राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक सदाचारी, सन्तोषी ब्राह्मण रहता था। वह निर्धन था। स्त्री की प्रेरणा से धन प्राप्ति के निमित्त घर से निकला तो जंगल में एक महात्मा से भेंट हुई। उन्होंने इसे चिन्तित देख आश्वासन दिया और विक्रमादित्य को पत्र लिखा कि तुम्हारी इच्छा पूर्ति का अब समय आ गया है। अपना राज्य इस ब्राह्मण को देकर यहाँ चले आओ।
वह पत्र विक्रमादित्य ने पढ़ा तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और ब्राह्मण को राज्य सौंपने की तैयारी की। ब्राह्मण ने राजा को राज्य-त्याग के लिए इतना उत्सुक और अत्यन्त आनन्द विभोर देखा तो सोचने लगा कि जब राजा ही राज्य सुख को लात मार कर योगी के पास जाने में विशेष आनन्द अनुभव कर रहे हैं तो योगी के पास अवश्य ही कोई राज्य से भी बड़ा सुख है। अतः उसने राजा से कहा कि- ‘महाराज! मैं अभी महात्माजी के पास पुनः जा रहा हूँ लौटकर राज्य लूँगा।’ यह कह कर योगी के पास पहुँचकर बोला कि ‘भगवन्! राजा तो राज्य-त्यागकर आपके पास आने के लिये नितान्त उतावला और हर्ष विभोर हो गया इससे जान पड़ता है कि आपके पास राज्य से भी बड़ी कोई वस्तु है, मुझे वही दीजिए।
महात्मा ने प्रसन्न हो उसे पूर्ण योग क्रिया सिखाई और ब्राह्मण पूर्ण तपस्वी होकर मोक्ष-सुख पा गया। मोक्ष-सुख से राज्य-सुख नितान्त तुच्छ है।