प्रकृति जीव एवं वनस्पतियों का परस्पर एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पृथ्वी, जल, वायु तथा अगणित जीवनोपयोगी पदार्थ प्रकृति के घटक हैं। प्राणियों अथवा वनस्पतियों के रूप में गतिशील जीवन का इन सबके सहयोग एवं सन्तुलन के आधार पर ही अपना अस्तित्व है। लगता भर है कि सभी अलग-अलग घटक हैं पर वास्तविकता यह है कि एक अभिन्न चक्र से सभी जुड़े हुए हैं, एक ही माला के मनके हैं। एक ही गति एवं स्थिति से समस्त चक्र प्रभावित होता और तद्नुरूप प्रतिक्रिया दर्शाता है। इकालॉजी के विशेषज्ञों का मत है कि प्रकृति चक्र की अपनी स्वसंचालित प्रक्रिया है। यदि उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप न किया जाय तो वह सतत् गतिमान रहते हुए अगणित अनुदानों से जीव जगत की सेवा करता रह सकता है।
इकालॉजी विशारदों के अनुसार जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक तीस से चालीस रासायनिक तत्व प्रकृति में सदा परिभ्रमण करते रहते हैं। उनका परिवर्तन विभिन्न चक्रों में, विभिन्न रूपों में होता रहता है। विज्ञानवेत्ता इस ‘बायोजियोकेमिकल साइकिल’ कहते हैं। यह चक्र प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन का स्रोत है, जिससे वे अपने-अपने लिए विभिन्न तरह के रासायनिक तत्व रूपी आहार प्राप्त करते हैं। अवशोषित तत्व जीवकोशों में पहुँचते हैं, जहाँ चयापचय क्रिया सम्पन्न होती है। अवशिष्ट पदार्थ उत्सर्जन के बाद अकार्बनिक जगत को लौटा दिए जाते हैं। यही चक्र निरन्तर गतिशील रहकर प्रकृति की सन्तुलन व्यवस्था को सतत् दृढ़ बनाये रखता है।
गैस रूप में विद्यमान वायुमण्डल के रासायनिक तत्व जीवधारियों द्वारा शोषित होकर पोषक तत्वों में बदल जाते हैं। उदाहरणार्थ- कार्बन डाइआक्साइड कार्बोहाइड्रेट में तथा नाइट्रोजन प्रोटीन में। आहारचक्र के अन्तर्गत अन्यान्य घटकों से गुजारते हुए वे अपने मूल स्वरूप में उत्सर्जन, श्वसन इत्यादि प्रक्रियाओं के उपरान्त वायुमण्डल को लौटा दिए जाते हैं। भूमिगत रासायनिक तत्वों का चक्र भी इसी प्रकार संचारित होता रहता है। पत्थरों के अपक्षयन से खनिज उत्पन्न होते हैं जो लवण के रूप में परिवर्तित होकर मिट्टी में जल अथवा समुद्र, झरना, नदी में मिल जाते हैं और जल चक्र के अभिन्न अंग बन जाते हैं। पौधे प्राणी इस खनिज लवण को ग्रहण करते हैं। फिर आहार चक्र की शुरुआत हो जाती है। अवशिष्ट पदार्थों के वियोजन तथा अंगों के अपक्षयन से खनिज तत्व पुनः लवण एवं जल के रूप में हस्तान्तरित कर दिये जाते हैं।
इस ‘बायोजियो केमिकल साइकिल’ द्वारा जीव जगत की विभिन्न प्रक्रियाओं से उत्पन्न अवशेषों का प्रयोग दूसरे समुदाय द्वारा कर लिया जाता है। एक का अवशिष्ट पदार्थ दूसरे का ऊर्जा स्रोत अथवा आहार बन जाता है। प्राणियों के अवशिष्ट पदार्थों में मिली नाइट्रोजन जीवाणुओं का आहार बन जाती है। जीवाणु मरकर भूमि को उर्वरा बनाते हैं। मिट्टी से पौधे पोषण प्राप्त करते हैं। पौधों से पशुओं को आहार मिलता है। इस प्रकार एक अविराम गतिचक्र चलता रहता है। मनुष्य द्वारा उत्सर्जित विष समान कार्बन डाइआक्साइड पौधों का जीवनाधार है।
इसी प्रकार जनन, पोषण, अभिवर्धन, परिशोधन एवं सन्तुलन का स्वसंचालित गतिचक्र प्रकृति में चलता रहता है जो प्रकृति के विभिन्न घटकों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित है। जन्म एवं विकास की तरह मृत्यु व विनाश भी उस जीवन चक्र के गति एवं सन्तुलन के लिए आवश्यक है। पदार्थों के गतिचक्र तथा उससे उत्सर्जित होने वाले ऊर्जा प्रवाह पर ही समस्त जीवों का जीवन अवलम्बित है। जिन्हें जड़ समझा जाता है। उनमें भी यह चक्र गतिशील है। जल के वाष्पीकरण, जमाव तथा पत्थरों के उद्भव एवं कटाव के रूप में भी वह चक्र क्रियाशील है। इसी प्रकार पौधों द्वारा भी सूर्य का प्रकाश अवशोषित किया जाता है तथा पुनः ऊर्जा के रूपान्तरण के साथ अन्तरिक्ष में छोड़ दिया जाता है।
प्रत्येक जीवनदायी पदार्थ में जल का अंश होता है। जीवधारी जब उन्हें ग्रहण करते हैं तो उसका जल कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, फास्फोरस व सल्फर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा तथा अन्य जीवनदायी पोषक तत्वों में बदल देता है। पौधे मिट्टी से पोषक तत्वों के रूप में नाइट्रेट, अमोनिया सल्फेट आदि प्राप्त करते हैं। वे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से आक्सीजन को वायुमण्डल में छोड़ते रहते हैं। वातावरण में प्रचुर परिमाण में विद्यमान नाइट्रोजन एक निष्क्रिय गैस है जो जीवधारियों द्वारा सीधे प्रयोग में नहीं लायी जा सकती, जबकि वह जीवन की एक प्रमुख इकाई है पर प्रकृति की व्यवस्था वस्तुतः विलक्षण है। दूसरी एक प्रक्रिया से वह उस गैस का प्रयोग योग्य बना देती है। वातावरण में जीवाणुओं की जातियाँ तथा कुछ ‘एल्गी’ की प्रजातियाँ इस गैस को उपयोग में लाती हैं तथा वायुमण्डल से खींचकर मिट्टी में छोड़ देती हैं। मिट्टी के जीवाणु नाइट्रोजन को अमोनिया में बदल देते हैं। कुछ पौधे अमोनिया को सीधे प्रयोग कर लेते हैं, परन्तु अधिकाँश मिट्टी के जीवाणुओं द्वारा इसके नाइट्राइट व नाइट्रेट में परिवर्तित किये जाने के उपरान्त ही ग्रहण करते हैं। कैल्शियम सल्फर, मैग्नेशियम, पोटेशियम तथा बोरोन जैसे खनिज तत्व मिट्टी के माध्यम से पौधों की जड़ों को प्राप्त होते हैं। पौधों के विनष्ट होने पर पुनः मिट्टी में मिल जाते हैं।
प्रकृति में विभिन्न प्रकार के चक्र चलते रहते हैं। अपनी अलग-अलग भूमिका सम्पन्न करते हुए भी वे परस्पर एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप में जुड़े हुए हैं। कार्बन एवं आक्सीजन का एक चक्र है। अनुमान है कि पूरे जीव मण्डल में 2×10×16 टन कार्बन संव्याप्त है। यह वायुमण्डल में 7×10×11 टन कार्बनडाइ आक्साइड तथा हरे पौधों में 4.5×10×11 टन कार्बोहाइड्रेट के रूप में पाया जाता है। प्रकाश संश्लेषण तथा पौधों के श्वसन क्रिया से वायुमण्डल के साथ कार्बन डाइआक्साइड का विनियम चलता रहता है जिसके फलस्वरूप इसकी वार्षिक उत्पादकता धरातल पर 2.5×10×10 टन तथा समुद्री क्षेत्र में 2×10×10 टन प्रतिवर्ष होती है। दिन के समय में प्रकाश संश्लेषण से पौधे के समीप के वायुमण्डल में कार्बन डाइआक्साइड 12 प्रतिशत घट जाती है पर रात्रिकाल में जीवाणुओं, पौधों तथा पशुओं के श्वसन के धरातल पर कार्बन डाइआक्साइड की सान्द्रता 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। इससे सन्तुलन बना रहता है। यही सन्तुलन पर्जन्य वर्षा का कारण बनता है जिससे वनस्पतियों- खाद्य में प्राणतत्व समाविष्ट होता है अदूरदर्शिता के कारण ही उत्पन्न होता है।
अनुमान है कि ईंधन के जलाये जाने से वायु मण्डल में प्रतिवर्ष 6×10×9 टन कार्बन डाइआक्साइड वायुमण्डल में भरती जा रही है। वाहनों तथा बड़े कारखानों से निकली मात्रा इसके अतिरिक्त है। कार्बन डाइआक्साइड जल भी घुलनशील है। इस विशेषता के कारण वह समुद्र के माध्यम में समस्त संसार में वितरित कर दी जाती है, पर उसका बाहुल्य होने से जलचरों के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा हो गया है। यही स्थिति वायुमण्डल की है। उसमें भरी दमघोंटू विषाक्तता अगणित प्रकार के रोगों का कारण बनती है।
आक्सीजन का चक्र भूमण्डल, वायुमण्डल तथा जीव मण्डल के बीच गतिशील रहता है। आक्सीजन की मात्रा सन्तुलित रखने तथा उसके चक्र को गतिशील रखने में पौधों की प्रकाश-संश्लेषण क्रिया का महत्वपूर्ण योगदान है। आक्सीजन के अतिरिक्त भी अन्य गैसों का चक्र क्रियाशील है। वायुमण्डल में नाइट्रोजन लगभग 80 प्रतिशत है, जो अपने मूल स्वरूप अथवा परिवर्तित रूप में जीवधारियों के काम आती है। पर मनुष्य द्वारा कृत्रिम खादों के अधिक प्रयोग से वह चक्र भी बिगड़ता चला गया है।
जल चक्र पृथ्वी, सूर्य और समुद्र के सहयोग से गतिशील है। पृथ्वी एवं समुद्र का जल सूर्य प्रकाश से वाष्पीभूत होकर वायुमण्डल में पहुँचता, घनीभूत होकर बादल में बदलता तथा पुनः वर्षा के रूप में पृथ्वी एवं नदियों को लौटा दिया जाता है जो पुनः समुद्र में जा पहुँचता है। वर्षा की मात्रा किसी देश अथवा द्वीप की बनावट के ऊपर निर्भर करती है। जल के विश्व-व्यापी वितरण का लेखा जोखा लिया जाय तो मालूम होगा कि जलवृष्टि से पृथ्वी को प्राप्त जल की मात्रा वाष्पीकृत हुए जल के ही समतुल्य होती है। आस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका में सूखे की स्थिति सदा बनी रहने का कारण यह है कि वहाँ वर्षा के जल का 75 प्रतिशत भाग वाष्पीभूत हो जाता है।
जल एवं गैसों के अतिरिक्त ऊर्जा का चक्र भी सर्वत्र सक्रिय है। गति अथवा विकास के लिए प्रेरणा एवं शक्ति पेड़ पादप तथा जीव-जन्तु उसी से प्राप्त करते हैं। इस चक्र के अध्ययन विश्लेषण की नयी तकनीक रेडियो आइसोटोप, माइक्रोकैलोरीमेट्री, कम्प्यूटर साइन्स तथा एप्लायड गणित के सम्मिलित सहयोग से विकसित हुई है। इकालॉजी प्रणाली में ऊर्जा चक्र को समझने में इस विधि से भारी मदद मिली है। ऊर्जा का प्रमुख स्रोत सौर विकिरण है। इस विकिरण का कुछ अंश ‘ऑटोट्राफ’ प्रक्रिया द्वारा जैविक पदार्थ में बदल दिया जाता है जिसमें समस्त भू-मण्डल को आहार आवश्यकता की पूर्ति होती है। आहार चक्र में जीवधारियों के एक समुदाय की आहार ऊर्जा परिवर्तित रूप में दूसरे समुदाय को हस्तान्तरित कर दी जाती है।
प्रकृति के इन विभिन्न चक्रों के युग्म एवं पारस्परिक सहकार से सृष्टि में जीवन विभिन्न रूपों में अठखेलियाँ कर रहा है। एक की गति एवं स्थिति में परिवर्तन का सीधा प्रभाव समूचे ‘इकॉलाजिकल चक्र’ पर पड़ता है। पेड़ पादपों, जीव-जन्तुओं, सूक्ष्म जीवाणुओं मनुष्य तथा सम्बन्धित पर्यावरण के सह अस्तित्व एवं सम्मिलित जटिलतम प्रणाली को ‘इकोसिस्टम’ कहा जाता है। इस सन्तुलन के कारण ही समस्त प्रकृति के सभी व्यापार ठीक ढंग से चलते हैं। प्रत्येक इकॉलाजिकल सिस्टम सैकड़ों हजारों जैविक समुदायों के सहयोग से मिलकर बना है, जो ऊर्जा रासायनिक द्रव्यों का हस्तान्तरण एक से दूसरे में करता रहता है। अन्तर्जगत के इकोसिस्टम की प्रक्रिया भी स्वयं में अद्भुत है। इस प्रक्रिया के ध्वंस एवं निर्माण, जन्म और मरण सम्बन्धी विविध क्रियाओं से वातावरण के समीपवर्ती एवं दूरवर्ती क्षेत्रों में विभिन्न रसायनों का आदान-प्रदान चलता रहता है।
प्रकृति के सभी क्रियाकलाप विभिन्न घटकों के परस्पर सहयोग पर गतिशील हैं। सबका अस्तित्व भी इसी सिद्धान्त पर अवलम्बित है। इसमें गतिरोध तब उत्पन्न होता है जब अनावश्यक छेड़छाड़ की जाती और प्रकृति की स्वचालित व्यवस्था भंग की जाती है। प्रकृति ही नहीं समस्त मानव जाति भी एक जीवन चक्र में बँधी हुयी है। एक की स्थिति दूसरे को प्रभावित करती है। सबकी सुख शान्ति भी इसी बात पर आधारित है कि हर व्यक्ति अपने को विराट् परिवार का अभिन्न अंग माने, उसके विकास में सहयोग दे। व्यक्तिगत स्वार्थ की भी स्थायी रूप से आपूर्ति तभी हो सकती है जब समाज सर्वतोमुखी विकास की ओर चले। संकीर्णता जहाँ कही भी पनपेगी। विलगाव को जन्म देगी। हिल-मिलकर रहने- सरकार की नीति अपनाने तभी उपलब्धियों के आदान-प्रदान की उदारता अपनाने पर ही प्रकृति का सन्तुलन बना हुआ है। यही रीति-नीति मनुष्य जाति को भी अपनानी होगी। सबकी उपेक्षा करके एकाकी कोई भी जीवित नहीं रह सकता। अन्ततः उसे भी दम तोड़ना होगा सह अस्तित्व का सिद्धान्त प्रकृति पर ही नहीं मनुष्य के ऊपर भी लागू होता है। मानव जाति की सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य का इसे संक्षेप में आधार सूत्र समझा जा सकता है।