पृथ्वी के इर्द गिर्द चल रहीं अवाँछनीय हलचलें

March 1984

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ग्रह नक्षत्रों की दुनिया में आमतौर से मर्यादाओं का पालन ही चलता है। सभी अपने-अपने रास्ते चलते, परिभ्रमण कक्षाओं में घूमते रहते हैं। पर जब कभी वे परस्पर टकराते हैं तो न केवल अपना अस्तित्व गँवा बैठते हैं वरन् सम्बद्ध क्षेत्र में भी अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं।

खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार मंगल और बृहस्पति के बीच किसी ग्रह का चूरा परिभ्रमण कर रहा है। उसमें असंख्यों छोटे-बड़े उल्का खण्ड हैं। समझा जाता है कि सौर मण्डल की कोई दो सदस्य ग्रह किसी कारण आपस में टकराये होंगे और हार-जीत से पहले ही दोनों चूरा बनकर अन्तरिक्ष में छितरा गये हैं। यह कबाड़ा उन्हीं का ध्वंसावशेष बनकर भ्रमण कर रहा है। टकराव के परिणाम प्रायः ऐसे ही होते हैं। इसलिए विज्ञजनों की सहकारिता और मर्यादा पालन के लिए जन-साधारण को प्रशिक्षित एवं सहमत करने के लिए भरसक प्रयास किया जाता है।

पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक के बाद एक कवचों की परत लिपटी हुई हैं। उनसे टकराकर अन्तरिक्षीय उल्का पिण्डों से हो सकने वाली क्षति बची रहती है। उल्का पिण्ड धरती पर आक्रमण करते हैं वायु मण्डल में प्रवेश करते-करते जल-भुनकर राख होते रहते हैं। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि खतरा बिलकुल टल गया। ढाल इतनी मजबूत नहीं है जिसे कोई भी हथियार बेध न सके। पृथ्वी पर अन्तरिक्षीय विघातक आक्रमण का खतरा बना रहता है। इतना ही नहीं इन दिनों तो उन आशंकाओं का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है।

विशाल ब्रह्माण्ड में विद्यमान ग्रह नक्षत्रों के विशाल समुदाय में अपनी पृथ्वी का आकार एक धूलि कण के समान है। अन्तरिक्ष में कितने ही नये तारकों का उद्भव एवं पुरानों का समापन होता रहता है। इस जन्म-मरण की प्रक्रिया में कई बार बड़े टकराव ही निमित्त कारण होते हैं। पृथ्वी की आयु बीस करोड़ वर्ष मानी जाती है। यह ब्रह्माण्ड काल के आयुष्य को देखते हुए चुटकी बजाने जितनी स्वल्प है। फिर भी इसे सौभाग्य ही कहना चाहिए कि उसे किसी अन्तरिक्षीय दुर्घटना का अब तक शिकार नहीं होना पड़ा। तथापि यह नहीं समझा जाना चाहिए कि खतरे की कोई आशंका नहीं है। वह सिर पर मंडराता ही रहता है। कई बार तो वह और भी अधिक सघन होता देखा गया है। अपने समय की ऐसी ही आशंकाओं से घिरा समझा जाय तो उसे अत्युक्ति नहीं कहा जायेगा।

अन्तरिक्ष विज्ञानी बताते हैं कि कई हजार वर्ष पूर्व शुक्र और पृथ्वी की टक्कर होते-होते किसी प्रकार बच गई। दोनों के प्रभाव क्षेत्र इतने समीप आ गये थे कि टकरा जाने जैसा माहौल बन गया था। विपत्ति तो टल गई पर पृथ्वी की धुरी 23 अंश एक ओर झुक गई और इससे मौसम में असाधारण परिवर्तन हुए।

साइबेरिया की पांडकामेन्नाया क्षेत्र में 30 जून सन् 1908 में एक भयंकर उल्कापात हुआ था। उसके कारण वह क्षेत्र बुरी तरह काँप गया था। योरोप और एशिया के अधिकाँश भागों में उसकी रोशनी देखी गई और हजारों मील तक उसकी धमक सुनी गई थी। दूर-दूर का क्षेत्र जल-भुन गया था। यह बड़ी उल्का भर थी। यदि कोई बड़ी आकृति टकराई होती तो उसका क्या परिणाम होता यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

खगोल शास्त्रियों के अनुसार 30 अक्टूबर 1937 में भी ऐसा ही संकट आया था। जर्मन ज्योर्तिविद रीन मथ के अनुसार एक उल्का पिण्ड बीस मील प्रति सेकेण्ड की गति से पृथ्वी की ओर लपकता आ रहा था। उसका व्यास दो मील के लगभग था। बचकर निकल गया तो अच्छा ही हुआ। अन्यथा कोई बड़ी दुर्घटना घटित होती। कुछ घण्टे ही उसकी दिशा बही रहती तो इतना भयानक विस्फोट होता जिसकी तुलना में अणु बमों के एक बड़े समूह का प्रहार भी तुच्छ प्रतीत होगा। वैज्ञानिकों का कथन है कि अन्तर्ग्रही प्रभावों को जानना इसलिए अत्यन्त जरूरी है कि हम सुरक्षा की व्यवस्था कर सकें एवं ऐसे कारण उत्पन्न न करें जो इन विक्षोभों को और भी बढ़ाने में सहायक हों।


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