स्वार्थ सिद्धि एवं औचित्य की मर्यादा

March 1984

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स्वार्थ तराजू के उस काँटे की तरह है, जिसका तनिक सा इधर-उधर झुक जाना लाभ-हानि का विजय-पराजय का- निमित्त कारण बन जाता है। बराबर संख्या में वोट पड़ने पर निर्णायक का वोट भी सारी तसवीर उलट देता है। स्वार्थ के नाम पर खरा-खोटा सभी धकता है। तत्काल लाभ की ऐसी दृष्टि से भविष्य के परिणामों से आँख मूँद लेती है, प्रचलित स्वार्थ सिद्धि के रूप में गिनी जाती है। वस्तुतः इसे अनर्थ कहा जाना चाहिए। नशेबाज क्षणिक आतुरता का समाधान करने के लिए नशा पीते हैं। इसकी प्रतिक्रिया हाथों-हाथ धन की बर्बादी, परिवार की दुर्गति, बदनामी एवं दुर्बलता बीमारी की बढ़ोत्तरी के साथ-साथ अकाल-मृत्यु का लानत शिर पर आ धमकती है। कहने वाले तो नशे को भी मन की मौज कह कर स्वार्थ-सिद्धि में सम्मिलित कर सकते हैं। पर वस्तुतः वैसी बात है नहीं।

पेट से अधिक खाकर मरने वाले पेटू खाते समय तो चयेरपन पर अंकुश नहीं कर पाते हैं और सोचते हैं स्वादिष्ट व्यंजनों को जितना अधिक खाया जा सके, उसमें कमी नहीं रहने देना चाहिए। खाते समय लगता भी ऐसा ही है कि मानो जन्म-जन्मान्तरों का पुण्य उदय हुआ हो और सुयोग आसमान से टूटा हो। पर, कुछ ही समय बाद जब पेट फूलने, दर्द उठने, उल्टी होने, दस्त लगने जैसे संकट आ धमकते हैं और गरदन मरोड़ते हैं, तब पता चलता है कि कुछ घड़ी पूर्व जिसे सौभाग्य समझा जा रहा था वस्तुतः उसके पहिचानने में भूल हुई और वह छद्मवेश बन कर दुर्भाग्य ही सिर पर चढ़ा था।

बढ़ती जवानी में, कामुकता में अति बरतने वाले, उन दिनों तो इतराते-इठलाते फिरते हैं, पर कुछ ही समय उपरान्त जब यौन रोगों का आक्रमण होता है और असमय में बुढ़ापा आ घेरता है, तब पाता है कि आवेश के उन्माद में अतिवाद अपनाकर भूल की गई। जो बात उन दिनों स्वार्थ सिद्धि प्रतीत हो रही थी, वह वस्तुतः आत्मघात के लिए प्रयुक्त की गई एक जायकेदार भर थी। खाते समय उसके दुष्परिणामों पर विचार कर लिया गया होता तो अच्छा रहता। मन मारना पड़ता और ललक पर अंकुश लगाना पड़ता, तो ही भला था। किन्तु किया क्या जाय? विधाता भी अजीब मसखरा है, उसने आदमी को जितनी समझदारी दी है, साथ ही उससे अधिक बेवकूफी भी लाद दी है। आश्चर्य है कि स्वार्थसिद्धि के लिए आतुर मनुष्य इतना तक समझ नहीं पाता कि तत्काल ही सब कुछ नहीं है। अगले क्षणों सामने आने वाली परिणति का भी कुछ महत्व है।

चासनी पर आँखें बन्द करके टूट पड़ने और पर फँसा कर बेमौत मरने वाली मक्खी की बुद्धिहीन स्थिति को दयनीय माना जा सकता है। पर आदमी के सम्बन्ध में तो ऐसी बात नहीं है उसे तो अगले क्षणों काम के भले-बुरे परिणाम का अनुमान लगाने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। वंशी की डोरी में आटे की गोली का प्रलोभन मछुए ने किस हेतु सँजोया है, उसे मछली न समझ पाये, तो उसे उसकी समझ संरचना में घुसी जन्मजात त्रुटि कहा जा सकता है। चिड़िया यदि बिछे हुए जाल और उस पर छिटके हुए दानों के पीछे की दुरभिसन्धियों को न समझ सके, तो भी उसके मानसिक विकास को देखते हुए उसे निर्दोष भी कहा जा सकता है, पर मनुष्य को क्या कहा जाय जिसकी विशेषता ही कार्य-कारण की संगति बिठाते हुए किसी निर्णय पर पहुँचने की है, जिसने प्रगति पथ पर चलते हुए इतनी लम्बी यात्रा पूरी की है, वह किस कारण आज के कृत्यों की उस परिणति को समझ नहीं पाता, जो आये दिन घटित होती और सर्वत्र समान रूप से दृष्टिगोचर होती रहती है।

स्वार्थ सिद्धि के लिए क्या करना चाहिए, इसका निर्धारण इतना कठिन नहीं है, जिससे यथार्थवादी व्यवहार बुद्धि का आश्रय लेकर निश्चित किया जा सके। बाधा तत्काल लाभ के- क्षणिक आकर्षणों के लिए अगले ही दिन आने वाले संकट को न समझ सकने की है। बच्चे इसी भोलेपन में आग से खेलने और बिच्छू पकड़ने का प्रयत्न करते हैं। अभिभावक सजग रहते हैं कि कहीं यह सलौने छौने आकर्षण के पीछे छिपे अनर्थ को समझने में भूल न कर बैठे। इसलिए हर घड़ी उनकी गतिविधियों पर ध्यान रखते हैं और संकट की ओर बढ़ते ही उन्हें रोक देते हैं, पर वयस्कों के लिए तो वैसी व्यवस्था भी नहीं। प्रकृति ने उन्हें इस योग्य माना है कि वे आवेश में भी होश-हवास कायम रखेंगे और तनिक भी उमंग या उत्तेजना उभरते ही आत्म हत्या जैसा अनर्थ न करेंगे। किन्तु आश्चर्य तब होता है, जब तथाकथित समझदारी में से अधिकाँश को नासमझी का परिचय पग-पग पर देते देखा जाता है।

आरम्भ में कुछ कठिनाई या हानि उठाकर भी अगले दिनों सत्यपरिणाम उपार्जित करने के लिए कदम बढ़ाना पड़े तो इसमें झिझकने जैसी क्या बात है? किसान को खेत बोते-जोतते देख कर तत्काल तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि किया गया श्रम और बोया हुआ बीज निरर्थक चला गया। जो हथेली पर सरसों जमाने की बालबुद्धि अपनाकर तुर्त-फुर्त लाभ के बाजीगरी चमत्कार देखने के लिए आतुर हैं, उन्हें किसान की गतिविधियों में मूर्खता भी प्रतीत हो सकती है, किन्तु जानकारों को इसमें कुछ भी हैरानी नहीं लगती। आरम्भ में निजी पूँजी लगाये या गँवाये बिना कोई व्यवसाय नहीं चलता। बीज गलने से इन्कार कर दे तो वह पड़ा-पड़ा सड़-घुन जायेगा, पर विशाल वट वृक्ष बनने का सुयोग कभी भी प्राप्त न कर सकेगा। पल्लवों, और फल-फूलों से लदे शानदार भविष्य की कल्पना यदि सुदृढ़ हो तो कोठे में से निकालकर जमीन पर लेटने और अंकुरित होने से पूर्व अपना प्रस्तुत कलेवर गला देने की हिम्मत सँजोनी ही पड़ेगी। मध्यवर्ती और कोई मार्ग ऐसा है नहीं, जिसमें पूँजी तनिक सी लगे और आसमान से सोना बरसाने वाला व्यवसाय चल पड़े।

माली को लम्बे समय तक मनोयोगपूर्वक श्रम करना पड़ता है और साथ ही उपयुक्त समय पर उपयुक्त फल आने का इन्तजार भी करना होता है। विद्यार्थी तक इस तथ्य को शिरोधार्य करते और अपनाते देखे गये हैं। ग्रेजुएट बनने के लिए बारह-चौदह वर्षों तक निरन्तर सिर खपाते रहने की आवश्यकता पड़ती है। पुस्तकें कापियाँ खरीदने, फीस जमा करने जैसी हानि उठाते रहने की बात भी बिना आनाकानी किये, गले उतारनी पड़ती है। जो इतनी साधना कर सकते हैं, उन्हीं को अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने और अफसर बनने का सुयोग मिलता है। जिन्हें आवारागर्दी ही पसन्द है, जो मटरगश्ती करते, ताश-शतरंज में समय गुजारते, किताब बेच कर सिनेमा देखते और फीस जमा करने के लिए मिले पैसों से यारबाजी से सुगल पूरे करते हैं, वे तत्काल तो मस्ती दिखाते और इतराते हुए खुशमिज़ाज दीखते हैं, पर कुछ ही समय बाद यह संकट आ धमकता है, जिसमें भर्त्सना, प्रताड़ना, लज्जा और दुर्गति के प्रहार पर प्रहार होने लगते हैं। अप्रामाणिक ठहरते और जहाँ जाते वहीं दुत्कारे जाते हैं। कुसंग में भटकने वाले बालक किस प्रकार अपना भविष्य बिगाड़ते हैं, इसके ढेरों उदाहरण अपने इर्द-गिर्द ही दृष्टि पसार कर देखे जा सकते हैं। समझदारी ही बताती है कि दूरदर्शिता अपनाने में लाभ है या तत्काल लाभ की आतुरता में कुमार्ग अपनाने में।

स्वार्थ का तात्पर्य यदि अपना हित साधन हो तो इसके लिए चिरस्थायी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए ऐसे कदम उठाने चाहिए, जिनमें भले ही संयम बरतना, श्रम करना, और यत्किंचित् कष्ट भी सहना पड़े तो उसे प्रसन्नतापूर्वक अंगीकार किया जाय। यह बात गिरह बाँध लेने जैसी है कि सज्जनता, सद्भावना, जागरुकता और तत्परता जैसी सत्प्रवृत्तियों का सघन समावेश रखते हुए, जो कदम उठाये जाते हैं, वे ही चिर स्थायी सत्परिणाम उत्पन्न करते हैं। नीतिमत्ता ही फलती-फूलती है। आदर्श अपनाकर ही कोई महान बनता है। जिन्हें उज्ज्वल भविष्य अभीष्ट हो। उन्हें शालीनता के राजमार्ग पर चलना चाहिए। भले ही यह विद्या अपनाने पर ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ के सनातन निर्धारण अपनाने पड़ें।

आतुर, उतावले लोग ओछी दृष्टिकोण अपनाते और वितृष्णा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने को आतुर रहते हैं। यह अदूरदर्शिता, फुलझड़ी की तरह चमकती, झाग की तरह उफनती और बबूले की तरह मचलती तो है, पर यह भी स्पष्ट है कि ढोल की पोल खुल कर ही रहती है। काठ की हाँडी में बार-बार खिचड़ी पकती रहेगी- यह सोचना व्यर्थ है। अदूरदर्शिता अपनाकर, सस्ती सफलता पाने के लिए कुमार्ग की पगडंडी पकड़ना ऐसा ही बाल-विनोद है, जिसमें उथले मनोरंजन की अतिरिक्त और कुछ सार है नहीं। इस पगडंडी का जिनने भी अवलम्बन लिया है, वे झाड़ियों में भटके, काँटों से छिदे और रोते-कलपते वापस लौटे हैं। यदि यह कठिनाई न होती, तो हर कोई इसी राह पर चलता। तब आदर्शवाद अपनाने के लिये किसी में संकल्प साहस उठता ही नहीं।

स्वार्थसिद्धि शब्द बदनाम इसी लिए हुआ है कि उसमें अदूरदर्शिता घुस पड़ी और किसी भी कीमत पर तत्काल लाभ पाने का लालच, औचित्य की मर्यादा पार कर गया। यदि ऐसा न होता तो उसे आत्मकल्याण-आत्मोत्कर्षण-लक्ष्य की प्राप्ति-पूर्णता की उपलब्धि आदि नामों से पुकारा जाता। महामानव सर्वथा निःस्वार्थ- निस्पृह रहे हों ऐसी बात नहीं। जब सभी अपना हित और लाभ चाहते हैं, प्राणि मात्र की प्रकृति ही यह है तो फिर महापुरुषों का नियति क्रम से बाहर रहने से गुजारा कैसे हो सकता है। निजी लाभ की बात सोचने में न अनौचित्य है और न अधर्म। यह स्वाभाविक भी है- सरल भी और सुखद भी। असमंजस वहाँ खड़ा होता है, जहाँ भाषी परिणामों की ओर से आँखें मूँद कर तत्काल लाभ के लिए, कुछ भी करने के लिए कटिबद्ध हुआ जाता है और ऐसा कदम उठाया जाता है, जिसमें आत्म प्रवंचना के साथ-साथ आत्म-प्रताड़ना की दुहरी मार पड़े और चौबे का छब्बे बनने की फिराक में डूबे भर रहने का व्यंग्य सहना पड़े।

स्वार्थ के साथ औचित्य भी रहना चाहिए। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसे लोकहित के विपरीत निजी हित की बात नहीं सोचना चाहिए। यह मात्र धर्मोपदेश ही नहीं है, इसके पीछे सृष्टा की वह नियति व्यवस्था भी है, जो मर्यादा तोड़ने वाले- वर्जनाओं की अवज्ञा करने वालों की खबर मोटे डंडे से लेती, कान मरोड़ती और मुर्गा बना कर धूप में खड़ा करने में भी नहीं चूकती।


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