दृश्य से परे विचारों की विलक्षण दुनिया

March 1984

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सृष्टि में सब कुछ भरा है अपनी आवश्यकता एवं प्रकृति के अनुरूप जीवधारी प्राणी एवं पेड़ पादप उससे पोषण तथा विकास के लिए साधन प्राप्त करते हैं। वायु मण्डल में आक्सीजन भी है तथा कार्बन डाइआक्साइड भी। जीव-जन्तु आक्सीजन को प्राणवायु के रूप में ही ग्रहण करते हैं, पर वृक्ष वनस्पतियाँ विषाक्त समझी जाने वाली गैस कार्बन डाइआक्साइड का स्वेच्छा से पान करती हैं। जमीन में अनेकों प्रकार के तत्व मौजूद हैं। पर जीव जन्तु तथा पेड़-पादप उससे अलग-अलग प्रकार के तत्व खींचते हैं। एक ही समुदाय की विभिन्न जातियों की तत्वों, खनिज पदार्थों के पृथ्वी से अवशोषण करने में भिन्नता भी दिखाई पड़ती है। वृक्ष-वनस्पतियों की आकृति एवं प्रकृति में- गुण-धर्म में जो भिन्नता दिखाई पड़ती हैं उसका प्रमुख कारण है उनके द्वारा भूमि से विभिन्न तत्वों का ग्रहण किया जाना।

प्राणियों की आकृति-प्रकृति में भी जो मौलिक अन्तर दिखाई पड़ता है उसमें अनुवांशिक विशेषताओं के अतिरिक्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यही कार्य करता है कि वे प्रकृति से किस प्रकार के तत्व- पोषण प्राप्त करते हैं। शाकाहारी जीव-वृक्ष वनस्पतियों पर गुजारा करते हैं। माँसाहारी जीव माँस भक्षण करते हैं। आहार की इस भिन्नता से उनकी आकृति एवं प्रकृति में भी अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। बगीचे में भौरे पहुँचते हैं तथा गुबरीले कीड़े भी। एक फूलों का रसपान करता है दूसरा गोबर पर बैठा मोद मनाता है। केंचुऐ मिट्टी का भक्षण करके जीवित रहते हैं जबकि उसके भीतर लोहा, सोना, फास्फोरस, नाइट्रोजन आदि तत्व भरे होते हैं। वृक्षों की तरह उन्हें अलग से खींच पाना उसके लिए सम्भव नहीं हो पाता।

भू-मण्डल तथा जल मण्डल से भी बहुमूल्य सम्पदाएँ अन्तरिक्ष में भरी पड़ी हैं। पृथ्वी, जल स्थल हैं, आकाश सूक्ष्म। पृथ्वी पर बहुमूल्य अनुदान आकाश से ही होकर बरसते हैं। सूर्य की रोशनी, ताप इसी माध्यम से होकर आता है। पानी इसी के गर्भ में बनता तथा बरसता है। प्राण की, पर्जन्य की, अन्तरिक्षीय अनुदानों की वर्षा इसी तल से होती है। इसका मात्र क्षेत्र ही विस्तृत नहीं है वरन् सम्पदाएँ भी बढ़ी-चढ़ी हैं। ईथर तत्व उसके पोल में भरा है जो संचार तंत्र का प्रमुख स्त्रोत है। ये वे पदार्थ हैं जिनकी जानकारी प्रायः हर विज्ञान वेत्ता को रहती है। तत्त्वदर्शियों ने अन्तरिक्षीय गर्भ में अधिक सूक्ष्म परतों तथा उनमें समाहित अगणित बहुमूल्य तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। शरीर स्थूल है जो दिखता है। पर सभी जानते हैं कि कार्य कर रही चेतना उस कलेवर में फैली रहती तथा वही काया की संचालक भी है। ठीक इसी प्रकार अन्तरिक्ष की भी अनेकों सूक्ष्म परतें हैं। अदृश्य जीवधारी- भूत, प्रेत, पितर, किन्नर, देवता आदि का अस्तित्व उसी सूक्ष्म क्षेत्र में है। “देवता आकाश में निवास करते हैं, इस तथ्य की संगति भी उपरोक्त तथ्य से बैठती है। मृत्यु के बाद, हलचल करने वाली- प्रेरणा देने वाली अदम्य कार्य कर दिखाने वाली चेतना आखिर कहाँ चली जाती है तथा वह अनायास कहाँ से प्रकट हो जाती है, उसकी खोजबीन करने पर सुनिश्चित रूप से एक अविज्ञात सूक्ष्म दुनिया की सम्भावना को स्वीकार करना पड़ता है। सम्भव है वह सूक्ष्म अन्तरिक्षीय परतों में अपना जाल फैलाये हुए हो तथा दृश्य दुनिया की हलचलों की प्रेरणा स्त्रोत हो।

पदार्थों तथा चैतन्य जीवधारियों के अतिरिक्त विचारों का भी एक संसार है जो और भी अद्भुत है, अति सामर्थ्यवान है। मनुष्येत्तर जीवधारी तो स्थूल जड़ संसार तक ही सीमित रहते, उससे ही जीवनयापन की आवश्यक सामग्री प्राप्त करके किसी तरह गुजारा करते हैं। उनकी पहुँच विचार जगत तक नहीं है। पर मनुष्य उससे भी अधिक बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है। अच्छा भी बुरा भी। देव-दानव का, जड़-चेतन का, रात-दिन का, प्रकाश अन्धकार का, पाजिटिव-निगेटिव का युग्म प्रत्यक्षतः देखा जाता है। विचार जगत में भी दोनों तरह के तत्व विद्यमान हैं। भले एवं बुरे दोनों ही तरह के विचारों का उसमें अस्तित्व है। पदार्थों की दुनिया की तरह इसमें से भी अपनी इच्छा के अनुरूप भले-बुरे विचारों को खींचा एवं संग्रहित किया जा सकता है।

आणविक जीव विज्ञानी जैम्बिसमोनाड नामक विद्वान् ने एक पुस्तक लिखी है- ‘चान्स एण्ड नेसेसिटी’ उन्होंने यह रहस्योद्घाटन किया है कि मैटेरियल वर्ल्ड से जुड़ी बायोस्फीयर की स्ट्रैटोस्फीयर जैसी परतों के अतिरिक्त एक सूक्ष्म परत भी मौजूद है। इस परत का उन्होंने नाम-आइडियो स्फीयर रखा है। उनका मत है कि आइडियोस्फीयर में वैचारिक सम्पदा का वह भण्डार छुपा पड़ा है जो सृष्टि से लेकर अब तक मानव मस्तिष्क द्वारा आविष्कृत हुआ है तथा अपनी समर्थता के कारण समय-समय पर मानव जाति के उत्थान पतन का आधार बना है।” वे लिखते हैं कि “सशक्त विचार कभी भी समाप्त नहीं होते- अचेतन ब्रह्माण्ड में विद्यमान रहते हैं। जीवधारियों की तरह विचार भी अपनी वंश-परम्परा में ही यथावत् न बने रहकर विकास के लिए सतत् आतुर रहते हैं। समधर्मी विचार आपस में मिलते अनुकूल का चुनाव करते तथा धनीभूत होते रहते हैं।”

साथ ही इस तथ्य का भी उन्होंने उल्लेख किया है कि जिन विचारों की आवृत्ति जितनी अधिक होती हैं वे उतने ही सक्षम-समर्थ बनते जाते हैं। उनकी तरंगें आइडियोस्फीयर में मौजूद रहती तथा अपनी प्रेरणाएँ सम्प्रेषित करती रहती हैं। वे तरंगें कई प्रकार की होती हैं। सभी सूक्ष्म वातावरण में प्रवाहित होती रहती हैं। प्रयोग होने पुनरावृत्ति होने अथवा न होने पर उनकी सामर्थ्य बढ़ती या घटती रहती है, पर मूलतः समाप्त कभी नहीं होती।

विचारों की पुनरावृत्ति एवं उनके प्रभाव से तैयार होने वाले वातावरण की भली बुरी अनुभूतियाँ भी किन्हीं-किन्हीं स्थानों पर होती हैं। मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर आदि स्थलों पर पावन सात्विक विचारों का आह्वान किया जाता है। उनकी ही बारम्बार आवृत्ति होती रहती है। उसका स्थानीय प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। दर्शन के लिए पहुँचने वालों के मन को शान्ति मिलती, आशा की ज्योति जगती, निराशा की भावना मिटती है। कसाईखानों में पशु मारे जाते हैं। उनके कारुणिक क्रन्दन के सूक्ष्म प्रभावों से वह वातावरण घिरा रहता है। अनायास ही उसकी अनुभूति घृणा एवं भय जुगुप्सा के रूप में होती है। युद्ध भूमि में भय की भावना का संचार युद्धोपरान्त भी होता रहता है। हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र आदि काल से ही ऋषियों की तपःस्थली रहा है। जो तीर्थाटन परिभ्रमण अथवा साधना के लिए पहुँचते हैं, उन्हें सहज ही यह अनुभूति होती है, जैसे सात्विक विचारों की वर्षा हो रही हो। मन अपने आप लगने लगता तथा किसी समर्थ सत्ता के अस्तित्व में विश्वास जमने लगता है।

स्थानीय प्रभावों तक ही विचारों की सीमा नहीं है। सूर्य की गर्मी, वायु की नमी की तरह उनका प्रभाव व्यापक क्षेत्र में पड़ता है। जिस तरह वायु के झोंके एवं सूर्य की किरणें गतिशील बने रहते हैं, उसी प्रकार विचार भी व्यापक अन्तरिक्ष में परिश्रमशील रहते हैं। गंगा एवं यमुना दोनों ही नदियों का स्रोत हिमालय है। पर गति एवं दिशा अलग-अलग होने से वे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को अपनी लपेट में ले लेती हैं। जिन्हें गंगा के पावन एवं स्वास्थ्यवर्धक जल का लाभ लेना हो उन्हें गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में जाने पर अवश्य ही मिलता है।

सूक्ष्म विचार जगत में अस्तित्व तो हर तरह के विचारों का है पर उनमें से उन्हीं का लाभ उठा सकना सम्भव है जिसका आह्वान-अवगाहन किया जायेगा। ग्रहण करने तथा अभीष्ट प्रकार के विचारों से अपनी झोली भर लेने में मनुष्य की मानसिक स्थिति की भी एक बड़ी भूमिका होती है। विचार जगत से आदान-प्रदान का क्रम भी उसी के अनुरूप चलता है। मानवी मस्तिष्क में दोनों तरह के विचार चलते हैं। अच्छे भी, बुरे भी। विधेयात्मक भी, निषेधात्मक भी। सृजनशील भी, विध्वंसक भी। मन पर जिस तरह के विचार हावी होंगे, मनःस्थिति उसी के अनुरूप बनेगी। मनःक्षेत्र में प्रभावी विचारों का आह्वान भी अपने सजातियों के लिए होता है। मस्तिष्क से वे निकलते खोजी दलों की तरह सूक्ष्म अन्तरिक्ष का परिभ्रमण करते तथा प्रवाहित विचार तरंगों में से अपने सजातियों का संग्रह कर लेते हैं।

एक जैसे वातावरण तथा एक-सी परिस्थितियों में रहने के बावजूद भी दो व्यक्तियों का विकास भिन्न स्तर का हो जाता है। एक सन्त ऋषि, महामानव बन जाता है। दूसरा दुष्ट, दुराचारी, नर पिशाच बन जाता है। इस अन्तर का कारण ढूँढ़ना हो तो उसकी मनःस्थिति का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन-पर्यवेक्षण करना चाहिए। समाधान इस बात में मिलेगा कि उसमें किस तरह के विचार हावी थे। विचार जगत से वस्तुतः उसी के अनुरूप पोषण मिला तथा भला-बुरा व्यक्तित्व ढलता गया।

समष्टिगत चिन्तन के अनुरूप ही युग का स्वरूप तथा प्रत्यक्ष वातावरण बनता है। तत्त्वदर्शियों का मत है कि इन दिनों की परिस्थितियाँ अत्यन्त विस्फोटक हो चली हैं। उसका प्रत्यक्ष कारण कुछ भी लगाया जाये पर परोक्ष तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण ध्वंसकारी विचार चक्र की गति एवं स्थिति का तीव्र एवं सुदृढ़ हो जाना है। जिसकी स्थूल प्रतिक्रिया निकृष्ट चिन्तन तथा भ्रष्ट आचरण के रूप में सर्वत्र दिखायी पड़ रही है। युग परिवर्तन में इसी विचार चक्र को तोड़ना तथा क्षीण पड़ गये सृजनधर्मी विचारचक्र को सुदृढ़ करना व गति देना पड़ता है।

जिन विचारों का आह्वान किया जायेगा उसी के अनुरूप विचार जगत से अनुदान मिलेगा। इन दिनों सर्वत्र बोलबाला निषेधात्मक, विध्वंसक विचारों का हो रहा है। फलस्वरूप सूक्ष्म विचार जगत न केवल उसी के अनुरूप प्रेरणाएँ सम्प्रेषित कर रहा है वरन् बारम्बार ध्वंस की आवृत्ति पाकर अपने उस स्तर को मजबूत बना रहा है। यह संकट दूर होने के स्थान पर और भी घनीभूत होता जा रहा है। उसे परिपोषण मानवी चिन्तन द्वारा विभिन्न अभिव्यक्तियों के माध्यम से सतत् मिल भी रहा है। पर ये परिस्थितियाँ उलट भी सकती हैं, यदि सामूहिक चिन्तन को मोड़ा-मरोड़ा जा सके।

विचारों के आधार पर ही मानवी व्यक्तित्व बनता है। तद्नुरूप आचरण प्रस्तुत होता है पर यह खुली छूट है कि मनुष्य किस तरह के विचारों का चयन करे। मूलतः मानव दैवी सत्ता का अंश है। प्रकृति आसुरी तत्वों से युक्त है। सत्ता में दोनों का ही अंश एवं प्रभाव है। जिसका पलड़ा भारी होगा उधर ही मनुष्य का रुझान होगा। उसी के विचारों का चिन्तन होगा तथा विचार जगत से, भी उसी अनुरूप आदान-प्रदान चलेगा, वस्तुतः मानव की संकल्पशक्ति में गज़ब का बल है। वह पतन की ओर ढकेलने वाले मन-मस्तिष्क पर छाये निषेधात्मक विचारों के परिकर को एक झटके से तोड़ सकती है। यह सम्भव हो सके तो विचार जगत से श्रेष्ठ विचारों के आदान-प्रदान का अविराम क्रम आरम्भ हो सकता है। जिसके फलस्वरूप वह सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, जो पदार्थ जगत से भी करतलगत कर सकना सम्भव नहीं हो सका है।


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