस, वेश्यागमन, अनाचार जैसे कुकृत्यों में निरत रहा। तीसरा बोला- मैं वैश्य था। अतिशय लाभ कमाने वाला विक्रय वस्तुओं में हेरा-फेरी करने वाला, सम्पन्न होते भी कृपणता बरतने किसी को कुछ न देने की प्रकृति वाला निष्ठुर। चौथे ने कहा- ‘मैं शूद्र था। अहंकारी, आलसी दुर्व्यसनी। किसी की सीख मानी नहीं, जिम्मेदारी जानी नहीं।’

पाँचवें प्रेत की स्थिति विचित्र थी। वह साथियों को भी मुँह नहीं दिखाता था। पीठ फेरकर खड़ा होता और दोनों हाथों से मुँह ढक लेता। महीधर ने उसकी इस विचित्र स्थिति का कारण आश्चर्यचकित होकर इस स्थिति के विषय में पूछा।

रुदन भरे स्वर में वह बोल पड़ा- ‘मैं पूर्व जन्म में साहित्यकार-कलाकार था। पर अपनी कलम से मैंने कभी नीति, धर्म, सदाचार का शिक्षण नहीं किया। अश्लीलता, कामुकता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य लिखकर लोगों को पतित, भ्रमित ही करता रहा। ऐसे संगीत, अभिनय का सृजन किया जिसने कुत्साएँ जगाईं, वासना भड़काई। चित्र व मूर्तियाँ बनाने में प्रवीण-पारंगत होते हुए भी उन्हें कुरुचिपूर्ण गढ़ा। सारे समाज को भ्रष्ट करने के आरोप में यमराज ने मुझे अन्य सभी प्रेतों की तुलना में अधिक कष्टकर स्थिति में रहने- ब्रह्म राक्षस बनाने हेतु इस स्थिति में पहुँचा दिया। यहाँ भी मैं इतना लज्जित हूँ कि अपना मुँह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकने की स्थिति में हूँ।” इतना कहते उसकी हिचकियाँ बँध गयीं वह आगे बोल नहीं सका।

अन्ध कूप से निकलने-निकालने के प्रयत्न को व्यर्थ बताते हुए पाँचों प्रेतों ने महीधर से एक ही प्रार्थना की कि यदि वे कर सकें तो इतना भर कर दें कि जन-जन को हमारी दुर्गति का कारण बता दें ताकि अन्य लोग ऐसी भूल न करें। पाप की चर्चा हो चले तो वह हलका पड़ता है। दूसरों को शिक्षा मिलती है।”

महीधर वापस लौट आये। उस दिन से वे अपने प्रवचनों में उन पाँच प्रेतों की कथा को भी सम्मिलित रखने लगे।


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