नीतिमत्ता- एक अनुशासन, एक अनुबन्ध

March 1984

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सहकारिता के आधार पर ही मनुष्य बुद्धिमान, बलवान, सम्पत्तिवान बना है। सहकार को मानवी प्रगति का उद्गम माना जाता है। विचारणीय है कि आखिर यह सहकार है क्या? तनिक-सा विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय ही सहकार है। इस प्रक्रिया को अपनाने पर समृद्धि और प्रगति का वातावरण बनता है। सहकार को समाज की उन्नति एवं संस्कृति का मेरुदण्ड कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी। इस सत्प्रवृत्ति को अपनाने की प्रथम शर्त यही है कि व्यक्ति औचित्य की मर्यादा में रहे, औसत स्तर की सुविधा से सन्तुष्ट रहना सीखे और वह आधार अपनाए, जिसमें अन्यायों के हित कटते न हों। अपनी भलाई उसी सीमा तक की जाए, जिसमें दूसरों के साथ बुराई करने पर उतारू न होना पड़े। नैतिक अनुशासन इसी के लिये बाधित करता है। धर्मधारणा का विशालकाय कलेवर मनुष्य को इसी परिधि में रहने के लिये- स्वेच्छा-सहमत रखने के निर्मित बनाया-खड़ा किया गया है।

धर्म किसी प्रथा, प्रचलन, कर्मकाण्ड या पूजा विधान को नहीं कहते, वरन् वह एक ऐसा राजमार्ग है जिस पर चलने वाले को बाईं ओर रहना और बिना टकराये चलना पड़ता है। नीतिवान ही धर्मात्मा है। कर्मकाण्डी तो पुजारी भर कहे जा सकते हैं । धर्म और सहकार की एकात्मता पर ही समाज का ढाँचा खड़ा हुआ है। नीति-मर्यादाओं का पालन ही धार्मिकता है। जहाँ भी इनकी उपेक्षा होगी- मनमर्जी बरती जायेगी। अराजकता फैलेगी और समाज संरचना का ढाँचा ही बिखर जाएगा। अध्यात्म अनुशासन का तकाजा व्यक्ति को इसी दृष्टि से नीति-नियमों के बन्धन में रहने हेतु बाधित करता है।


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